टीचर्स डे विशेष: शिक्षा का बदलता स्वरूप, अब न बच्चे सुनते हैं न टीचर्स समझते हैं

प्राचीन समय में जब गुरुकुल में रहकर शिक्षा अर्जित करने का चलन था तब गुरु-शिष्य परम्परा का मान सबसे अधिक था

Update: 2021-09-03 14:56 GMT

प्राचीन समय में जब गुरुकुल में रहकर शिक्षा अर्जित करने का चलन था तब गुरु-शिष्य परम्परा का मान सबसे अधिक था। गुरु दक्षिणा में अपना अंगूठा काटकर दे देने वाले एकलव्य जैसे शिष्य, गुरुजनों का गौरव थे। वहीं द्रोणाचार्य से लेकर ऋषि वशिष्ठ तक जैसे गुरु थे जिन्होंने अपने शिष्यों को अद्भुत ज्ञान के साथ ही जीवन जीने की कला भी सिखाई। भारत में गुरु शिष्य परम्परा का यह चलन पिछले कुछ सालों में बहुत तेजी से बदला है। अब शिक्षा देने और प्राप्त करने, दोनों ही स्तरों का व्यवसायीकरण यानी कमर्शियलाइजेशन ज्यादा हो गया है। लिहाजा न गुरु के प्रति पहले जैसा सम्मान ही बचा है, न ही शिष्यों के प्रति पहले जैसी जिम्मेदारी। टीचर्स पर कई तरह के बोझ हैं और बच्चों पर केवल अच्छे मार्क्स लाने का दबाव। इससे पढ़ाई-लिखाई का ज्यादातर प्रतिशत सीखने से ज्यादा सिर्फ पढ़ने तक सीमित रह गया है। इस शिक्षक दिवस जानिये कुछ तथ्य और अनुभव इसी बारे में।

