लोकतंत्र और मजबूत हो

देश जब आज शान से 73वां गणतंत्र दिवस (Republic Day Celebration) मना रहा है

Update: 2022-01-26 17:45 GMT

देश जब आज शान से 73वां गणतंत्र दिवस (Republic Day Celebration) मना रहा है तो स्वाभाविक ही हर देशवासी उस राष्ट्रीय शान में थोड़ा सा अपने हिस्से का मान भी शामिल महसूस कर रहा है। यह मान जहां उसे अपने जीवन की चुनौतियों से निपटने का संकल्प देता है वहीं उसमें यह विश्वास भरता है कि उसका राष्ट्र भी राह में मौजूद हर बाधा को पार करते हुए आगे बढ़ता जाएगा। आखिर एक गणतंत्र के रूप में 72 वर्षों की अब तक की यात्रा भी तरह-तरह की बाधाओं के बीच ही चली है। चाहे पड़ोसियों से युद्ध का मामला हो या विदेश से खाद्यान्न मंगवाने का या फिर लोकतंत्र को अंदर से मिली चुनौती का- हर मोर्चे पर हमने संकटों का न केवल सामना किया बल्कि उसे भविष्य की बड़ी उपलब्धियों का आधार बनाया।

चीन युद्ध में लगे झटके का फायदा 65 और 71 के युद्धों की शानदार जीत के रूप में तो सामने आया ही, यह भी हुआ कि सदी के आखिर तक आते-आते हम एक परमाणु शक्ति संपन्न राष्ट्र के रूप में बदल गए। साठ के दशक के मध्य में अगर हमें खाद्यान्न के लिए विदेश पर निर्भरता से उपजी बेबसी झेलनी पड़ी तो उसके परिणाम के रूप में हरित क्रांति के जरिए हमने खाद्यान्न में पूरी तरह आत्मनिर्भरता हासिल कर दिखा दिया। सत्तर के दशक के मध्य में अगर तानाशाही ने अपना रूप दिखाया तो आम देशवासियों की लोकतांत्रिक चेतना ने जल्दी ही उसे उसकी औकात भी दिखा दी।
बेशक ये बातें पुरानी लगने लगी हों, लेकिन एक देश के रूप में ये हमारा चरित्र बताती हैं और यही आगे की चुनौतियों से निपटने की हमारी ताकत का स्रोत भी हैं। नई चुनौतियों की बात की जाए तो कोरोना भले वैश्विक संकट हो, उससे लड़ने में हम अग्रणी रहे। हमारी वैक्सीन अन्य देशों के भी काम आई। आर्थिक और सैन्य मोर्चे पर भी हम पूरी ताकत और कौशल से डटे हुए हैं। लेकिन एक गणतंत्र के रूप में हमारे लिए सबसे अहम है देश की लोकतांत्रिक चेतना। इस बिंदु पर चिंता की बात यह है कि देश में संसद के अंदर ही नहीं बाहर भी स्वस्थ बहस की परंपरा कमजोर पड़ रही है। शोरगुल, हंगामा, वॉकआउट आदि शुरू से संसदीय प्रक्रिया का हिस्सा रहे हैं, लेकिन संसद का एक पूरा का पूरा सत्र इसकी भेंट चढ़ जाए यह स्थिति अपेक्षाकृत नई है।
एक अन्य महत्वपूर्ण मुद्दा है संस्थानों की गरिमा का। हाल के वर्षों में न केवल न्यायपालिका के कई फैसलों पर सवाल उठे हैं बल्कि चुनाव आयोग समेत उन तमाम संस्थानों और एजेंसियों की भूमिका को लेकर भी विवाद हुए, जिनकी असंदिग्ध विश्वसनीयता किसी भी जिंदा लोकतंत्र की पहली शर्त होती है। ये ऐसे सवाल हैं जिन पर पक्ष या विपक्ष को दोष देना आसान तो है लेकिन वह कोई हल नहीं। बहरहाल, इसमें संदेह का कोई कोई कारण नहीं कि हम समय के साथ ये कठिन मसले भी सुलझाएंगे और बेहतरी की ओर अपनी यात्रा निर्बाध जारी रखेंगे
नवभारत टाइम्स
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