जोखिमों से जूझता समाज

पिछले कुछ दशकों में संपूर्ण विश्व में नव-उदारवाद और वैश्वीकरण की प्रक्रिया में तेजी से हुई वृद्धि ने मानव जीवन और दुनिया के हर क्षेत्र को प्रभावित किया है।

Update: 2022-02-19 03:09 GMT

ज्योति सिडाना: पिछले कुछ दशकों में संपूर्ण विश्व में नव-उदारवाद और वैश्वीकरण की प्रक्रिया में तेजी से हुई वृद्धि ने मानव जीवन और दुनिया के हर क्षेत्र को प्रभावित किया है। बाजार, अर्थव्यवस्था, सूचना, शिक्षा, राजनीति, परिवार, विवाह प्रणाली, चिकित्सा, स्वास्थ्य, मनोरंजन, धर्म और मीडिया आदि ऐसा कोई क्षेत्र नहीं है, जहां इनका प्रभाव नहीं देखा जा सकता। नव-उदारवाद के दौर ने मानव समाज को बाजार में बदल दिया है, जहां वस्तुओं और सेवाओं से लेकर सामाजिक संबंधों को भी खरीदा और बेचा जा सकता है। दूसरी तरफ, आर्थिक विकास, रोजगार सृजन, सामाजिक सुरक्षा, पर्यावरण, सामाजिक न्याय, संवैधानिक मूल्य जैसे पक्ष संकट से गुजर रहे हैं।

समाजशास्त्री अलरिच बैक ने जोखिम समाज (रिस्क सोसाइटी) की अवधारणा की चर्चा करते हुए कहा कि उत्तर-आधुनिक समाज ने अपने लिए खुद जोखिम पैदा किए हैं और आधुनिक समाज ने विकासमूलक चिंतन के प्रति निराशावादी दृष्टिकोण को उत्पन्न किया है। जहां आधुनिक समाज ने समाज हित में अनेक मूल्यों और लाभों को विकसित किया, हालांकि ये लाभ असमान रूप से वितरित थे, वहीं उत्तर-आधुनिक समाज ने अनेक जोखिमों को उत्पन्न और विकसित किया है, जो तुलनात्मक रूप से बड़े संकट को उत्पन्न करते हैं।

विश्व आर्थिक मंच द्वारा हाल ही में वैश्विक जोखिम रिपोर्ट 2022 जारी की गई। इस रिपोर्ट में आर्थिक, पर्यावरण, भू-राजनीतिक, सामाजिक और तकनीकी जैसी पांच श्रेणियों में जोखिमों को प्रस्तुत किया जाता है। रिपोर्ट के अनुसार कोविड महामारी की शुरुआत के बाद से सामाजिक और पर्यावरणीय जोखिम सबसे अधिक बढ़ गए हैं। सामाजिक एकता में ह्रास, आजीविका संकट और मानसिक स्वास्थ्य में गिरावट अगले दो वर्षों में दुनिया के लिए सबसे अधिक खतरे के रूप में देखे जाने वाले तीन प्रमुख जोखिम हैं। इसके अलावा ऋण संकट, साइबर सुरक्षा विफलता, डिजिटल असमानता और विज्ञान के खिलाफ प्रतिक्रिया जैसे जोखिम भी महत्त्वपूर्ण हैं।

इस महामारी ने मानो विश्व भर में आर्थिक ठहराव की स्थिति उत्पन्न कर दी। स्थानीय बाजार वैश्विक और विश्व बाजार स्थानीय स्वरूप लेते जा रहे हैं। विश्व के सभी बाजार मोबाइल और कंप्यूटर के माध्यम से हमारे घरों तक पहुंच बना चुके हैं। आवश्यकता अब लालच का रूप ले चुकी है, क्योंकि आवश्यकता हो या न हो बाजार ने आपको हर वस्तु खरीदने के लिए बाध्य कर दिया है। नई सूचना तकनीक ने मनुष्य के चारों ओर एक ऐसा आभासी विश्व निर्मित कर दिया है, जहां वे वास्तविकता से पूरी तरह कट गए हैं।

ऐसा लगने लगा है कि अब समाज सामाजिक संबंधों से नहीं बनता, बल्कि वस्तुओं और संसाधनों से बनता है। इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि मनुष्य की आवश्यकताएं तो पूरी की जा सकती हैं, पर लालच नहीं। और इस लालच की वजह से मनुष्य को पता ही नहीं लगा कि कब उसने खुद के लिए अनेक जोखिमों को खड़ा कर लिया।

तकनीकी विकास ने जहां मानव श्रम को सरल किया है, वहीं लोगों के बीच असमानता को बढ़ावा दिया है, बेरोजगारी में वृद्धि की है, पर्यावरण के सामने भी अनेक खतरे उत्पन्न किए हैं, जिससे मानव का अस्तित्व ही खतरे में पड़ गया है। एंथनी गिडेंस, अलरिच बेक, जर्गेन हेबरमास जैसे अनेक समाजशास्त्रियों ने उद्योगवाद, आधुनिक पूंजीवाद और उपभोक्तावाद को पर्यावरणीय ह्रास का महत्त्वपूर्ण कारण माना है, इसलिए वे आधुनिक समाज को जोखिम समाज की संज्ञा देते हैं।