एक प्राइवेट हायर सेकेंडरी स्कूल में साइंस की टीचर वर्षा बच्चों से ज्यादा उनके पैरेंट्स से नाराज हैं। वे कहती हैं
थोड़ा स्ट्रिक्ट बनो तो पैरेंट्स, मैनेजमेंट से शिकायत करने आ जाते हैं। ज्यादातर पैरेंट्स बच्चों के सामने हमसे इस तरह बात करते हैं जैसे उन्होंने फीस चुका कर हमें खरीद लिया है। अब इससे बच्चे पर क्या प्रभाव पड़ता है ये बताने की जरूरत ही नहीं है। उसकी नजरों में टीचर सिर्फ पैसे के आधार पर सेवाएं देने वाला एक कर्मचारी भर रह जाता है। मेरी क्लास में 60 बच्चे हैं और तीन सेक्शन को मिलाकर कुल 180 बच्चों को मैं रोज पढ़ाती हूँ लेकिन इनमें से मात्र 10 प्रतिशत बच्चे ही ऐसे हैं जो रास्ते में या कहीं बाहर मिल जाने पर मुझे हैलो तक कहते हैं। ये चीज चुभती है। मुझे अपने टीचर्स याद आते हैं कि किस तरह हमारे मन में उनके लिए सम्मान और आदर दोनों हुआ करता था। मैंने इस क्षेत्र को इसलिए ही चुना था, लेकिन अब लगता है गलती कर दी।
टीचर्स से सवाल पूछना मतलब?
इंजीनियरिंग करने वाले अमोल ने इस बात को कहते हुए जरा भी झिझक नहीं दिखाई कि उनके टीचर्स उन्हें गाइड्स से पढ़ाते हैं। अमोल कहते हैं-
सारे तो नहीं लेकिन हमारे यहां 2-3 टीचर्स ऐसे हैं जो सवाल पूछा जाना पसंद नही करते क्योंकि वो खुद भी गाइड में से देखकर पढ़ाते हैं। हमारी क्लास में जो 2-3 बच्चे टॉपर्स हैं वो तो कई बार इन टीचर्स को भी गलत तरीके से सवाल सॉल्व करने के लिए टोक चुके हैं, लेकिन उनको कोई फर्क नहीं पड़ता। कोई ज्यादा टोके तो प्रैक्टिकल में नम्बर कम होने का खतरा होता है, इसलिए सब बचते हैं। सबको मालूम है कि पास होने के लिए तो कोचिंग ही जाना पड़ेगा और सवालों के जवाब भी वहीं मिलेंगे।'
शिक्षकों की शिक्षा?
यह एक बड़ा प्रश्न है। भारत में छोटी क्लासेस के लिए बीएड और बड़ी क्लासेस में शिक्षक होने के लिए पीएचडी या इसके समकक्ष डिग्री की जरूरत होती है। इसके अलावा मॉन्टेसरी ट्रेनिंग आदि का भी प्रावधान होता है। ज्यादातर प्राइवेट स्कूल-कॉलेज इसी तर्ज पर टीचर्स की भर्ती करते हैं। वहीं सरकारी स्कूलों में कुछ विशेष एंट्रेंस एक्जाम्स या इंटरव्यू के आधार पर टीचर्स की भर्ती होती है। इसका मतलब यह होना चाहिए कि हमारे देश के हर स्कूल में, हर टीचर योग्य और दक्ष- प्रशिक्षित होता है। लेकिन क्या सच में ऐसा होता है? हमारे यहां आज भी टीचिंग या शिक्षण के काम को कुछ इस लक्ष्य के साथ किया जाता है-
रोजगार या सरकारी नौकरी का आधार मिलेगा।
लड़कियों के लिए यह जॉब सेफ रहेगा।
आसान जॉब है बच्चों को ही तो पढ़ाना है।
छुट्टियां बहुत मिलेंगी, आदि
जब इस तरह की सोच के साथ किसी काम को किया जाएगा तो जाहिर है कि वह काम ही रहेगा और कुछ नहीं।
प्रशिक्षण का मतलब:
कहा जाता है कि पूरी दुनिया में फिनलैंड की शिक्षा व्यवस्था बेहतरीन शिक्षा व्यवस्थाओं में से एक है। वहां शिक्षक होने के लिए किसी भी व्यक्ति को हर कसौटी पर खरा उतरना होता है। इस बात को नहीं परखा जाता कि आपके पास कितनी डिग्रियां हैं। बल्कि इस बात पर फोकस किया जाता है कि आप बच्चों को ठीक से पढ़ा पाएंगे या नहीं और इसके लिए कैंडिडेट्स की कई स्तरों पर परीक्षा ली जाती है। वहां शिक्षक बनना बहुत कठिन काम है।
अब ऐसा नहीं है कि भारत में टीचर बनने के इच्छुक लोग मेहनत नहीं करते लेकिन अधिकांश लोग किसी तरह बस पढ़कर (कई मामलों में रटकर) डिग्री जुटा लेना चाहते हैं, ताकि वे शिक्षक बनने की प्राथमिक योग्यता को पूरा कर सकें। बहुत कम लोग इस इरादे से शिक्षक बनने की ओर कदम बढ़ाते हैं कि उनके हाथ मे आने वाले कल के सम्पूर्ण विकास की जिम्मेदारी है। लिहाजा परिणाम भी वही मिलते हैं। वे बच्चों को भी उसी लक्ष्य के साथ पढ़ाते हैं जिसमे मात्र कितने परसेंट बच्चे पास हुए इसका टारगेट पूरा करना होता है।
जिम्मेदारियों का बोझ
शिक्षक अगर प्राइवेट संस्थान का है तो उसके पास तमाम स्कूल का काम होगा। वह कागजी और क्लेरिकल काम भी जिसके लिए उसकी नियुक्ति नहीं की गई थी। अगर वह सरकारी स्कूल से है तो उसे ढेर सारे अभियानों जैसे चुनाव, जनगणना आदि के काम में लगा दिया जाएगा, और इन सबके बाद उससे यह उम्मीद की जाएगी कि वह समय पर सिलेबस भी पूरा करवाये और पूरी अटेंडेंस भी दे। किसी भी टीचर पर यह अतिरिक्त बोझ उसके किए टीचिंग को सिर्फ औरचरिकता बनाकर रख देता है।
भटकी हुई व्यवस्था
हमारे देश में शिक्षा नीति और व्यवस्था पर अब जाकर परिवर्तन करने की बात सोची गई है। इसके पहले सालों से एक ही पैटर्न का शिक्षण चला आ रहा है। अधिकांश बच्चे पढ़ाई को समझने की बजाय रटते हैं। उनका सारा फोकस अच्छे नम्बर लाने और फिर उसके आधार पर अच्छे कॉलेज में एडमिशन पाने तक सीमित होता है ताकि अच्छा पैकेज प्राप्त हो सके। जब तक इस मानसिकता पर पूरी तरह काम नहीं किया जाएगा, शिक्षा व्यवस्था को बदलने के बारे में सोचा भी नहीं जा सकता।
हमारे देश मे प्रतिभाओं की कमी नहीं है। कई बहुत छोटे गांवों में कुछ टीचर्स ने अंतरराष्ट्रीय स्तर के कार्य करके अपने विद्यार्थियों को आगे बढ़ाया है। महाराष्ट्र के एक छोटे से गांव में बच्चों को डिजिटल शिक्षा से जोड़कर 'ग्लोबल टीचर' का खिताब पाने वाले रंजीत सिंह जैसे टीचर इस क्षेत्र में उदाहरण हैं। कुल मिलाकर शिक्षण व्यवस्था के लिए कई सारे पहलुओं पर ध्यान देना जरूरी है। शिक्षकों की भर्ती में पारदर्शिता और निरन्तर शिक्षकों के चलाये जाने वाले प्रशिक्षण कार्यक्रमों की जरूरत, बच्चों को रटने की बजाय समझकर पढाने की जरूरत, पैरेंट्स की मानसिकता में परिवर्तन की जरूरत और सबसे बढ़कर पढ़ाने के साथ ही सिखाने की भी जरुरत। यह सम्भव होगा तो टीचर्स को पर्याप्त सम्मान भी मिलेगा और बच्चे सीखकर आगे बढ़ पाएंगे।

क्रेडिट बाय अमर उजाला 

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