वही रणनीतिकार हैं और सर्वोच्च फैसले भी वही लेते हैं। वे पंचायत का चुनाव जीतने में असमर्थ हैं। राज्यसभा भी एक किस्म का मनोनयन ही है। चूंकि बीते 25 सालों के दौरान कांग्रेस के लिए नए सदस्यता अभियान नहीं चलाए गए हैं, लिहाजा पार्टी का जनाधार धीरे-धीरे सिमट रहा है। पीके की सिफारिश है कि सदस्यता अभियान की तुरंत शुरुआत की जाए और 30 करोड़ नए लोग पार्टी से जोड़े जाएं, ताकि व्यापक स्तर पर जनाधार तैयार हो और लोग कांग्रेस के मुद्दों को समर्थन देकर व्यापकता दें। दरअसल प्रशांत किशोर ने रणनीति के वे बिंदु सुझाए थे, जिनकी मांग जी-23 के असंतुष्ट कांग्रेस नेता भी करते रहे हैं। दरअसल वे 'समानांतर कांग्रेस' के चेहरे हैं और पार्टी को बदलने के आग्रह करते रहे हैं। इस समूह में कांग्रेस के वरिष्ठ नेता और लोकसभा सांसद भी शामिल हैं। कमोबेश पीके से बहुत ज्यादा कांग्रेस को जानते-समझते हैं। गैर-गांधी परिवार के चेहरे को कांग्रेस अध्यक्ष बनाना उनका भी आग्रह रहा है। यदि पीके की रणनीतिक प्रस्तुतियों का विश्लेषण करें, तो कांग्रेस की धुरी गांधी परिवार ही लगती है। सब कुछ सोनिया, राहुल, प्रियंका गांधी के इर्द-गिर्द सुझाया जा रहा है। गांधी परिवार आज भी पार्टी आलाकमान है और रणनीति के बाद भी रहेगा, तो फिर पीके की भूमिका के मायने क्या हैं? क्यों करोड़ों रुपए फिजूल में खर्च किए जाएं? अहम सवाल तो यह है कि फिर कांग्रेस का पुनरोद्धार कैसे होगा?
कांग्रेस की चुनावी प्रासंगिकता कैसे बेहतर होगी? आज भी राहुल गांधी ही संसद के भीतर, संसद परिसर में, सड़क से लेकर सोशल मीडिया तक कांग्रेस की आवाज़ हैं। लोगों और देश के मुद्दे उठाते रहे हैं, लेकिन बुनियादी समस्या यह है कि वह प्रधानमंत्री मोदी का विकल्प नहीं बन पा रहे हैं। देश में प्रधानमंत्री की तुलना में राहुल गांधी की स्वीकार्यता बेहद बौनी है। शायद पीके उसका रणनीतिक समाधान प्रस्तुत नहीं कर सके! पीके ने आज तक नरेंद्र मोदी, नीतीश कुमार, ममता बनर्जी, जगनमोहन रेड्डी आदि के लिए चुनावी रणनीति तैयार की है। ये सभी राजनेता अपने-अपने राज्य और क्षेत्र के 'सिकंदर' रहे हैं। पीके उन्हें चुनाव जीतना क्या सिखाएंगे? हमारा मानना है कि हमारी राजनीति में पीके 'भेड़चाल' के प्रतीक हैं। वह एक तरफ कांग्रेस का ठेका लेने की सोच रहे थे, तो दूसरी तरफ उनकी कंपनी 'आईपैक' ने तेलंगाना में मुख्यमंत्री चंद्रशेखर राव की पार्टी से करार किया है। तेलंगाना राष्ट्र समिति राजनीतिक तौर पर कांग्रेस-भाजपा विरोधी पार्टी है। दरअसल पीके का खेल यह लगता है कि वह कांग्रेस में उपाध्यक्ष या सशक्त महासचिव का पद चाहते थे, लिहाजा फ्री हैंड देने की पैरोकारी कर रहे थे। कांग्रेस में इस पर भीतरी विरोध था, लिहाजा सोनिया गांधी ने पीके को अधिकार प्राप्त कार्य-समूह का हिस्सा बनने की पेशकश की, तो उन्होंने ठुकरा दी और एकतरफ हो गए। पीके 2024 का चुनाव जीतने की गारंटी भी कांग्रेस को नहीं दे सके। अब हमें लगता है कि खुद कांग्रेस ही संघर्ष करके, राजस्थान में 'चिंतन शिविर' के जरिए, अपनी रणनीति तय करेगी। इससे बेहतर कुछ भी नहीं हो सकता, क्योंकि कांग्रेस को ही खुद को बदलना है। कोई बाहरी रणनीतिकार यह काम नहीं कर सकता।