By: divyahimachal
इस साल 27 अगस्त तक कोटा, राजस्थान के कोचिंग संस्थानों में 23 युवा छात्र आत्महत्या कर चुके हैं। यह सिलसिला कहीं थमेगा अथवा धीमा होगा, ऐसे आसार नहीं हैं। कोटा के धंधेबाज संस्थान आत्महत्या के केंद्र बन चुके हैं। छात्रों को किसी भी तरह की काउंसलिंग नहीं है और न ही आत्महत्या रोकने के मानसिक उपाय किए गए हैं। गंभीर, प्रेरक भाषण भी नहीं हैं, ताकि मन:स्थिति बदल सके। बेशक राज्य स्तरीय समिति का गठन कर लें या युवा छात्रों के लिए विशेष थाने बना लें, आत्महत्या के बुनियादी कारण घर से ही शुरू होते हैं। पिता को लाखों रुपए का जुगाड़ करना पड़ता है अथवा कर्ज लेना पड़ता है। माता-पिता अपने किशोर बच्चों पर अपने सपने थोपना चाहते हैं। उसी तनाव में घिरा छात्र हॉस्टल में अकेला और बंद महसूस करता है। संस्थान की घरेलू परीक्षाओं में जब वह पिछड़ जाता है या नाकाम रहता है, तो एकमात्र विकल्प आत्महत्या ही मन में उभरता है। सिर्फ डॉक्टर या इंजीनियर ही सुरक्षित करियर नहीं हैं। हमने डॉक्टरों की मंदी प्रैक्टिस देखी है और इंजीनियरों को बेरोजगार देखा है। उनके अलावा, असंख्य ऐसे पेशे हैं, जहां धन और प्रतिष्ठा दोनों ही बेहतर हैं। एक अंधी भेड़चाल ने भी हमारे युवा छात्रों को आत्महंता बना दिया है। कोटा के कोचिंग संस्थानों में आने वाले छात्रों को कमोबेश इतनी जानकारी तो होगी कि सफलता और चयन की दर कितनी है! फिर भी वे इन संस्थानों की तरफ भागे चले जा रहे हैं, तो हम छात्रों को ही दोषी करार देंगे। यदि छात्र डॉक्टर या इंजीनियर नहीं बन पाए, तो जिंदगी समाप्त नहीं होगी। बहरहाल 2020 में भारत में 12,500 से अधिक किशोर छात्रों ने आत्महत्या की।
यह आंकड़ा राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो का है। यकीनन यह बेहद डरावना आंकड़ा है। कोटा के 10 प्रमुख कोचिंग संस्थानों में करीब 2 लाख छात्र प्रवेश लेते हैं। अध्यापकों की संख्या करीब 4000 है। हॉस्टल भी करीब 4000 हैं और पेइंग गेस्ट करीब 40,000 हैं, लेकिन औसतन हररोज 34 छात्र आत्महत्या कर रहे हैं। इसके कई घरेलू और मनोवैज्ञानिक कारण भी हो सकते हैं। छात्र घर से ही तनाव ढोकर संस्थान तक आता है। संस्थानों की व्यवस्था भी तनावग्रस्त है। दरअसल 16-18 साल का किशोर इतना नहीं सोच सकता कि आत्महत्या के बाद उसके माता-पिता की मन:स्थिति क्या होगी? कुछ ऐसे मामले भी सामने आए हैं, जिनमें बेटे-बेटी की आत्महत्या के बाद पिता ने भी जान गंवा दी। इससे किसी भी पक्ष को हासिल क्या हुआ? दरअसल ये कोचिंग संस्थान भी पेशेवर दुकानदारी हैं। वे 10-15 ऐसे छात्रों को प्रवेश देते हैं, जो अखिल भारतीय स्तर की प्रतियोगी परीक्षाओं में अच्छे अंकों के साथ सफल हो सकते हैं। उन छात्रों के सचित्र विज्ञापन अखबारों के पहले पन्ने पर छपते हैं, लिहाजा कारोबार फलता-फूलता है। शेष छात्र संस्थानों के मोटे राजस्व के स्रोत होते हैं। वे फेल हो जाते हैं अथवा आत्महत्या कर लेते हैं। यह संपूर्ण व्यवस्था ही असमान और गैर-पेशेवर है। चूंकि बीते दिनों दो छात्रों ने आत्महत्या की है, लिहाजा उसके बाद प्रशासन और सरकार कुछ हरकत में आए हैं।
संस्थानों के स्तर पर तय किया गया है कि रविवार को परीक्षा नहीं होगी। हरेक बुधवार को अवकाश रहेगा, ताकि छात्र मौज-मस्ती कर सकें। फिलहाल दो माह तक कोई भी परीक्षा नहीं ली जाएगी। बीती 18 अगस्त को मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने राज्य स्तरीय समिति की बैठक ली थी। उसमें संस्थानों के बारे क्या अध्ययन किया गया, संस्थानों की व्यावसायिक गतिविधियों और प्रवृत्तियों को लेकर उन पर क्या ठोस कार्रवाई की गई, इनकी जानकारी पूरी तरह उपलब्ध नहीं कराई गई। दरअसल यह घरेलू और मनोवैज्ञानिक समस्या है। संस्थानों की दुकानदारी तब सामने आएगी, जब छात्र वहां प्रवेश लेंगे और डॉक्टर-इंजीनियर बनने की अंधी दौड़ में शामिल होंगे। बेशक मेडिकल और इंजीनियर की पढ़ाई और परीक्षाएं कठिन होती हैं, लेकिन अध्यापक और प्रेरक, विशेषज्ञ वक्ता छात्रों को बार-बार समझा सकते हैं कि इन्हें चुनौती की तरह लें। किताबी-कीड़ा बनने से लक्ष्य हासिल नहीं किए जा सकते। सरकार में बैठे नीति-निर्माता मंथन करें और जांच कराएं कि निजी संस्थान इतने महंगे क्यों हैं? छात्रों से इतना पैसा किस मद के तहत वसूला जा रहा है? उनकी व्यवस्थाएं बदलें या संस्थानों की मान्यता रद्द करें। कुल मिला कर हमारे युवा बच्चे देश की ताकत हैं। उन्हें आत्मघाती क्यों बनने दें?