विश्व विद्यार्थी दिवस पर विशेष: भारत के हर गांव में जब तक नहीं बन जाएगी लाइब्रेरी, तब तक छुट्टी नहीं लेंगे ये लोग!

विश्व विद्यार्थी दिवस पर विशेष

Update: 2021-10-15 17:33 GMT

मौसम कोई हो, दो सौ से ज़्यादा उत्साही कार्यकर्ता बिना नागा हर रविवार की सुबह किसी गांव के मुहाने पर जुटते हैं. दिल्ली-एनसीआर के विभिन्न इलाक़ों से गाड़ियां एक-एक कर तय जगह पर रुकती हैं, कार्यकर्ता उतरते हैं, पूरी गर्मजोशी से एक-दूसरे से मिलते हैं. ज़्यादातर कार्यकर्ता ख़ास टी-शर्ट पहने होते हैं, जिस पर लिखा होता है- ग्राम पाठशाला… हर गांव में लाइब्रेरी का संकल्प. कुछ कार्यकर्ता नौकरी से सीधे अभियान स्थल पर पहुंचते हैं, ऐसे में वे टी-शर्ट वहीं पहनते दिखते हैं.


10-15 मिनट में ही कुछ बैनर तान लिए जाते हैं, बैटरी से चलने वाला लाउड स्पीकर चेक किया जाता है और फिर क़रीब सौ जोशीले लोग नारे बुलंद करते हुए गांव की ओर कूच कर देते हैं. कई राउंड की बातचीत के आधार पर पहले से तय कार्यक्रम के तहत गांव के सिमाने या मुहाने पर वहां के कई जोशीले युवा अगवानी के लिए जुटे होते हैं. दुआ-सलाम और राम-राम के बाद बिना समय गंवाए पूरा जत्था गांव की सड़कों पर निकल पड़ता है. नारे ध्यान खींचते हैं-

बोल युवा क्या मांग है तेरी!

लाइब्रेरी… लाइब्रेरी…

लाइब्रेरी… लाइब्रेरी!!

आकर्षक नारे और भी हैं. मुख्य मार्गों से होता हुआ जत्था गांव में भ्रमण कर तय जगह पर जनसभा में बदल जाता है. गांव के बड़ों की उपस्थिति में आगे की योजना पर बात होती है, गांव में लाइब्रेरी की या तो नींव रखने का निश्चय होता है या फिर मुहिम के तहत पहले से बन रहे लाइब्रेरी के भवन के उद्घाटन की तारीख़ तय होती है और फिर बिना समय गंवाए यह जत्था दूसरे गांव की ओर निकल पड़ता है. यह जत्था होता है ग्राम पाठशाला अभियान का.

एक साल से कुछ ज़्यादा समय से देश के हर गांव में लाइब्रेरी स्थापित करने की नीयत से शुरू किया गया यह अभियान उत्तर प्रदेश के ग़ाज़ियाबाद, गौतमबुद्ध नगर, मेरठ, हापुड़, बागपत, बुलंदशहर, सहारनपुर और एटा इत्यादि ज़िलों में चलाया जा रहा है. आप यह जानकर चौंक जाएंगे कि इस मुहिम के तहत अभी तक 150 से अधिक गांवों में लाइब्रेरी शुरू की जा चुकी हैं. अभियान सफलता की सीढ़ियां चढ़ते हुए हरियाणा और राजस्थान तक पहुंच चुका है.

हर छुट्टी अभियान के नाम

अभियान से जुड़े कार्यकर्ताओं के हौसले बुलंद हैं. यह जानना भी आवश्यक है कि ग्राम पाठशाला अभियान से जुड़े लोग सरकारी या निजी नौकरियां करते हैं या रिटायर हो चुके हैं, पुलिसकर्मी हैं, शिक्षक हैं. कुछ का अपना व्यवसाय भी है. सभी कार्यकर्ताओं ने क़रीब एक साल से रविवार समेत छुट्टी का कोई दिन अपने घर पर नहीं बिताया है.

