सामाजिक चुनौती

कोरोना काल ने एक नई सामाजिक चुनौती पैदा कर दी है, वह चुनौती है महामारी में अनाथ हुए बच्चे

Update: 2021-05-18 14:09 GMT

कोरोना काल ने एक नई सामाजिक चुनौती पैदा कर दी है, वह चुनौती है महामारी में अनाथ हुए बच्चे। कोरोना संक्रमण की वजह से देश में कई जगह पूरे परिवार ही उजड़ गए हैं। ना जाने कितने बच्चे ऐसे हैं जिन्होंने अपने अभिभावकों को खो दिया है। बीते दिनों जिस तरह आक्सीजन, दवा से लेकर अस्पताल में बिस्तरों के लिए सोशल मीडिया पर गुहार लगाई जा रही थी अगर उतनी ही तेजी से कहां से सब कुछ उपलब्ध हो सकता है, उसकी जानकारी सोशल मीडिया पर तैर रही थी। ठीक उसी तरह सोशल मीडिया पर ऐसे संदेश भी आए कि दो लड़कियां ​जिनकी उम्र तीन दिन और छह महीने की है, कोविड की वजह से इन्होंने अपने माता-पिता को खो दिया है। इन बच्चियों की मदद करें जिससे इन्हें नई जिन्दगी मिल सके। ऐसे कई संदेश रोज सोशल मीडिया पर देखे जा सकते हैं। यद्यपि दिल्ली की आप सरकार और कुछ राज्य सरकारों ने अनाथ बच्चों का पूरा खर्च उठाने की घोषणा की है लेकिन अनाथ बच्चों का पालन-पोषण और उन्हें अच्छे नागरिक बनाना आसान काम नहीं है। यह दायित्व समाज को निभाना होगा।


तेलंगाना के एक ग्रामीण इलाके में आठ महीने के बच्चे के सिर से कोरोना ने मां-बाप का साया छीन लिया। दिल्ली के नजदीक कोरोना की वजह से चार साल और डेढ़ साल के नन्हे भाई-बहन अनाथ हो गए, आस-पास कोई रिश्तेदार भी नहीं रहता था। वहीं दिल्ली के ही एक घर में जब मां-बाप ने कोविड से दम तोड़ा तो 14 साल का बेटा अकेला घंटों तक वहीं बदहवास बैठा रहा। बड़ी मुश्किल से हिम्मत जुटाकर एक रिश्तेदार को खबर की गई। मदद के लिए पहुंचने वाले एक शख्स के मुताबिक ''ये बच्चा बोल भी नहीं पा रहा था और अपने गुजर चुके मां-बाप के नम्बर पर ही लगातार कॉल किए जा रहा था।'' इस तरह की खबरों पर लोग अपनी संवेदना जताने की कोशिश में लगे हैं लेकिन इस तरह के बच्चे देना या लेना जहां गैर कानूनी है वहीं इस तरह से हम बच्चों की जिन्दगी को खतरे में भी डाल सकते हैं। इससे बच्चों की तस्करी को बढ़ावा मिल सकता है। इसे तुरन्त रोका जाना चाहिए। बच्चे को गोद लेने की एक कानूनी प्रक्रिया होती है और किसी भी बच्चे के मामले में इसे अंतिम विकल्प के तौर पर लिया जाता है, जब बच्चे की देखरेख से जुड़े विकल्प मौजूद न हों।

