उत्पीड़न के ठिकाने
इससे बड़ी विडंबना क्या होगी कि जिस दौर में समाज, देश और दुनिया आधुनिकता और तरक्की के नए सफर पर है, उसमें भी स्त्रियों को आम लैंगिक भेदभाव और उत्पीड़न से मुक्ति नहीं मिल पा रही है।
इससे बड़ी विडंबना क्या होगी कि जिस दौर में समाज, देश और दुनिया आधुनिकता और तरक्की के नए सफर पर है, उसमें भी स्त्रियों को आम लैंगिक भेदभाव और उत्पीड़न से मुक्ति नहीं मिल पा रही है। जबकि घर की चारदिवारी से लेकर बाहर और कार्यस्थलों पर महिलाओं को यौन शोषण और उत्पीड़न से सुरक्षा देने के लिए कई कानून बने हुए हैं। इसके बावजूद न केवल गली-मुहल्लों, बस्तियों और शहरों में स्त्रियां अपने लिए अपने सुरक्षित माहौल नहीं पातीं, बल्कि यह हालत संगठित तौर पर कामकाज की जगहों पर भी बनी हुई है।
हालांकि सरकार ने इस समस्या की रोकथाम के लिए अलग-अलग स्तर पर तंत्र विकसित किया है, लेकिन स्त्रियों के प्रति आपराधिक मानसिकता पर काबू पाने में कामयाबी नहीं मिल सकी है। गुरुवार को महिला एवं बाल विकास मंत्री स्मृति ईरानी ने राज्यसभा में एक सवाल के जवाब में यह जानकारी दी कि विभिन्न मंत्रालयों से महिलाओं के यौन उत्पीड़न से संबंधित कुल तीन सौ इक्यानबे शिकायतें मिली हैं। देश भर में महिलाओं के खिलाफ होने वाले अपराधों के समांतर मंत्रालय की एक अलग व्यवस्था के तहत सामने आए ये आंकड़े समस्या की जटिलता को दर्शाते हैं।
गौरतलब है कि महिला एवं बाल विकास मंत्रालय ने कार्यस्थल पर महिलाओं के प्रति भेदभाव और लैंगिक उत्पीड़न से संबंधित शिकायतों के पंजीकरण सुविधा देने के लिए एक ऑनलाइन शिकायत प्रबंधन तंत्र विकसित किया है। इसे 'शी-बॉक्स' यानी लैंगिक उत्पीड़न इलेक्ट्रॉनिक बॉक्स के नाम से जाना जाता है, जिसमें महिलाएं अपने साथ हुई ऐसी घटना की शिकायत दर्ज करा सकती हैं। शी-बॉक्स में आई शिकायतों के विश्लेषण से पता चलता है कि इसमें यौन उत्पीड़न के मामलों के अलावा महिलाओं के खिलाफ हिंसा, दहेज के लिए यातना के ब्योरे के अलावा सुझाव भी शामिल हैं।
यानी कहा जा सकता है कि एक संगठित तंत्र में भी महिलाओं को अपने खिलाफ व्यवहार, पूर्वाग्रहों आदि से राहत नहीं मिल पा रही है। इसके समांतर आम जगहों और समाज में महिलाओं को किन स्थितियों का सामना करना पड़ता है, इससे संबंधित तमाम खबरें यह बताने के लिए काफी हैं। सवाल है कि आखिर किन वजहों से स्त्रियों के प्रति हमलावर और कुंठित मानसिकता रखने वाले लोग नियम-कायदे और कानून की भी परवाह नहीं करते!
दरअसल, विकास के चमकते पैमानों के दायरे से ये बातें गायब दिखती हैं कि लोगों के सोचने-समझने, अपने पूर्वाग्रहों और कुंठाओं से मुक्ति पाने और खुद को ज्यादा सभ्य बनाने के पहलू आज भी परंपरागत रूप में कायम हैं! क्या वक्त के साथ आगे बढ़ते समाज में अर्थव्यवस्था केंद्रित विकास की बातें ही सारी मुश्किलों का हल निकाल सकती हैं? अगर एक समाज आर्थिक रूप से मजबूत हो भी जाए, लेकिन उसके सोचने-समझने के मूल्य अलग-अलग वर्गों के खिलाफ सामंती पूर्वाग्रहों से तय होते हों तो इसके कैसे नतीजे सामने आएंगे! यह किसी से छिपा नहीं है कि हमारे यहां पैदा होने के बाद से ही बेटे को पितृसत्तात्मक मानस के माहौल में विकसित किया जाता है और इस क्रम में उसके भीतर स्त्रियों के खिलाफ भेदभाव से लेकर यौन-उत्कंठा से लैस सोच भी गहरे पैठती जाती है।
इसके बाद अलग-अलग जगहों पर मौका पाते ही उसकी कुंठाएं फूटती रहती हैं। निश्चित तौर पर इस पर लगाम लगाने के लिए सख्त कानून सबसे जरूरी उपाय हैं, लेकिन अहम यह भी है कि पुरुषों के सोचने-समझने के मनोविज्ञान को केंद्र में रख कर सामाजिक विकास नीतियों पर भी काम किया जाए, ताकि स्त्रियों को ऐसी कुंठा और मानसिक विकृति से संचालित व्यवहारों और अपराधों से मुक्ति मिल सके।