एक और ख़ास बात यह है कि ग्राम पाठशाला के कार्यकर्ता सिर्फ़ और सिर्फ़ जन-जागरण मुहिम चलाते हैं. गांवों में लाइब्रेरी बनाने के लिए कोई आर्थिक मदद नहीं जुटाते. भवन बनाने के लिए ज़मीन, पुस्तकों और दूसरे ख़र्चों का इंतज़ाम गांव के लोग ही मिलकर करते हैं. ग्राम पाठशाला अभियान के 250 से ज़्यादा सदस्यों में सबकी हैसियत बराबर है. कोई अध्यक्ष नहीं, कोई महासचिव नहीं, कोई कोषाध्यक्ष नहीं. सभी बस ग्राम पाठशाला मुहिम के सदस्य हैं.

बचपन की टीस से मिली प्रेरणा
ख़ास बात यह भी है कि ग्राम पाठशाला मुहिम से जुड़े ज़्यादातर लोग दिल्ली-एनसीआर के आस-पास के गांवों के ही रहने वाले हैं. ऐसे लोग, जिनका मानना है कि अगर उन्हें बचपन में गांव में ही पढ़ने-लिखने की सुविधाएं मिली होतीं, तो शायद आज वे और ऊंचे मुक़ाम पर होते. उनके मन की इसी टीस ने उन्हें हर गांव में लाइब्रेरी की अभिनव मुहिम से जोड़ दिया.

मुहिम शुरू करने में शुरुआती प्रमुख भूमिका निभाने वाले लाल बहार धीमी आवाज़ में कहते हैं कि "भाईसाहब, हमें ऐसे मौक़े मिले होते, तो बात कुछ और होती…." तुरंत ही वे जोड़ते हैं कि "आप कुछ लिखें, तो मेरा नाम कोट मत करना, सारा काम टीम का है, टीम का जोश बना रहना चाहिए. टीम की ख़्वाहिश तो बस इतनी है कि देश के हर गांव में लाइब्रेरी हो, जहां बच्चे अपना भविष्य संवार सकें."

प्रचार से दूर एक अभियान

प्रचार-प्रसार के मौजूदा दौर में अपना नाम तक न लिखने का निस्पृह आग्रह चौंकाता है और आश्वस्त भी करता है कि आज आगे निकलने की गला-काट प्रतिस्पर्धा के बावजूद बहुत से निस्वार्थ लोग भी हैं, जो समाज के भले में ही अपना भला देखते हैं. कोरोना काल में कुछ दिनों के लिए दिल्ली से अपने गांव आने पर उन्हें लगा वहां की बेहतरी के लिए कुछ करना चाहिए.

अपने गांव में लाइब्रेरी बनवाने के बाद लाल बहार और उनके मित्रों ने देखा कि पड़ोस के कई गांवों के बच्चे भी वहां आने लगे हैं, तो विचार आया कि क्यों न उनके गांवों में भी लाइब्रेरी की स्थापना कराई जाए. इस विचार के साथ ही उन्होंने अपने कुछ शुभचिंतकों से बात की, तो मीटिंग तय हो गई और फिर लोग साथ आते गए और कारवां बनता गया.

दिल्ली-एनसीआर में सरकारी पदों पर कार्यरत ग्राम पाठशाला के दूसरे कार्यकर्ता भी कहते हैं कि "नौकरी के बाद पहले इतना समय और ऊर्जा नहीं बचती थी कि सामाजिक सरोकार निभाने की सोच पाएं. लेकिन जबसे ग्राम पाठशाला मिशन से जुड़े हैं, तब से पता नहीं कैसे समय भी निकल आता है और ऊर्जा भी बची रहती है.

दिल्ली-एनसीआर की ज़िंदगी ने पहले बिल्कुल एकाकी कर दिया था, लेकिन अब लगता है कि हमारा बड़ा परिवार है…. ग्राम पाठशाला परिवार बहुत शक्ति देता है. कोरोना काल में जब-जब भावनात्मक रूप से विखंडन की अनुभूति सघन हुई, लगा ही नहीं कि हम कभी अकेले थे या भविष्य में अकेले हो भी सकते हैं."

शिक्षा से विकास का बड़ा लक्ष्य
ग्राम पाठशाला मिशन का लक्ष्य गांव के बच्चों के लिए शिक्षा का उचित आधार तैयार करना तो है ही, लेकिन इसके निहितार्थ बहुत बड़े हैं. टीम का मानना है कि धीरे-धीरे गांव ऐसे बन जाने चाहिए कि वहां से किसी को शहर जाने की ज़रूरत महसूस न हो. कोरोना जैसी महामारी ने भी यही संदेश देश भर में दिया है कि अपनी जड़ों की और लौटने में ही भलाई है. लेकिन विभिन्न कारणों से शहर गए ग्रामीण आख़िर गांव की ओर लौटेंगे कैसे?

