सतत विकास का सपना और हकीकत

एक समय भारत के सामने गरीबी दूर करना एकमात्र लक्ष्य था, लेकिन आज सिर्फ गरीबी से नहीं, जनप्रतिनिधियों की अकर्मण्यता से भी लड़ने की जरूरत है। अब बेरोजगारी के साथ उन सत्रह लक्ष्यों की पूर्ति भी करनी है

Update: 2022-04-01 03:56 GMT

महेश तिवारी: एक समय भारत के सामने गरीबी दूर करना एकमात्र लक्ष्य था, लेकिन आज सिर्फ गरीबी से नहीं, जनप्रतिनिधियों की अकर्मण्यता से भी लड़ने की जरूरत है। अब बेरोजगारी के साथ उन सत्रह लक्ष्यों की पूर्ति भी करनी है, जिसके लिए हमने 2030 की समयावधि तय कर रखी है। मगर सवाल है कि ये लक्ष्य पूरे कैसे होंगे, क्योंकि हम लगातार इन सतत विकास के लक्ष्यों से दूर होते जा रहे हैं।

विकास किसी भी लोकतांत्रिक व्यवस्था की पहली जरूरत है। इसके बिना मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति संभव नहीं हो सकती। तब तक न तो लोकतंत्र मजबूत बन पाएगा और न ही समाज बेहतरी की दिशा में बढ़ पाएगा। संविधान के अनुच्छेद-21 के तहत स्वतंत्र और गरिमापूर्ण जीवन जीने की स्वतंत्रता अवाम को मिली हुई है, मगर यह गरिमापूर्ण जीवन कुछ मूलभूत सुविधाओं के बिना कैसे संभव हो सकता है? आज भी देश में गरीबी एक बड़ी समस्या बनी हुई है, पर सरकारें गरीबों को चंद किलो अनाज उपलब्ध करा देना ही अपना कर्तव्य समझती हैं।

दुर्भाग्य देखिए कि देश में एक तबका अमीरी में जी रहा है, तो दूसरे बड़े तबके को सरकारी अनाज से पेट भरना पड़ रहा है। हालांकि अमीरी-गरीबी का यह खेल आज का नहीं है। मगर सवाल है कि क्या सरकारों का कर्तव्य सिर्फ इतना है कि वे अनाज उपलब्ध कराने को ही विकास समझ बैठें। एक बार हमारे देश में कोई व्यक्ति सांसद-मंत्री बन जाए, तो उसे आजीवन पेंशन मिलती रहेगी, लेकिन अवाम के हिस्से में आज तक सिर्फ या तो चुनावी रेवड़ी आती रही है या चंद किलो अनाज।

गरीबी हटाओ का नारा इंदिरा गांधी ने दशकों पहले दिया था, लेकिन आज भी देश की अधिकांश जनसंख्या सिर्फ सरकारी अन्न पर निर्भर है। इससे सहज पता चलता है कि गरीबी हटाओ का नारा, अन्न बांटो और राज करो तक सिमट कर रह गया है। कहीं न कहीं इसी सरकारी विफलता और नीतियों में शिथिलता की वजह से हम सतत विकास के लक्ष्यों में लगातार पिछड़ते जा रहे हैं।

पिछले दिनों देश के उपराष्ट्रपति वेंकैया नायडू ने कहा कि 'बाल कुपोषण, लैंगिक असमानता, स्वच्छ पानी तक समान पहुंच न होना और पर्यावरण प्रदूषण कुछ ऐसे कारक हैं, जो भारत की प्रगति में बाधक हैं।' इतना ही नहीं, उन्होंने इस दौरान कहा कि सतत विकास लक्ष्यों (एसडीजी) 2030 को प्राप्त करने के लिए देश को काफी प्रयास करने की आवश्यकता है। ऐसे में समझा जा सकता है कि सरकारी विकास और वास्तविक स्थिति में कितना अंतर है। वैसे भी आजकल लोकतंत्र में चुनाव जीतना ही लोकतांत्रिक पार्टियों का एकमात्र उद्देश्य बन गया है, जिसका नतीजा चुनाव बाद जनता के लिए शून्य ही होता है।

कहने को हम भले लोकतंत्र पर इठला लें और इक्कीसवीं सदी के बढ़ते भारत के सपनों में जी लें, लेकिन कुछ बातें ऐसी हैं, जिनके उत्तर ढूढ़ें बिना हम वास्तविक विकास की अवस्था में नहीं पहुंच सकते। अभी बीते दिनों ही एक रिपोर्ट आई, जिसमें कहा गया है कि भारत के लोगों की सांसों में प्रदूषण का जहर घुल रहा है। अब जरा सोचिए, कि अगर हमें संविधान निर्बाध जीवन जीने की स्वतंत्रता देता है, तो क्या सांसों में घुलता जहर हमारे जीवन को प्रभावित नहीं कर रहा? अगर कर रहा है, तो फिर एक व्यक्ति के रूप में हम स्वतंत्र और निर्बाध रूप से स्वतंत्र जीवन की कल्पना कहां कर पा रहे हैं? यह तो हुई एक बात।

इसके अलावा भी कई ऐसे मुद्दे हैं, जिनकी पूर्ति न हो पाना जीवन जीने की स्वतंत्रता से खिलवाड़ कर रहे हैं। मगर इन बातों से कहां किसी को फर्क पड़ने वाला। भले लोकतंत्र, जनता का जनता के लिए जनता द्वारा शासन है, पर एक आम व्यक्ति जनप्रतिनिधि बनने से पहले तक ही आम रहता है। उसके बाद वह खास बन जाता है और जनता से जुड़े मुद्दे उसके लिए गौण हो जाते हैं। यह चिंता का अहम कारण है।

