आगे बढ़ी ठिठकी राजनीतिक प्रक्रिया, परिसीमन के बाद नए राजनीतिक समीकरण के संकेत

जम्मू-कश्मीर में अनुच्छेद-370 और 35-ए समाप्त होने के बाद ठिठकी हुई राजनीतिक प्रक्रिया शुरू होने के सुखद संकेत प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के साथ प्रदेश के नेताओं की दिल्ली में हुई बैठक में मिले हैं।

Update: 2021-06-29 05:05 GMT

जनता से रिश्ता वेबडेसक |प्रमोद भार्गव।जम्मू-कश्मीर में अनुच्छेद-370 और 35-ए समाप्त होने के बाद ठिठकी हुई राजनीतिक प्रक्रिया शुरू होने के सुखद संकेत प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के साथ प्रदेश के नेताओं की दिल्ली में हुई बैठक में मिले हैं। यह बैठक अत्यंत सौहार्दपूर्ण वातावरण में संपन्न हुई है। यह सौहार्दता कश्मीर का भविष्य उज्ज्वल करने का मार्ग प्रशस्त करेगी। अब जम्मू-कश्मीर में जल्द ही परिसीमन का काम समाप्त करा लिया जाएगा। उसके बाद वहां विधानसभा चुनाव कराए जाएंगे। हालात सामान्य होने पर उसे पूर्ण राज्य का दर्जा भी दे दिया जाएगा। सामान्य स्थिति का मतलब जब अलगाववाद एवं आतंकवाद में कमी आए तथा मुख्यधारा के नेताओं के बयानों में भी राष्ट्र के प्रति द्वेषभाव का प्रकटीकरण देखने को नहीं मिले। साफ है चुनाव के बाद सरकार किसी की भी बने घाटी का बहुलतावादी चरित्र उभरेगा और वहां सर्वागीण विकास का सिलसिला शुरू हो जाएगा।