ज़ाहिर है कि इसके लिए गांवों को आत्मनिर्भर बनाना पड़ेगा. इसके लिए सबको कम से कम साक्षर और फिर शिक्षित बनाने की ज़रूरत है. शिक्षा न केवल समावेशी दृष्टिकोण विकसित करती है, बल्कि समरस वातावरण भी बनाती है. ग्राम पाठशाला की दृष्टि स्पष्ट है. जहां भी लाइब्रेरी बनाई जा रही हैं, वहां ध्यान रखा जा रहा है कि बड़ी कक्षाओं के बच्चे छोटी कक्षाओं के बच्चों को पढ़ाएं. गांव पढ़ी-लिखी बेटियां और बहुएं बच्चे-बच्चियों को पढ़ाएं.

शिक्षा के माध्यम से सकारात्मक वातावरण बनाया जाए, इसका प्रयास किया जा रहा है. गांव की सभी समस्याओं का समाधान मिल बैठकर निकाला जाए. छोटी-मोटी बातों पर मनमुटाव दूर किया जाए, जितना संभव हो कोर्ट-कचहरी से बचा जाए. ग्राम पाठशाला से जुड़े बच्चे और उनके परिवार गांवों में वृक्षारोपण कर रहे हैं. स्वच्छता का ध्यान रख रहे हैं. उदाहरण के लिए अकेले ग़ाज़ियाबाद ज़िले के गनौली गांव में इस वर्ष अब तक तीन हज़ार से अधिक फलों के पौधे लगाए जा चुके हैं.

गांव में सिर्फ़ लाइब्रेरी होने भर से सहकार की भावना बढ़ रही है, लोगों का दृष्टिकोण बदल रहा है. गांवों में पढ़ाई-लिखाई, इंटरनेट और स्वास्थ्य समेत दूसरी सुविधाएं बढ़ने से पलायन पर निश्चित रूप से रोक लगेगी. कोरोना काल में वर्क फ्रॉम होम की सुविधा इसमें सोने पर सुहागे का काम कर रही है. ग्राम पाठशाला की टीम आगे यह प्रयास भी करेगी कि गांवों में लघु उद्योग-धंधे फलें-फूलें.

न एनजीओ, न ट्रस्ट, सिर्फ़ आंदोलनआपको यह भी जानना चाहिए कि ग्राम पाठशाला मिशन का स्वरूप न तो एनजीओ का है, न ही ट्रस्ट का. यह विशुद्ध अनूठा सामाजिक संगठन है, जिसका हर सदस्य बराबर है. नाम ज़रूर रजिस्टर्ड करा लिया है, क्योंकि कुछ अवसरवादी लोगों द्वारा मिलते-जुलते नामों से मुहिम का श्रेय लेने की कोशिशें किए जाने की शिकायतें मिलीं हैं.

अभियान के सदस्यों का कहना है कि दूसरे लोग श्रेय लेना चाहते हैं, तो ले लें, लेकिन व्यक्तिगत आर्थिक या राजनैतिक लाभ के लिए अगर वे ऐसा करते हैं, तो ठीक नहीं है. इससे असल आंदोलन बदनाम होता है. कुल मिलाकर इस अभियान का उद्देश्य शिक्षा के माध्यम से अपनी जड़ों की ओर लौटना है.

मुहिम से जुड़ना अनूठा अनुभव

ग्राम पाठशाला मिशन से मेरा जुड़ना संयोगवश हुआ. सोशल मीडिया पर मुहिम की कुछ तस्वीरें दिखीं, तो ज़्यादा जानने की उत्सुकता हुई. कई बार कुछ झलकियां देखकर इस तरह की उत्सुकता और उत्कंठा होती है, लेकिन तत्काल कोई संपर्क सूत्र न मिलने और अन्यत्र व्यस्तता की वजह से मामला वहीं का वहीं लटका रह जाता है.