एक समय भारत के सामने गरीबी दूर करना एकमात्र लक्ष्य था, लेकिन आज सिर्फ गरीबी से नहीं, जनप्रतिनिधियों की अकर्मण्यता से भी लड़ने की जरूरत है। अब बेरोजगारी के साथ उन सत्रह लक्ष्यों की पूर्ति भी करनी है, जिसके लिए हमने 2030 की समयावधि तय कर रखी है। मगर सवाल है कि ये लक्ष्य पूरे कैसे होंगे, क्योंकि हम लगातार इन सतत विकास के लक्ष्यों से दूर होते जा रहे हैं। शायद इसी वजह से बीते दिनों इसे लेकर उपराष्ट्रपति ने चिंता जाहिर की थी।

एक रिपोर्ट के मुताबिक, भारत सतत विकास के लक्ष्य हासिल करने के मामले में सभी दक्षिण एशियाई देशों से पीछे है। इस सूची में भूटान पचहत्तरवें, श्रीलंका सतासीवें, नेपाल छियानबेवें और बांग्लादेश एक सौ नौवें पायदान पर हैं। अब आप सोचिए कि अगर हालात इतने बदतर हैं तो फिर किस खूबसूरत तस्वीर को दिखा कर हमें गुमराह किया जा रहा है। भारत का कुल सतत विकास लक्ष्य का अंक सौ में से छियासठ है।

ऐसे में कुल मिला कर देखें तो सतत विकास का लक्ष्य वर्ष 2030 तक हासिल करने के लिए भारत सरकार को गरीबी, भुखमरी, कुपोषण, लैंगिक असमानता, निरक्षरता दूर करने और पर्यावरण, स्वस्थ वातावरण तथा जवाबदेह प्रशासनिक व्यवस्था और सामाजिक न्याय को बेहतर बनाने के लिए गंभीरता और तेजी से काम करना होगा। समय बहुत कम है। मगर हमारे देश में तो एक नई रवायत चल निकली है, जिसमें केंद्र और राज्यों के बीच ही आए दिन टकराव की स्थिति देखने को मिलती है। ऐसे में अवाम की सुध कब ली जाएगी, यह सवाल स्वत: उठ खड़ा होता है।

उल्लेखनीय है कि भारत की पर्यावरण रिपोर्ट-2022 के अनुसार, देश की सतत विकास लक्ष्यों की रैंकिंग में गिरावट की वजह मुख्य रूप से भूख, अच्छे स्वास्थ्य, खुशहाली और लैंगिक समानता की चुनौतियां हैं। मगर इस दिशा में कोई बेहतर प्रयास होते हुए निकट भविष्य में नजर नहीं आ रहे हैं, जो चिंता का विषय है। 2015 से लेकर अब तक एसडीजी के छह वर्ष पूर्ण हो जाने के बाद भी भारत इस मामले में बहुत पीछे है।

इसके लिए जिम्मेदार कहीं न कहीं लोकशाही व्यवस्था है। एसडीजी का उद्देश्य विश्व से गरीबी के सभी रूपों को खत्म करना तथा सभी समाजों में सामाजिक न्याय और पूर्ण समानता स्थापित करना है। सरकार इस बात पर अपनी पीठ थपथपा रही है कि उसने एक बड़े तबके को गेहूं और चावल खाने के लिए उपलब्ध करा दिए, पर यह सवाल स्वाभाविक है कि क्या कुछ किलो अनाज से ही स्थायी रूप से गरीबी दूर हो जाएगी?

सतत विकास के सत्रह लक्ष्यों में गरीबी उन्मूलन, भुखमरी का अंत, खाद्य सुरक्षा, बेहतर पोषण और टिकाऊ कृषि, सबको गुणवत्तापूर्ण शिक्षा, सबको स्वास्थ्य, सब तक स्वच्छ पेयजल की आपूर्ति, स्वच्छता, लैंगिक समानता, सर्वसुलभ, सस्ती, टिकाऊ, स्वच्छ और विश्वसनीय ऊर्जा, जलवायु परिवर्तन के दुष्प्रभाव से निपटने को हरित पर्यावरण, समावेशी आर्थिक वृद्धि, मानवीय कामकाजी माहौल, शोषणमुक्त श्रम व्यवस्था, समग्र बुनियादी सुविधाएं, सतत औद्योगीकरण और नवाचार को बढ़ावा, सभी प्रकार की असमानताओं में कमी, सुरक्षित शहर, गांव और मानव बस्तियों का सतत विकास, जरूरत के मुताबिक उत्पादन और खपत, जल के नीचे स्वच्छ जीवन, भूमि का स्वास्थ, सुरक्षित और खुशहाल जीवन, भूमि, जल और वन का संरक्षण, शांति और न्याय की मजबूत व्यवस्था और सबकी भागीदारी तथा साझेदारी शामिल हैं।

इतना ही नहीं, 2030 के लिए वैश्विक एजेंडा का मूल मंत्र सार्वभौमिकता का सिद्धांत है कि 'कोई पीछे न छूटे'। ऐसे में इसके लिए व्यापक पहल करने की जरूरत हमारे देश के नीति-निर्माताओं को है और इसके लिए अगर दलगत राजनीति से ऊपर सभी सियासतदानों को उठना पड़े, तो प्रयास इस बात का भी होना चाहिए। मगर वर्तमान केंद्र सरकार के प्रयास ऊंट के मुंह में जीरा वाली कहावत को चरितार्थ कर रहे हैं। ऐसे में अगर सचमुच सतत विकास के लक्ष्यों को हासिल करना है, तो कुछ बड़ा करना होगा और यह काम किसी एक से नहीं होगा। इसके लिए सामूहिक प्रयास की जरूरत है।


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