बेरोजगारी का दंश
बेरोजगारी हमेशा से चुनौती रही है। संकट इसलिए भी गंभीर होता जा रहा है कि इस समस्या के कारण हमारा सामाजिक-सांस्कृतिक ताना-बाना छिन्न-भिन्न होता जा रहा है।
जयप्रकाश त्रिपाठी: बेरोजगारी हमेशा से चुनौती रही है। संकट इसलिए भी गंभीर होता जा रहा है कि इस समस्या के कारण हमारा सामाजिक-सांस्कृतिक ताना-बाना छिन्न-भिन्न होता जा रहा है। राजनीतिक नफे-नुकसान, बाजार के गणित और पारिवारिक निहितार्थ में इसके शामिल हो जाने से इसकी चुनौतियां अब भारत ही नहीं, पूरे विश्व को भयावह भविष्य की ओर हांक ले जाना चाहती हैं। जो देश समय रहते इसे थामने में जितना कुशल होंगे, सामाजिक और राजनीतिक मुश्किलें उतनी आसान और स्वाभाविक होंगी और सांस्कृतिक परिवेश अपने-अपने लोकजीवन में उतना सहज, ऊर्जावान होगा। लोकतांत्रिक व्यवस्था में ये मुश्किलें राज्य और समाज, दोनों के लिए जितनी असाध्य होती जा रही हैं, इनका समय रहते हर संभव निराकरण उतना ही जरूरी होने लगा है।
दुनिया में सैंतालीस करोड़ लोग ऐसे हैं, जिनके पास या तो काम नहीं है या मन मुताबिक काम नहीं मिल रहा या उन्हें पर्याप्त भुगतान नहीं किया जा रहा है। वैश्विक परिधि में हमारे देश का क्षेत्रफल 2.4 प्रतिशत है और जनसंख्या 16.7 प्रतिशत। रोजगार के लिए सुयोग्य आबादी को किंचित दिमाग से ओझल कर सोचें तो गरीबी रेखा के नीचे का एक बड़ा हिस्सा भीख से जीवन-यापन कर रहा है। भीख का व्याकरण इस हद तक पतित हो चुका है कि बालश्रम की चुनौतियों के बीच, बाकायदा गिरोह बना कर, स्कूल जाने की उम्र में बड़ी संख्या में बच्चों को इस निषिद्ध पेशे में झोंक दिया गया है।
उल्लेखनीय है कि लगभग बीस करोड़ बीस करोड़ भारतीय बच्चों में से लगभग डेढ़ करोड़ बाल श्रमिक हैं। यह बात किसी को भी विचलित कर सकती है कि देश के लगभग छह करोड़ से अधिक बच्चों में से कई-कई लाख तो घरेलू नौकर होने के लिए अभिशप्त कर दिए गए हैं।
जब मासूम दुनिया के लिए वर्तमान इतना भयावह हो चुका हो, तो जान लेना चाहिए कि महामारी की अप्रत्याशित तबाही ने कैसे इस साल तक लगभग बीस करोड़ लोगों के बेरोजगार हो जाने और दस करोड़ से ज्यादा कामगारों के और ज्यादा गरीब हो जाने का डरावना सच हमारे सामने ला दिया है। ये आंकड़े कोई अनुमान नहीं, बल्कि हाल में संयुक्त राष्ट्र की एक रिपोर्ट में व्यक्त किए गए हैं। इस विश्लेषण में कितने तरह के कारक आज शामिल हो चुके हैं। मसलन, पूर्णकालिक रोजगार के दावे, नौकरियों की रिक्तियां, सेवानिवृत्ति और श्रम शक्ति की भागीदारी, जनसंख्या, उत्पादकता और न्यूनतम मजदूरी, वैतनिक अभिवृद्धि की दृष्टि से राष्ट्र-विनिर्माण की स्थितियां आदि। महामारी में यह भयावहता न सिर्फ भारत के लिए, बल्कि यह पूरी वैश्विक अर्थव्यवस्था और विश्व-समाज को कई तरह से गंभीर नुकसान पहुंचा सकती है।
सेंटर फार मानिटरिंग इंडियन इकोनामी (सीएमआइई) की रिपोर्ट कहती है कि 31 दिसंबर 2021 तक हमारे देश की कुल बेरोजगारी 7.31 प्रतिशत (शहरी 7.9 प्रतिशत और ग्रामीण सात प्रतिशत) तक पहुंच चुकी है। इस बीच बेरोजगारी की मार ने सबसे ज्यादा हरियाणा को (34.1 प्रतिशत) डराया है और राजस्थान दूसरे और झारखंड तीसरे स्थान पर रहा। बेरोजागारी की यह भयावहता नौकरियां कर रहे या नौकरियों पर टकटकी लगाए देश की एक तिहाई से ज्यादा आबादी को झकझोर रही है। हमारे सामाजिक परिवेश में यह दंश कितने गहरे कुरेदता है, इसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती। और जब जनसंख्या बेतहाशा फर्राटे मार रही हो, राज्य के लिए भी यह सवाल आसान नहीं रह जाता है