संयोगवश मेरे एक मित्र अजय पाल नागर ने भी ग्राम पाठशाला मुहिम की कुछ तस्वीरें सोशल मीडिया पर शेयर कीं और संयोगवश उनका फोन नंबर मेरे पास था. उनसे बात हुई, तो मुझे सहज ही भरोसा नहीं हुआ कि जो वे बता रहे हैं, दावा कर रहे हैं, सही भी हो सकता है. मैंने उनसे आग्रह किया कि ग्राम पाठशाला के किसी कार्यक्रम में मुझे भी शामिल होने का अवसर दें, तो वे सहर्ष तैयार हो गए.

फिर सितंबर माह में बारिश से तरबतर एक रविवार को ग्राम पाठशाला के कार्यकर्ताओं के साथ गौतमबुद्ध नगर ज़िले के एक गांव में जाना हुआ. अच्छी-ख़ासी फुहारों में भीगते हुए गांव में प्रभात फेरी निकाली गई. गांव वालों का उत्साह भी देखने लायक था. मेरे लिए यह 30 से ज़्यादा वर्ष तक के पत्रकारिता जीवन के दौरान हुए चंद अनूठे अनुभवों में से एक रहा.

इस तरह एक सकारात्मक मुहिम से जुड़ने का अवसर मिला. ऐसी मुहिम जो चुपचाप उद्देश्य पूर्ति की दिशा में बढ़ रही है, जिसे प्रचार से कोई लेना-देना नहीं है. बाद में कई और गांवों में जाना हुआ. मुझे गली-मोहल्लों के नुक्कड़ों की बजाए ज़्यादातर युवा और पढ़ने लायक उम्र के बच्चे लाइब्रेरियों में ही नज़र आए. जहां लाइब्रेरी खुल गई हैं, उन गांवों में अभिभावक आश्वस्त हैं कि अब उनके बच्चे नशे और दूसरी बुरी लतों से दूर रह पाएंगे. पढ़ेंगे-लिखेंगे.
युवाओं से बातचीत हुई, तो वे भी अपने भविष्य के प्रति आश्वस्त नज़र आए. ऐसे में महसूस हुआ कि ग्राम पाठशाला मिशन के बारे में ज़्यादा से ज़्यादा लोगों को जानकारी होनी चाहिए.

समाज अपना दायित्व निभाए

अभी पश्चिमी उत्तर प्रदेश, हरियाणा और राजस्थान में सफल हो रही इस मुहिम की सुकून भरी हवा देश भर में चलने लगे, तो कितना अच्छा रहेगा! वैसे भी नई शिक्षा नीति के तहत पूरी प्रणाली को दुरुस्त करने की क़वायद चल रही है, ऐसे में ग्राम पाठशाला के प्रयास सोने पर सुहागे की तरह हैं, जिनकी प्रशंसा मुक्तकंठ से की जानी चाहिए.

सरकारें तो अपने दायित्व निभाती ही हैं या उन्हें अपने दायित्व अच्छी तरह से निभाने ही चाहिए, लेकिन समाज भी अपनी ज़िम्मेदारी समझ कर अपने काम ख़ुद करने लगे, तो इससे अच्छा क्या हो सकता है? भारत विश्व गुरु था, तो इसमें हमारी सनातन शिक्षा प्रणाली का ही मुख्य योगदान था. देश दोबारा विश्व शक्ति और विश्व गुरु बनने की ओर अग्रसर है, तो गांवों में फैले अशिक्षा के अंधियारों को जल्द से जल्द प्रकाश पुंजों में बदलने की आवश्यकता है.

ग्राम पाठशाला ज्ञान की अनूठी भारतीय परंपरा को आगे बढ़ाने में जुट गई है, तो उसे शुभकामनाएं देनी ही चाहिए.

भारत में लाइब्रेरी का इतिहास

भारत में विद्यार्जन के सुविकसित केंद्र के रूप में तक्षशिला विश्वविद्यालय (अब पाकिस्तान में) की स्थापना 700 ई पूर्व में की गई थी. सिकंदर के आक्रमण के समय में यह दुनिया में मेडिकल की पढ़ाई का इकलौता सर्वश्रेष्ठ केंद्र था. तक्षशिला विश्वविद्यालय में समृद्ध लाइब्रेरी थी. इसी तरह पांचवीं सदी में कुमार गुप्त प्रथम ने नालंदा में विश्वविद्यालय की स्थापना की थी. तुर्की के मुस्लिम शासक बख़्तियार खिलजी ने नालंदा विश्वविद्यालय की लाइब्रेरी में आग लगवा दी थी. कहा जाता है कि लाइब्रेरी में इतनी पुस्तकें थीं कि लपटें तीन महीने से ज़्यादा समय तक उठती रही थीं.

