ताकि अवसाद हमें घेरे न ज्यादा

जो अंदर मन में उत्साह, उमंग और खुशी रहती थी, वह अब किसी के अंदर नहीं है

Update: 2021-06-11 12:53 GMT

के सी गुरनानी, ख्यात मनोचिकित्सक। जो अंदर मन में उत्साह, उमंग और खुशी रहती थी, वह अब किसी के अंदर नहीं है। जीवन का सार क्या है? लोग सोचने लगे हैं कि हम क्यों कमा रहे हैं? भौतिक सुखों के पीछे भागने वाले लोगों के मन में भी अनेक सवाल पैदा हो रहे हैं कि आखिर हमें क्या मिला? हम कितना कमाएंगे, तो सुरक्षित हो जाएंगे? लोगों में आमतौर पर चिंता और भय व्याप्त है। मेरी बात एक महिला से हो रही थी, उन्होंने कहा, 'मैं कोई भी ऐसी बात सुन नहीं सकती। कोई मुझसे कोविड की बात करता है, तो मैं बुरी तरह घबरा जाती हूं, साफ कहती हूं, मुझसे ऐसी बात मत करो।' आज यही सच है, दुख की खबरें लोग सहन नहीं कर पा रहे हैं और सोचने लग रहे हैं कि अभी आखिर और कितना दुख उनके हिस्से शेष है। वाट्सएप पर आए शोक-दुख के संदेश लोगों को परेशान करने लगे हैं। एक व्यक्ति ने कहा, 'डॉक्टर साहब, मैं कोरोना से जुडे़ संदेश पढ़ते ही रोने लगता हूं, घबरा जाता हूं, मैं क्या करूं?' लोग अपने रोजमर्रा के काम कर रहे हैं, लेकिन उनके जीवन पर कहीं न कहीं गहरा असर पड़ चुका है। कोरोना की त्रासदी का मानसिक स्तर पर प्रभाव कुछ समय बाद स्पष्ट होगा। कोरोना की पहली लहर आई थी, तब ऐसा नहीं था। पहली लहर के समय लोगों में उत्साह था, उमंग थी, लोग अपने घर में भी खुश नजर आ रहे थे। इसलिए जब पहली लहर बीत गई, तब लोगों के मन से कोरोना का भय भी लगभग खत्म हो गया, लेकिन दूसरी लहर ने लोगों के विश्वास को हिला दिया है। दूसरी लहर के भयंकर दुष्प्रभाव से हिम्मत टूट गई है। अब कोरोना तो चला जाएगा, लेकिन बहुत सारे लोगों में पुरानी हिम्मत शायद कभी नहीं लौटेगी। यह स्थिति 'क्रोनिक डिप्रेशन' को जन्म देती है, यह ठीक है कि आप खाना खा रहे हैं, अपने सारे काम कर रहे हैं, लेकिन जो उमंग थी, उसे आप खो चुके हैं। आने वाले समय में ऐसे अवसाद के असर सामने आने लगेंगे। छह महीने में संकेत मिलने लगेंगे और दो साल में यह पता चलेगा कि आखिर हमारे समाज और हम पर कितना असर पड़ा है।