वर्तमान समाज अनेक जोखिमों से घिरा हुआ है इसके बावजूद इन जोखिमों या खतरों पर लोकतांत्रिक चर्चा और विमर्श करने के स्थान पर कुछ लोग केवल अपने लाभ की चिंता में व्यस्त रहते हैं। यह सच है कि पर्यावरण को और अधिक नुकसान से बचाने के लिए अनियंत्रित वैज्ञानिक और तकनीकी विकास को रोकना होगा। आधुनिक तकनीक पर बहुत अधिक निर्भरता ने जीवन की स्वाभाविकता को ही समाप्त कर दिया है।

विज्ञान और तकनीक के विकास से पूंजीपति और उद्योगपति वर्ग केवल बाजारों का विस्तार कर रहे हैं ताकि वे अधिक से अधिक लाभ कमा सकें। आज वैश्विक स्तर पर हर आयु वर्ग विशेष रूप से भावी पीढ़ी के सामने जो खतरे उभर कर आ रहे हैं उन पर अगर अब भी चिंतन नहीं किया गया तो यह कल्पना भी नहीं की जा सकती कि हम अपनी भावी पीढ़ी को किन जोखिमों की तरफ धकेल रहे हैं।

जैसा कि इस जोखिम रिपोर्ट में भी बताया गया है कि मनुष्य का स्वास्थ्य (शारीरिक और मानसिक), शिक्षा, पर्यावरण, रोजगार, सामाजिक एकता और सौहार्द सब कुछ इस अति-पूंजीवादी समाज में संकटों का सामना कर रहे हैं। जो इन संकटों का सामना करने में सक्षम होंगे, हालांकि इनकी संख्या बहुत कम है, वे अपने अस्तित्व को शायद बचा भी लें, लेकिन बाकी जनसंख्या का क्या। भौतिकतावाद और उपभोक्तावाद की इस दौड़ में मनुष्य को इतना भी अंधा नहीं होना चाहिए कि उन्हें अपनी ओर आते हुए खतरे दिखाई न दें।

आज का मनुष्य अपने जीवन में बहुत कुछ कर रहा है, बस जीवन जीना भूल गया है। इसी तरह के एक संकट की तरफ संकेत करते हुए रिजर्व बैंक के पूर्व गवर्नर रघुराम राजन तर्क देते हैं कि बच्चों को जल्द स्कूल लाने की जरूरत है, वरना हमारे पास एक कम समझ वाली पीढ़ी होगी। उन्होंने कहा, गरीब बच्चों के पास आनलाइन उपकरण नहीं हैं, उनकी पढ़ाई की गुणवत्ता की कल्पना की जा सकती है। अगर बच्चे डेढ़ साल स्कूल से दूर रहते हैं, तो मान लीजिए कि वे तीन साल पिछड़ गए।

यह एक अकेला संकट ही इतना जोखिम भरा है जो देश के भविष्य को असुरक्षित कर सकता है फिर अन्य संकट देश और समाज के सम्मुख क्या स्थिति उत्पन्न कर सकते हैं, सोचने का विषय है। अगर हम केवल अपने देश की बात करें तो वैश्विक खाद्य सुरक्षा में भारत का इकहत्तरवां स्थान, वैश्विक भुखमरी सूचकांक में एक सौ एकवां, लैंगिक असमानता सूचकांक में एक सौ चालीसवां, मानव विकास सूचकांक में एक सौ इकतीसवां, वैश्विक शांति सूचकांक में एक सौ पैंतीसवां और मानव स्वतंत्रता सूचकांक में एक सौ ग्यारहवां स्थान है।

संभवत: ये सभी कारण हैं, जिनसे भारत प्रसन्नता सूचकांक में एक सौ उनतालीसवें स्थान पर बना हुआ है। क्योंकि खुशी तभी आती है जब व्यक्ति की आवश्यकताएं पूरी हों और वह अपने जीवन के प्रति संतुष्टि का अनुभव करे। पर आज के दौर में जबकि अधिकांश जनसंख्या भुखमरी, गरीबी, असमानता, बेरोजगारी, मानसिक और शारीरिक अस्वास्थ्य, असमानता का सामना कर रही हो तो खुशी या खुशहाली की कल्पना भी कैसे की जा सकती है।

अमर्त्य सेन का तर्क है कि विषमता किसी भी समाज में बिना विमर्श के समाप्त नहीं हो सकती। अगर अमर्त्य सेन के इस तर्क को स्वीकार करें तो जरूरी है कि समाज और देश के हर मुद्दे पर चाहे राजनीतिक हो, आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक, शैक्षणिक, संवैधानिक या फिर धार्मिक व्यापक बहस या कहें कि तार्किक बहस होनी जरूरी है। आज नैतिक, पूर्वाग्रह से रहित और तर्कसंगत बहस/ विमर्श उपेक्षा का शिकार है, संभवत: इससे न केवल समाज की विविधता की विरासत को खतरा उत्पन्न हो रहा है, बल्कि अनेक अप्रत्याशित खतरे भी संकट उत्पन्न कर सकते हैं।

यह एक ऐसी अनिश्चितता का दौर है जहां लोग भविष्य के साथ-साथ वर्तमान को लेकर भी चिंतित हैं। इस दिशा में वैज्ञानिक, बुद्धिजीवी वर्ग, राज्य और प्रशासन को ठोस कदम उठाने होंगे और ऐसी रणनीति बनानी होगी कि लोगों को भय और असुरक्षा के परिवेश से बाहर निकाला जा सके। इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि जब समाज में नागरिक भय और असुरक्षा का अनुभव करेंगे वे विकास में सहभागिता कैसे कर सकते हैं।


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