पुस्तकालयों के आधुनिक इतिहास की बात करें, तो दुनिया में पुस्तकालय आंदोलन की शुरुआत इंग्लैंड में हुई. वर्ष 1805 में इंग्लैंड में पब्लिक लाइब्रेरी एक्ट बनाया गया. भारत में लाइब्रेरी आंदोलन की शुरुआत का श्रेय बड़ौदा के राजा शयाजी राव गायकवाड़ द्वितीय को दिया जाता है. उन्होंने 1910 में आधुनिक सार्वजनिक पुस्तकालय विज्ञान को बढ़ावा देने की दिशा में पहल की. उन्होंने अमेरिकी विद्वान डब्ल्यू ए बॉर्डन को निदेशक नियुक्त किया.

भारत में सबसे पहले 1914 में आंध्र प्रदेश में राज्य स्तर का पुस्तकालय संघ बनाया गया. इसके बाद 1921 में महाराष्ट्र, 1923 में मद्रास, 1925 में बंगाल, 1929 में पंजाब, 1930 मं केरल, 1936 में बिहार, 1938 में असम, 1939 में दिल्ली, 1944 में उत्कल, 1953 में गुजरात, 1956 में उत्तर प्रदेश, 1962 में मैसूर और राजस्थान, 1963 में गोवा में राज्य स्तरीय पुस्तकालय संघ की स्थापना की गई. भारत में 1933, 1955 और 1969 में राष्ट्र स्तरीय पुस्तकालय संघ स्थापित किए गए.

बैलगाड़ी पुस्तकालय सेवा

भारत में 12 अगस्त को राष्ट्रीय पुस्तकालय दिवस मनाया जाता है. आधुनिक पुस्तकालयों का जनक डॉ. एस आर रंगनाथन को माना जाता है. उन्होंने पुस्तकालय को जन-आंदोलन का रूप दिया. मद्रास में 1927 में अखिल भारतीय सार्वजनिक पुस्तकालय सम्मेलन किया गया. वर्ष 1928 में रंगनाथन ने मद्रास लाइब्रेरी एसोसिएशन की स्थापना की. ख़ास बात यह है कि उन्होंने पुस्तकालय को ग्रामीण क्षेत्रों में भी पहुंचाया और बाक़ायदा बैलगाड़ी पुस्तकालय सेवा शुरू की. अब ग्राम पाठशाला हर गांव लाइब्रेरी की मुहिम में जुटी है, तो आइए उसका स्वागत करें और हो सके, तो हरसंभव मदद भी करें. पूरी दुनिया भारत के राष्ट्रपति रहे स्वर्गीय डॉ. एपीजे अब्दुल कलाम का जन्मदिन 15 अक्टूबर विश्व विद्यार्थी दिवस के रूप में मनाती है. आइए हम भी उनका स्मरण करें और उनकी शिक्षाओं के अनुसरण का प्रण लें.

(डिस्क्लेमर: ये लेखक के निजी विचार हैं. लेख में दी गई किसी भी जानकारी की सत्यता/सटीकता के प्रति लेखक स्वयं जवाबदेह है. इसके लिए जनता से रिश्ता किसी भी तरह से उत्तरदायी नहीं है)
 
रवि पाराशर, वरिष्ठ पत्रकार
लेखक वरिष्ठ पत्रकार और साहित्यकार हैं. नवभारत टाइम्स, ज़ी न्यूज़, आजतक और सहारा टीवी नेटवर्क में विभिन्न पदों पर 30 साल से ज़्यादा का अनुभव रखते हैं. कई विश्वविद्यालयों में विज़िटिंग फ़ैकल्टी रहे हैं. विभिन्न विषयों पर राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय सेमिनार में शामिल हो चुके हैं. ग़ज़लों का संकलन 'एक पत्ता हम भी लेंगे' प्रकाशित हो चुका है।
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