आज जिन लोगों के पास पैसा है, उनके अंदर खर्च करने की इच्छा कम हो गई है। बुजुर्ग विशेष रूप से परेशान हैं। आज पढ़े-लिखे तबके के परिवारों में एक-एक, दो-दो बच्चे होते हैं। बहुत कम ऐसे परिवार बचे हैं, जिन तक कोरोना का असर नहीं पहुंचा है। जिनको एक बेटा और एक बेटी है, उनके मन में भय बढ़ गया है कि किसी एक को भी कुछ हो गया, तो क्या करेंगे? अभी जो बुजुर्ग हैं, उनके बच्चे 35 से 50 साल के हो चुके हैं, ऐसे बुजुर्गों में भविष्य को लेकर बहुत ज्यादा भय पैदा हो गया है। समाज के जो तबके आज मानसिक रूप से ज्यादा दबाव में हैं, उनकी फिक्र सरकार को करनी चाहिए। सरकार को संसाधन के स्तर पर पूरे इंतजाम करने चाहिए, ताकि संसाधनों की कमी की वजह से लोगों को मानसिक परेशानियां न उठानी पड़ें। समस्या आज की है, लोग उसका हल आज ही खोज रहे हैं। मान लीजिए, ऑक्सीजन की जरूरत आज है, छह महीने बाद ऑक्सीजन उपलब्ध हो जाए, तो क्या होगा? संसाधनों की कमी की वजह से जिन लोगों ने अपने परिजनों को खोया है, उनके बारे में आज कौन सोच रहा है? ऐसे में, चिकित्सकों की जिम्मेदारी तेजी से बढ़ रही है। अच्छी सेवा के साथ-साथ चिकित्सा सामग्रियों के इंतजाम में भी डॉक्टरों की महत्वपूर्ण भूमिका है। चिकित्सा सामग्रियों की आपूर्ति शृंखला अगर सही रहती, तो न केवल इलाज में परेशानी कम होती, बल्कि परिजनों का तनाव भी कम होता है। भाग-दौड़ के बावजूद अपनों को गंवा देने वालों पर बुरी बीती है, इसका भी असर आने वाले समय में दिखेगा। हमें सावधान हो जाना चाहिए। समस्याओं को बहुत उभारने से बचना होगा। आजकल छोटे बच्चे भी सोशल मीडिया पर हैं, जहां उन्हें सारी सूचनाएं मिलती हैं। बीमारी और भविष्य के बारे में एक बच्चा भी जानकारी रखता है। मुझे लगता है, अन्य देशों की अपेक्षा हमारे देश में नकारात्मक समाचार कुछ ज्यादा चर्चा में रहते हैं, जिसके परिणामस्वरूप बहुत से लोगों को भविष्य अंधकारमय दिखता है, सोचकर अवसाद होता है। देश में ऐसा माहौल होना चाहिए कि नकारात्मक समाचार के बजाय सकारात्मक समाचार को बढ़ावा मिले। बुरी चीजों को भी बताने का ऐसा सलीका होना चाहिए कि कोई आहत न हो। यह सत्य बताने के सभ्य और संवेदनशील तरीके इस्तेमाल करने का वक्त है।
सरकारों ने कई राहत की घोषणाएं की हैं। ध्यान रहे, ऐसी आर्थिक घोषणाएं समूह विशेष के लिए होती हैं, तमाम लोगों पर उसका सीधा असर नहीं पड़ता। इसलिए सरकार को मध्यवर्ग पर ज्यादा ध्यान देना चाहिए। यह वर्ग दो वक्त की रोटी और रोजगार इत्यादि के भय में ज्यादा जीता है। खांसी, बुखार भी हुआ, तो इस वर्ग के लोगों के मन में भय बैठ जाता है कि कोरोना हो गया है। पहले की तुलना में इस वर्ग के लोगों की नींद भी कम हुई है। कई लोग नींद में चिल्लाने लगते हैं, कोरोना-कोरोना। जो लोग आईसीयू में रह चुके हैं, उन्हें ऑक्सीजन और वेंटिलेटर के सपने आते हैं। ध्यान रहे, अवसाद सभी को नहीं होता। हर व्यक्ति की एक क्षमता होती है, इस क्षमता के बाद अवसाद होता है।
अवसाद का खतरा पहले व्यक्ति विशेष पर था, लेकिन अब समाज पर है। देश भी जूझ रहा है, समस्या अकेले की नहीं है, इससे भी लोगों को बल मिल रहा है। सपोर्ट सिस्टम की वजह से अवसाद कम भी हो रहा है। पीड़ितों को एहसास होना ही चाहिए कि मैं अकेला नहीं हूं और भी लोग दुखी हैं। किसी भी मानसिक उपचार के लिए तभी जाना चाहिए, जब बहुत जरूरी हो जाए। आज सरकार यह सुनिश्चित करे कि रोटी की समस्या किसी को न आए और घर-समाज की भूमिका है कि पीड़ितों का सहारा दिया जाए। समाज खुद को खड़ा करे। सामाजिक या आवासीय संगठन कार्यक्रम करते हैं, तो सबको बुलाते हैं, ऐसे संगठनों को लोगों की सेवा के लिए भी आगे आना चाहिए। जरूरी है, लोगों को दुख में भी याद किया जाए। हमारी जिम्मेदारी है, मुसीबत के समय काम आएं और सबको विश्वास दिलाएं कि हम हैं।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)
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