जम्मू-कश्मीर पुनर्गठन कानून-2019 के लागू होने के बाद इस राज्य की फिजा बदल गई है। राज्य के दल भी इस बात को मान चुके हैं कि 370 की वापसी अब संभव नहीं है। अब जम्मू-कश्मीर और लद्दाख केंद्र शासित राज्य हो गए हैं। दोनों जगह दिल्ली एवं चंडीगढ़ की तरह मजबूत उप राज्यपाल सत्ता-शक्ति के प्रमुख केंद्र के रूप में अस्तित्व में आ गए हैं। हालांकि जम्मू-कश्मीर में विधानसभा रखा गया है, जबकि लद्दाख में विधानसभा को समाप्त कर दिया गया है। अब केंद्र सरकार जम्मू-कश्मीर में जल्द ही चुनाव कराने के पक्ष में है। हालांकि इससे पहले वह परिसीमन का कार्य कर लेना चाहती है। सरकार की ओर से सर्वोच्च न्यायालय की सेवानिवृत्त न्यायाधीश रंजना प्रकाश देसाई की अध्यक्षता में इस हेतु एक आयोग भी गठित कर दिया गया है। परिसीमन आयोग राज्य के विभिन्न क्षेत्रों में मौजूदा आबादी और उसका लोकसभा एवं विधानसभा क्षेत्रों में प्रतिनिधित्व का आकलन करेगा। साथ ही राज्य में अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजातियों के लिए आरक्षित सीटों को सुरक्षित करने का भी अहम निर्णय लेगा। इससे राज्य में जो भौगोलिक, सांप्रदायिक और जातिगत असमानताएं हैं, वे दूर हो जाएंगी। नतीजतन जम्मू-कश्मीर और लद्दाख क्षेत्र नए उज्ज्वल चेहरों के रूप में पेश आएंगे। लद्दाख पाकिस्तान और चीन की सीमाएं साझा करता है। लगातार 70 साल लद्दाख कश्मीर के शासकों की उपेक्षा का शिकार होता रहा। अब तक यहां विधानसभा की मात्र चार सीटें थीं, इसलिए राज्य सरकार इस क्षेत्र के विकास को कोई तरजीह नहीं देती थी। लिहाजा आजादी के बाद से ही इस क्षेत्र के लोग लद्दाख को केंद्रशासित प्रदेश बनाने की मांग कर रहे थे। अब इस मांग की पूíत हो गई है। लेह-लद्दाख क्षेत्र अपनी विषम भौगोलिक परिस्थितियों के कारण साल में छह माह लगभग बंद रहता है। सड़क मार्गो एवं पुलों का विकास नहीं होने के कारण यहां के लोग अपने ही क्षेत्र में सिमटकर रह जाते हैं। उम्मीद है कि केंद्रशासित प्रदेश बनने के बाद इसकी आकांक्षाएं पूरी होंगी।
परिसीमन का उद्देश्य होता है जनसंख्या के समान क्षेत्रों को समान प्रतिनिधित्व प्रदान करना, जिससे भौगोलिक क्षेत्रों का एक निष्पक्ष विभाजन किया जा सके। परिसीमन लोकतंत्र का एक अभिन्न अंग है, जो प्रभावी प्रतिनिधित्व और बेहतर शासन व्यवस्था प्राप्त करने में मदद करता है। ऐसे में इसे जातीय, धाíमक आदि समस्त लांछनों से परे रखना चाहिए। जम्मू-कश्मीर में अंतिम बार 1995 में परिसीमन हुआ था। राज्य का विलोपित संविधान कहता था कि हर 10 साल में परिसीमन जारी रखते हुए जनसंख्या के घनत्व के आधार पर विधानसभा एवं लोकसभा क्षेत्रों का निर्धारण होना चाहिए। परिसीमन का यही समावेशी नजारिया है। जिससे बीते 10 साल में यदि जन घनत्व की दृष्टि से कोई विसंगति उभर आई है तो वह दूर हो जाए। इसी आधार पर राज्य में 2005 में परिसीमन होना था, लेकिन 2002 में तत्कालीन मुख्यमंत्री फारूक अब्दुल्ला ने राज्य संविधान में संशोधन कर 2026 तक इस पर रोक लगा दी थी। जहां तक लोकसभा के सीटों के परिसीमन का प्रश्न है तो वर्ष 2002 के अंतिम परिसीमन आयोग को यह काम नहीं सौंपा गया इसलिए जम्मू-कश्मीर की संसदीय सीटें वर्ष 1971 की जनगणना के आधार पर ही बनी रहीं।
फिलहाल जम्मू-कश्मीर में विधानसभा की कुल 111 सीटें हैं। इनमें से 24 सीटें गुलाम कश्मीर (पीओके) क्षेत्र में आती हैं। इस उम्मीद के चलते ये सीटें खाली रहती हैं कि एक न एक दिन पीओके भारत के कब्जे में आ जाएगा। बाकी 87 सीटों पर चुनाव होता था। इसमें कश्मीर यानी घाटी की 46, जम्मू की 37 और लद्दाख की चार विधानसभा सीटें थीं। 2011 की जनगणना के आधार पर राज्य में जम्मू संभाग की जनसंख्या 53 लाख 78 हजार 538 है। यह प्रांत की 42.89 प्रतिशत आबादी है। राज्य का 25.93 फीसद क्षेत्र जम्मू संभाग में आता है। इस क्षेत्र में विधानसभा की 37 सीटें आती हैं। दूसरी तरफ कश्मीर घाटी की आबादी 68 लाख 88 हजार 475 है। प्रदेश की आबादी का यह 54.93 प्रतिशत भाग है। कश्मीर संभाग का क्षेत्रफल राज्य के क्षेत्रफल का 15.73 प्रतिशत है। यहां से कुल 46 विधायक चुने जाते हैं। इसके अलावा राज्य के 58.33 प्रतिशत वाले भू-भाग लद्दाख संभाग में महज चार विधानसभा सीटें थीं, जो अब लद्दाख के केंद्रशासित प्रदेश बनने के बाद विलोपित हो गई हैं। साफ है राज्य में जन घनत्व और विधानसभा सीटों के अनुपात में बड़ी असमानता है। जनहित में इसे दूर किया जाना एक जिम्मेदार सरकार की जवाबदेही बनती है। परिसीमन के