न्याय की गति
संसाधनों की कमी की वजह से अगर न्यायाधिकरणों का कामकाज बाधित होता है, तो इसे केवल लापरवाही का मामला नहीं माना जाना चाहिए, बल्कि यह सरकार की कमजोर इच्छाशक्ति का भी सबूत है।
संसाधनों की कमी की वजह से अगर न्यायाधिकरणों का कामकाज बाधित होता है, तो इसे केवल लापरवाही का मामला नहीं माना जाना चाहिए, बल्कि यह सरकार की कमजोर इच्छाशक्ति का भी सबूत है। न्याय-प्रक्रिया की जटिलता को आसान बनाने और उस पर बोझ को कम करने के लिए अर्ध-न्यायिक संस्थाओं के रूप में न्यायाधिकरणों का ढांचा खड़ा किया गया था। कई स्तरों पर इसके सकारात्मक नतीजे भी देखे गए। लेकिन आज हालत यह है कि इन न्यायाधिकरणों में बड़ी तादाद में खाली पड़े पदों पर नियुक्ति नहीं किए जाने की वजह से इनके कामकाज में बाधा आ रही है। ये न्यायाधिकरण पीठासीन अधिकारियों, न्यायिक और तकनीकी सदस्यों की गंभीर कमी से जूझ रहे हैं। अंदाजा लगाया जा सकता है कि अलग-अलग न्यायाधिकरणों के जिम्मे जो काम होगा, वह किस पैमाने पर बाधित हो रहा होगा। जबकि इस तरह का तंत्र गठित किए जाने के बाद सरकार को अपनी ओर से सक्रिय और संवेदनशील होकर इसके बेहतर नतीजों का दायरा निर्मित करना चाहिए था, ताकि जनता और संबंधित पक्षों का इस पर भरोसा कायम रह सके। मगर इसके प्रति सरकारी उदासीनता ने एक गंभीर स्थिति पैदा कर दी है।