नीति-निर्माता, समाज-विश्लेषक इस हालात को चाहे जैसे रेखांकित करें, इससे समाज में सियासत में अथवा हमारे सांस्कृतिक परिदृश्य में कड़वाहट जनसंख्या-वृद्धि के अनुपात में बढ़ते जाना एकदम स्वाभाविक है। जनसंख्या-वृद्धि रोकने की सामाजिक वर्जनाएं, पारिवारिक जीवन की ऊटपटांग विडंबनाएं तो राह रोकती ही हैं, राज्य के पास संसाधनों की भी सीमाएं हैं और जरूरतें अथाह। ऐसे में क्या किया जाए, हर साल स्कूल-कालेजों, प्रशिक्षण संस्थानों, विश्वविद्यालयों से निकल रहे करोड़ों युवाओं को कोई राह नहीं सूझ रही है।
राष्ट्रीय सांख्यिकी कार्यालय (एनएसओ) के श्रम-बल सर्वेक्षण के आकड़ों में शुमार, युवाओं के लिए शहरी बेरोजगार दर 10.3 प्रतिशत और महिलाओं के लिए 11.8 प्रतिशत का गुणा-भाग भी तेजी से पीछे छोड़ चुकी है। रोजगार वृद्धि कम से कम 2023 तक नाकाफी बताई जा रही है। आगाह किया गया है कि ठोस नीतिगत प्रयासों के अभाव में आने वाले कई वर्षों तक सामाजिक और रोजगार परिदृश्य डरावना होगा, जिसे इस साल के लिए 2.3 करोड़ रेखांकित किया गया है।
अब तक देश के करोड़ों लोग जहां अपनी नौकरियों से हाथ धो चुके हैं, आज श्रमिकों की मांग महामारी के पहले से बहुत ज्यादा है, नौकरियां खत्म होने की रफ्तार मामूली-सी शिथिल भी हो सकती है। आज, जबकि पचपन फीसद लोगों की कमाई को बट्टा लगा हो, नब्बे प्रतिशत से ज्यादा लोगों को झटका लगा हो और महज तीन फीसद लोग समृद्ध हुए हों, उल्लेखनीय है कि इसके लिए संगठित क्षेत्र में अपेक्षित नौकरियों की बनिस्बत, असंगठित क्षेत्र ज्यादा मुफीद हो सकता है।
रोजगार न होने या न मिलने की चुनौती भीतर ही भीतर धरातल पर तरह-तरह की बदहवासियों को हवा दे रही है। बच्चे को स्कूल भेजना है, पैसा नहीं है, बेटी को विदा करना है, पैसा नहीं है, दवा-इलाज कराना है, पैसा नहीं है! फिर करें तो क्या करें? सोचिए, पूरे घर के सामने किस तरह अंधेरा छा जाता है! इसलिए यह दंश बहुत गहरा है। फिर, यह दंश भला कैसे हमारे पूरे सामाजिक, सांस्कृतिक परिवेश को चैन से रहने दे सकता है। सुबह हुई नहीं कि लोग लाखों की तादाद में सस्ते सरकारी राशन की दुकानों की ओर दौड़ पड़ते हैं। घर में एक-एक चम्मच तेल-चीनी, कप भर चावल-दाल, एकाध किलो आलू तक के लिए रसोई स्त्रियों को काट-खाने दौड़ती है। यह वही दंश है, जो देश की अस्सी फीसद आबादी में हर घर को मथता रहता है चौबीसो घंटे।
इस बीच कुछ लोग ऐसा भी हांकने से बाज नहीं आते कि बेरोजगारी बढ़ने से गरीबी कम होती है। वह कैसे? जवाब में उनके कुतर्क, भांति-भांति की असंगत बातें और अधिक विभ्रम में धकेल देती हैं। कहा जाता है कि गरीबी और बेरोजगारी तो ऊपर वाले की देन है, और बेटी की विदाई का मुहूर्त जन्म के पहले से किस्मत में लिखा होता है। तब, गरीब परिवारों की बेटियों के लिए भला बेचारे घर वाले क्या कर सकते हैं! ठीक से सोच लेने के बाद पता चलता है कि ऐसी वैचारिक दरिद्रताओं को भी बेरोजगारी ही पालती-पोसती है, बड़े-बड़ों के पेंच ढीले कर देती है।
चूंकि, 'सबके दाता राम' तो जमाने से लोकजीवन में ऐसी बातें आम जन-मन में भी घुली आ रही हैं कि 'पैसे के सब दास हैं, इसको करो प्रणाम। मंदिर में पैसा धरो, खुश होंगे भगवान।' और पैसा है नहीं, तो धरें क्या? इन तमाम तरह की कुविचारित-सुविचारित सच्चाइयों के साथ बेरोजगारी का अभिशाप फूलता-फलता रहता है और सब तरह के कुफल के अपने-अपने निमित्त और भांति-भांति के निष्कर्ष नित-नए आकड़ों में नाचते रहते हैं।
बेरोजगारी के कारण ही तरह-तरह के अपराध गहरे तक देश-दुनिया में अपनी जड़ें जमा लेते हैं। नशा कारोबार और नशा-मुक्ति अभियान, दोनों तरह की पर्याप्त संभावनाओं को स्वत: दिशा मिल जाती है और इस विध्वंसक गिरफ्त में भी करोड़ों, युवा-बेरोजगार ही तबाह हो रहे होते हैं। सामाजिक और सांस्कृति नजरिए से सोचिए कि ये कैसा समाधान है, निशाने पर सर्वाधिक युवा और बेरोजगार ही क्यों?