बाद अनुसूचित जातियों और जनजातियों के लिए भी सीटों के आरक्षण की नई व्यवस्था लागू हो जाएगी। फिलहाल कश्मीर में एक भी सीट पर जातिगत आरक्षण की सुविधा नहीं है, जबकि इस क्षेत्र में 11 प्रतिशत गुज्जर-बक्करवाल और गद्दी जनजाति समुदायों की बड़ी आबादी निवास करती है। माना जा रहा है कि परिसीमन के बाद जम्मू-कश्मीर विधानसभा की सीटों की संख्या 83 से बढ़कर 90 हो जाएगी तथा 24 सीटें गुलाम कश्मीर के लिए आरक्षित रहेंगी। कश्मीरी पंडित इसमें मनोनयन से पांच सीटों की मांग भी लगातार कर रहे हैं। जाहिर है विधानसभा सीटों के परिसीमन के बाद जम्मू-कश्मीर का राजनीतिक भूगोल बदल जाएगा। इससे जम्मू-कश्मीर और लद्दाख में कई ऐसे बदलाव आएंगे, जो वहां के निवासियों के लिए समावेशी होने के साथ लाभदायी भी साबित होंगे।
इनके अलावा प्रधानमंत्री मोदी के साथ बैठक में कश्मीरी पंडितों का भी मामला उठा। कांग्रेस नेता गुलाम नबी आजाद ने कहा कि वे 30 साल से विस्थापन का दंश ङोल रहे हैं। उन्हें वापस लाने की जिम्मेदारी जम्मू-कश्मीर के दलों की है। बदली परिस्थितियों में उनका सम्मानजनक पुनर्वास होना चाहिए। याद रहे 1979-90 के दौरान घाटी में आतंक का उफान आया था और देखते-देखते करीब पांच लाख कश्मीरी पंडित, सिख, जैन और बौद्ध समुदाय के लोगों को खदेड़ दिया गया था। जो आज भी दर-दर की ठोकरें खा रहे हैं। अत: जब तक इन विस्थापितों का पुनर्वास नहीं होगा, तब तक न तो कश्मीर का बहुलतावादी चरित्र सामने आएगा और न ही अनुच्छेद-370 खत्म होने का कोई अर्थ रह जाएगा। इस तरह आजाद ने विस्थापितों का सवाल उठाकर कश्मीर के मूल चरित्र को स्थापित करने की बात कही है।
कुल मिलाकर केंद्र सरकार और जम्मू-कश्मीर के नेताओं के बीच हुई यह वार्ता समूचे जम्मू-कश्मीर का राजनीतिक भविष्य तय करेगी। इसमें दो राय नहीं कि जटिल से जटिल समस्याओं का निदान संवाद द्वारा ही संभव है। अब जब यह प्रक्रिया शुरू हो गई है तो जारी रहनी चाहिए। इससे ही शांति की स्थापना होगी। इसी से विकास की राह खुलेगी। अंतत: ये दोनों मिलकर वहां लोकतंत्र के लिए उर्वरक शक्ति का कार्य करेंगे।
चूंकि राजनीतिक प्रक्रिया कोई भी हो वह दलीय स्तर पर अपना-अपना हित साधने का खेल भी होती है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा बुलाई बैठक में सौहार्दपूर्ण वातावरण जरूर रहा, लेकिन परिसीमन को लेकर घाटी के दलों में कुछ संशय और मतभेद भी हैं। मतभेद का कारण है कि दलों को अंदाजा हो गया है कि परिसीमन का अर्थ विधानसभा और लोकसभा की सीटों का नया समीकरण अस्तित्व में लाना है।
संशय यह है कि किसकी सीट बचेगी और किसकी जाएगी? क्षेत्रीय दलों की अपनी-अपनी सियासी मजबूरी होती है। ऐसे में अपनी राजनीति बचाने के लिए गुपकार गठबंधन के कुछ दल भाजपा से हाथ मिलाने में संकोच नहीं करेंगे। इस समूची प्रक्रिया में कांग्रेस तटस्थ है, क्योंकि उसके पास अब ज्यादा कुछ खोने को बचा नहीं है। इसलिए गुलाम नबी आजाद जो भी कुछ कहेंगे, उसे मानना केंद्रीय नेतृत्व की मजबूरी है। आजाद की बात नकारी गई तो कश्मीर में कांग्रेस पूरी तरह साफ हो जाएगी। दरअसल 370 के खात्मे के बाद पीडीपी, नेशनल कांफ्रेंस और कांग्रेस गोलबंद हो गई थीं, लेकिन चुनावी प्रक्रिया की आहट होते ही पीडीपी और नेशनल कांफ्रेंस के बीच दरार दिखाई देने लगी है। दरअसल ये दोनों दल जानते हैं कि असली चुनावी लड़ाई तो इन्हीं दलों के बीच है। इन दोनों दलों का मिजाज भी अलग है। नेशनल कांफ्रेंस सत्ता की राजनीति करती है, जबकि पीडीपी पाकिस्तान का राग अलापने के साथ अलगाववादियों का समर्थन भी करती है। इसीलिए फारूक अब्दुल्ला ने कहा है कि वह अनुच्छेद-370 खत्म करने के खिलाफ नहीं हैं, बल्कि इसे समाप्त करने की प्रक्रिया के विरुद्ध हैं। यहां यह भी गौरतलब है कि अब्दुल्ला ने चतुराई बरतते हुए न तो भाजपा पर कोई तीखी टिप्पणी की और न ही महबूबा मुफ्ती की तरह पाकिस्तान का राग अलापा।
माना जा रहा है कि चुनाव के बाद यदि किसी दल को स्पष्ट बहुमत नहीं मिलता है तो भाजपा और नेशनल कांफ्रेंस मिलकर सरकार बना सकते हैं। भाजपा को जब पीडीपी के साथ जम्मू-कश्मीर में सरकार बनाने में संकोच नहीं हुआ तो नेशनल कांफ्रेंस के साथ कोई संकोच पैदा होने का सवाल ही खड़ा नहीं होता। वैसे भी जब अटल बिहारी वाजपेयी प्रधानमंत्री थे, तब नेशनल कांफ्रेंस भाजपा की अगुआई वाले राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन यानी राजग का हिस्सा थी।





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