अनन्य देशभक्त संन्यासी थे स्वामी विवेकानंद

जागो और तब तक मत रुको, जब तक अपने लक्ष्य पर न पहुंच जाओ।

Update: 2023-01-12 14:49 GMT

फाइल फोटो 

जनता से रिश्ता वबेडेस्क | उत्तिष्ठत जाग्रत चानय वरान्निबोधत'- उठो, जागो और तब तक मत रुको, जब तक अपने लक्ष्य पर न पहुंच जाओ। कठोपनिषद् के इस वाक्य को स्वामी विवेकानंद ने सीधे, भिन्न और ओज के साथ कहा, पहले कभी नहीं कहा। भगिनी निवेदिता का कथन है कि यदि वे जन्म ही न मानते हैं, तो भी जिन सत्यों का उपदेश उन्होंने किया, वे सत्य एक साथ प्रामाणिक बने रहते हैं। अंतर केवल होता है, उनकी प्राप्ति की कठोरता में, उनकी अभिव्यक्ति और आधुनिक स्पष्टता और तीक्ष्णता के अभाव में।

हमारे शास्त्रों में निहित नामयों के उद्धाटक और भाष्यकार के रूप में स्वामी जी का विशेष महत्व है। आधुनिक युग के माहौल में अपनी अंतर्निहित और सुगठित करने के लिए हमारे शास्त्रों की आवश्यकता एक प्रामाणिक वाणी की थी, जो विवेकानंद की वाणी के रूप में प्राप्त हुई।
निर्मल वर्मा ने लिखा है कि भारतीय संस्कृति परंपरा जेठ, माणिक्य शायद ही दुनिया के किसी अन्य देश के पास हों, जिन्हें हमने कांकड़-पत्थर समझ कर फेंक दिया है। हमारी त्रासदी का सबसे बड़ा कारण यह है कि हम अपने शास्त्रों का ज्ञान नहीं रखते हैं, और ज्ञान से बाहर निकलने पर विचार किए बिना अपने पूर्व के समाधान का विशद प्रयास करते हैं। स्वामी विवेकानंद हमारे शास्त्रों में सन्निहित सत्य, ज्ञान और शिक्षाओं के मूर्तिमान रूप थे।
यदि हम शास्त्रों की गहराई में गिरने का स्पंदन नहीं है, तो न हो, गम्भीर स्वयं को समझने के लिए, अपनी संस्कृति को समझने के लिए यदि कुछ नहीं, तो स्वामी विवेकानंद को बेशक समझें। वे अलौकिक गुणों से बोधगम्य थे। वे अनन्य देशभक्त सन्यासी थे। ऐनी बेसेंट ने कहा था कि वे संन्यासी योद्धा हैं। सबसे पहले नजर में ही कोई व्यक्ति उन्हें नेता, भगवान अभिषिक्त, आदेश देने का अधिकारी मान लेता है। भगिनी क्रिस्टीन ने लिखा है, 'अन्य लोग स्थिर हो सकते हैं, लेकिन उनका मन प्रकाशमय है, क्योंकि वह समस्त ज्ञान के स्रोत के साथ अपना संयोग स्थापित करने में समर्थ हैं।
स्वामी विवेकानंद का जन्मदिन 12 जनवरी को राष्ट्रीय युवा दिवस के रूप में मनाया जाता है। उनका जीवन, विचार, आदर्श और मातृभूमि के प्रति अदम्य प्रेम युवाओं के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण प्रेरणा स्रोत है। जब स्वतंत्रता प्राप्ति के लिए संघर्ष कर रहे थे, तब हमारे सभी राष्ट्रीय नेताओं ने स्वीकार किया कि स्वामी जी के भाषण और कृतियों ने उन्हें मातृभूमि की सेवा और स्वतंत्रता के लिए तन और मन से समर्पित होने की प्रेरणा दी है।
महात्मा गांधी ने लिखा है कि विवेकानंद को पढ़कर उनके राष्ट्रप्रेम में हजारों गुना वृद्धि हुई है। आज आवश्यकता है कि उनका जीवन, विचार, संकल्प और संघर्ष की बात जन-जन, विशेष रूप से युवा तक पहुंचे। इससे युवा पीढ़ी अपने वन्य जीवन का अर्थ खोज सकती है, अपने जीवन का ध्येय और लक्ष्य निर्धारित कर सकती है। आज वस्तुतः विवेकानंद के लिए नहीं, अपने स्वयं के होने का अर्थ और उद्देश्य जानने के लिए उनका स्मरण आवश्यक है।
वे मात्र 39 वर्ष जीये, पल-पल जीये और अतुलनीय काम कर गए, वह भी अनंत अंश, अंश और परेशानियों के बीच, इसलिए वे भरते रहे। नितांत अभावों में रहने वाले और निजी जीवन में निरंतर बीमारियों से जूझते रहने वाले एक संत ने राष्ट्रीय जीवन के हर क्षेत्र में एक चेतन का संचार किया, भारत की आध्यात्मिक शक्ति को एक नई ऊर्जा दी। जब देश दासता के दौर से गुजर रहा था, तो अकेले विवेकानंद ने ज्ञान और अध्यात्म के क्षेत्र में भारत को जगद्गुरु होने का गौरव प्रदान किया।
उनके तूफानी झोंकों ने भारत को करवट लेने के लिए बाध्य किया। सदियों से मिथ्या स्वप्नों में दबे, अंधविश्वासों से जकड़ी और हताशा भारतीय समाज को झकझोरा और अपने सपनों में आगे बढ़ने का शंखनाद किया। एक ओर हम अपनी महान संस्कृति और मनीषियों का नाम लेकर गर्व की प्रतिबद्धता करते हैं और दूसरी ओर उनकी मूल शिक्षाएं, विचार और आदर्शों के बराबर ही पत्ते भी। विवेकानंद का प्रक्षेपण एक सौ बीस साल पहले हुआ था। हम उनकी जयंती मना रहे हैं।
उनके विचार और शिक्षाओं पर कितना अमल किया गया है? उन्होंने शिक्षा में चरित्र का निर्माण सर्वोपरि माना था। क्या आज हम शिक्षा को मनुष्य के निर्माण की प्रक्रिया का आधार बना सकते हैं? हमारे पास साधन है, ग्राह्यता है, पर न नैतिक आश्वासन है, न मूल्य, न संकल्प। इसके पीछे हमारी दासता है। आज भारत को विवेकानंद का तेज, शौर्य, संकल्प और संकल्प ही उबर सकता है।

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सोर्स :  prabhatkhabar

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