एनसीपीसीआर ने सभी राज्यों और केन्द्र शासित प्रदेशों के मुख्य सचिवों को इस बारे में चिट्ठी लिखी है। आयोग ने कहा है कि किसी भी व्यक्ति, संस्था या एनजीओ को ऐसे बच्चों की जानकारी मिलती है तो उनको इस बारे में चाइल्ड हैल्पलाइन नम्बर 1098 पर जानकारी देनी होगी और बच्चे को जिले की चाइल्ड वैलफेयर कमेटी के सामने पेश करना होगा। चिट्ठी में एनसीपीसीआर ने कहा-''देश में कोविड-19 से बढ़ रहे मामलों की दुखद स्थिति के बीच ऐसे हालात बन रहे हैं, जहां बच्चे ने अपने दोनों मां-बाप को खो दिया है या अकेले रह गए हैं, जिन बच्चों ने कोविड-19 की वजह से परिवार का सपोर्ट खो दिया है या कोविड-19 के चलते मां-बाप की जान चली जाने की वजह से अकेले रह गए हैं, उनकी किशोर न्याय (बालकों की देखरेख और संरक्षण) अधिनियम, 2015 के तहत देखभाल और सुरक्षा की जाएगी और ऐसे बच्चों को जेजे एक्ट 2015 के सैक्शन 31 के तहत जिले की चाइल्ड वैलफेयर कमेटी के सामने पेश करना होगा ताकि बच्चे की देखभाल के लिए जरूरी आदेश पास ​किए जा सकें। भारत सरकार ने सभी राज्यों से संपर्क करके कोविड की वजह से अपने मां-बाप को खोने वाले बच्चों को जेजे एक्ट के तहत संरक्षण देना सुनिश्चित करने के लिए कहा है और महिला और बाल विकास मंत्रालय ने राज्यों से अपील की है कि वो बाल कल्याण समितियों को जरूरतमंद बच्चों के बारे में सक्रिय रूप से पता करते रहे के काम में लगाएं।

प्राथमिकता यह है कि ऐसे बच्चों का पता लगाकर उन तक जल्द से जल्द मदद पहुंचाई जाए। हर जिलों में चाईल्ड वैलफेयर कमेटी होती है। इन कमेटियों को तय करना होगा कि अनाथ बच्चों को कहां पहुंचाया जाये और संस्थागत रख-रखाव के लिए कौन सी ऐसी संस्था है। सबसे पहले ये खोजा जाता है कि क्या कोई रिश्तेदार बच्चे की देखरेख कर सकता है या नहीं तो बच्चे को किसी चाइल्ड केयर संस्था की देखरेख में रखा जाता है। एक 14 साल के बच्चे का मामला आया था, जिसने अपने मां-बाप, दादा-दादी, चाचा-चाची समेत पूरे परिवार को कोरोना की वजह से खो दिया था और बच्चा खुद भी कोरोना पॉजिटिव था फिर बाद में वो अपने दोस्त के परिवार की देखरेख में रहने लगा और दोस्त की एक आंटी ने उसे कानूनी तरीके से गोद लेने का फैसला किया लेकिन जिन बच्चों की देखरेख करने वाला कोई नहीं मिलता उनके लिए गैर-सरकारी संस्थाएं सरकार के साथ मिलकर काम करने के ​लिए सामने आई हैं।

ऐसे बच्चों को भावनात्मक सपोर्ट की बहुत जरूरत है लेकिन यह आसान नहीं होता। इन बच्चों को गुस्सा आना, उदास होना, डर महसूस होना, शोक महसूस होना सामान्य है। उन्हें रिकवरी के लिए समय चाहिए। हमें इसके लिए मेंटल हैल्थ विशेषज्ञ की जरूरत भी पड़ेगी। वैसे भी बच्चों को एक कानूनी दायरे में गोद लेने की प्रक्रिया न सिर्फ बच्चे के लिए बल्कि गोद लेने वाले परिवारों के लिए भी बेहतर है। भारत में ऐसे कितने ही दम्पति हैं जो बच्चों के लिए तरस रहे हैं, वे बच्चों को गोद लेकर उनका जीवन सुधार सकते हैं। ये एक आम धारणा है कि अनाथ बच्चों की देखरेख के लिए बाल आश्रम एक अच्छा विकल्प हो सकता है, कुछ बाल आश्रम अच्छा काम भी कर रहे हैं लेकिन ज्यादातर का अनुभव अच्छा नहीं है। जहां लाखों ब​च्चे बिना माता-पिता के जिन्दगी गुजार रहे हैं वहीं हजारों दम्पति बच्चों को अपनाने के लिए इंतजार कर रहे हैं। ऐसे में जरूरत है कि इस सामाजिक चुनौती का सामना करने के लिए गोद लेने की प्रक्रिया को दुरुस्त करें जिससे बच्चों को सही देखरेख हासिल हो सके। इस महामारी ने हमें एक मौका दिया है जिससे इस तंत्र को सुधारा जा सकता है। बच्चों को स्नेह सरकारें नहीं दे सकती, अफसर भी नहीं दे सकते, अगर उनकी जिन्दगी संवार सकता है तो यह काम समाज को खुद आगे आकर करना होगा।

आदित्य नारायण चोपड़ा


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