सैनिक भर्तीः सेना का ही हक
भारतीय सेना के तीनों अंगों में भर्ती की नई प्रणाली ‘अग्निपथ’ को लेकर देश में जो राजनैतिक कोहराम व सड़कों पर तोड़फोड़ का वातावरण बना हुआ है वह पूरी तरह सेना को मिले ‘पवित्र वैधानिक अधिकार’ के विरुद्ध है
आदित्य चोपड़ा: भारतीय सेना के तीनों अंगों में भर्ती की नई प्रणाली 'अग्निपथ' को लेकर देश में जो राजनैतिक कोहराम व सड़कों पर तोड़फोड़ का वातावरण बना हुआ है वह पूरी तरह सेना को मिले 'पवित्र वैधानिक अधिकार' के विरुद्ध है परन्तु आश्चर्य की बात यह है कि संसद में बैठ कर विधान बनाने वाले राजनीतिक दलों के नेता ही इस तथ्य से अनभिज्ञ जान पड़ते हैं। भारत की संसद ने ही देश को आजादी मिलने के बाद 1950 में नया सेना कानून बनाया जिसने अंग्रेजों के बनाये गये 1911 के कानून का स्थान लिया और इसके बाद 1954 में सेना के नये नियम (रूल्स) बनाये गये। इसी प्रकार बाद में वायु सेना व जल सेना के नियम भी बने। सेना कानून में भारतीय फौजों को इस बात की स्वतन्त्रता दी गई कि उनमें भर्ती होने के लिए इच्छुक भारतीय युवाओं की जो भी 'पात्रता' होगी उसे केवल सेना की अन्तरंग प्रशासनिक प्रणाली ही तय करेगी और इसमें किसी भी प्रकार का कोई बाहरी हस्तक्षेप नहीं होगा। सबसे पहले यह समझने की जरूरत है कि सेना की आन्तरिक अनुशासन व प्रशासनिक व्यवस्था में कोई भी सरकार किसी प्रकार का हस्तक्षेप नहीं कर सकती है। सेना में भर्ती का क्या मानदंड होगा और उसमें भर्ती के लिए किसी भी नौजवान को किन-किन प्रकार की शारीरिक, मानसिक व बौद्धिक परीक्षाओं से गुजरना पड़ेगा इसका फैसला भी स्वयं सेना ही समयानुसार अपनी आवश्यकताएं देखते हुए करेगी। अतः भर्ती के नियमों में परिवर्तन, संशोधन व परिमार्जन सेना का अपना विशिष्ट मामला है जिसे राजनीतिक रूप किसी भी तौर पर नहीं दिया जा सकता। ऐसा करना ही स्वयं में गैर वैधानिक कृत्य है। अतः विभिन्न टीवी न्यूज चैनलों पर बैठ कर सेना द्वारा अग्निवीरों की भर्ती की प्रणाली को पानी पी-पी कर कोसने वाले विभिन्न राजनीतिक दलों के 'बयान बहादुर' कच्चे-पक्के नेता सुनें कि वे ऐसा करके सीधे सेना को ही कठघरे में खड़ा करने का प्रयास कर रहे हैं जिससे सेना के राष्ट्रीय गौरव पर विपरीत प्रभाव पड़ सकता है। सेना में भर्ती कोई 'पटवारियों' की भर्ती है कि हर राजनीतिक दल खेत नपाई-जुताई की अपनी अलग-अलग तजवीज लेकर गला साफ करने लगे बल्कि यह देश पर मर-मिटने का जज्बा लिये सैनिक बनने के इच्छुकों की भर्ती है। इनके सेवा नियम कैसे होंगे और सेवाकाल कितना होगा तथा इन्हें क्या-क्या सुविधाएं मिलेंगी, इसका फैसला न तो रक्षामन्त्री कर सकते हैं और न ही कोई बड़े से बड़ा सरकारी अफसर क्योंकि सेना को अपनी आवश्यकताओं के अनुसार ही स्वयं को आधुनिक तथा अधिकाधिक जोश-जज्बे से भरपूर रखना होता है। बेशक 75 प्रतिशत अग्निवीर केवल चार साल के लिए ही सेना की सशस्त्र सेवा में रहेंगे और 25 प्रतिशत आगे 15 वर्ष के लिए सेवा करते रहेंगे। यह फार्मूला विकसित करने में सेना के ही विशेषज्ञ कमांडरों ने अपनी पूरी बौद्धिक क्षमता का उपयोग किया होगा और देखा होगा कि इसके लागू होने पर फौजों में बदलते समय के अनुसार लड़ाई के परिवर्तित चरित्र को देखते हुए संभावित युद्ध चुनौतियों का सामना करने में सुगमता होगी। इसमें विवाद कहां पैदा होता है? विवाद खड़ा करने वाले यह भूल रहे हैं कि ऐसा करके वे सेना की विशेषज्ञता को ही चुनौती दे रहे हैं। सेना का प्रथम लक्ष्य राष्ट्रहित व सीमाओं की सुरक्षा होती है। यह दायित्व पूरा करने के लिए वह लगातार अपनी सामर्थ्य और शक्ति में सुधार करती रहती है तथा इसमें रंजमात्र भी समझौता नहीं करती। यही वजह है कि 2005 के लगभग जब मुसलमानों की स्थिति का जायजा लेने के लिए सच्चर समिति ने फौज में मुसलमानों की गिनती करने के लिए याचिका दी थी तो तत्कालीन रक्षामन्त्री श्री प्रणव मुखर्जी ने इसे रद्दी की टोकरी में फेंक दिया था और संसद में ही घोषणा की थी कि सेना में नौकरी या भर्ती के मानदंड स्वयं सेना ही अपने बनाये हुए पैमानों पर करती है जिसमें हिन्दू-मुसलमान का सवाल पैदा नहीं होता। उसकी पात्रता हिन्दू-मुसलमान होने से तय नहीं होती बल्कि उस पर जो खरा उतरता है वहीं सेवा में जाता है। हमें आज 17 साल बाद प्रणव दा के इस वक्तव्य की गंभीरता का आंकलन करना चाहिए। चार साल बाद रिटायर होने वाले अग्निवीरों को सेना अपने से जोड़े रखने के लिए उन्हें चिकित्सा व उपभोक्ता सेवाएं अन्य पूर्व सैनिकों की भांति ही देगी और उनके लिए रक्षा मन्त्रालय समेत इसके विभिन्न उपक्रमों में भी 10 प्रतिशत आरक्षण होगा। इसके साथ ही असम राइफल्स व सीएपीएफ जैसे अर्ध सैनिक बलों में दस प्रतिशत आरक्षण रहेगा जबकि राज्य पुलिस बलों में प्रवेश के लिए ये अग्निवीर ज्यादा सुपात्र होंगे। सेना से प्रशिक्षित 21-22 वर्ष का युवक जिस क्षेत्र में भी जायेगा अनुशासन का नया हथियार लेकर जायेगा। मगर मूल मुद्दा यह है कि राजनीतिक दल इस अग्निपक्ष प्रणाली की आलोचना करके सीधे सेना की आलोचना करने का काम कर रहे हैं। इसका फैसला किसी भी तौर पर सड़कों पर उग्र प्रदर्शन करके नहीं हो सकता। ऐसा करके वे युवा वर्ग को सेना की भर्ती प्रक्रिया से अलग करने का अपराध ही कर रहे हैं।