संजीदगी और संदेशे
पत्र, तार, धनादेश यानी मनीआर्डर के माध्यम से संदेश आते थे, खर्चे के रुपए आते थे। डाकियों ने भी उस पत्र वाहन सेवा को बदल कर अपने हाथ में लिया था। यह बदलाव की प्रक्रिया का अंश है, लेकिन साथ जुड़ी संवेदनाओं में बहुत अंतर होता है।
लोकेंद्रसिंह कोट: पत्र, तार, धनादेश यानी मनीआर्डर के माध्यम से संदेश आते थे, खर्चे के रुपए आते थे। डाकियों ने भी उस पत्र वाहन सेवा को बदल कर अपने हाथ में लिया था। यह बदलाव की प्रक्रिया का अंश है, लेकिन साथ जुड़ी संवेदनाओं में बहुत अंतर होता है।
जहां खत, तार, मनीआर्डर में एक विशेष अपनापन संलग्न होता था, जो डाकिए से लेकर उस खत तक से जुड़ा होता था। कुशलता की कामना से शुरू होकर बड़ों के चरणस्पर्श पर खत्म होने वाले खतों में सारा जहान होता था, भावनाओं का सैलाब होता था जो मजबूर करता था उसे बार-बार पढ़ने को। जो लिखा रहता था, उससे कई गुना जो नहीं लिखा होता था वह अंदर से उद्वेलित करता था। उस पर आटे या मिट्टी के निशान भी बहुत कुछ कहते थे।
खत क्या… उनके अंदर गांव भी होता था। घर-परिवार के साथ आस-पड़ोस, खेत-खलिहान, आम-अमराई, शादी-ब्याह, सुख-दुख का एक हिसाब होता था, जिसमें अंत में बाकी रहता था प्रेम, स्नेह, अभिनंदन। कुछ पैसों की मांग भी होती थी और सभी बात में पहले लिखा होता था, हो सके तो..। कोई चिट्ठी मां की बेटे को, पिता की पुत्र को, पति की पत्नी, प्रेमी की प्रेमिका को, भाई की बहन को..। कई-कई रिश्ते निभते थे खतों से।
संवाद का यह सिलसिला आज आसान जरूर हो गया, लेकिन बहुत सारी संवादहीनता को उभार गया। रिश्ते सोशल मीडिया पर निभाए जाने लगे, जिनमें औपचारिकता और दिखाटीपन ज्यादा है। संदेशों की बाढ़ ने संदेश के मूल्य को भी कम कर दिया। दोस्ती-दुश्मनी तक सोशल मीडिया पर होने लगी और साथ में साइबर अपराध भी।
महीने में एक या दो खतों के लिए जो इंतजार रहता था, उसमें शामिल था सच्चा, प्रेम, स्नेह, आत्मीयता, वात्सल्य, शृंगार, जिसमें दिखावटी जरा भी नहीं था, सब कुछ सहज, निर्मल था। तार आते थे तो मन शंका से भर जाता था। मन में वे सब लोग दौड़ जाते थे जो वृद्ध हो चले थे। कहीं किसी अनहोनी के लिए तार हाथ में लेते तो पता चलता छोटे का साक्षात्कार के लिए बुलावा आया है। मन शंका से उठकर तुरंत उमंगों में बहने लगता।
ये उमंगें ही जीवन के वे पल थे जो मन में खुशियों की फसल बो जाते और फिर इंतजार करते कि छोटे की नौकरी लगने का कोई तार आएगा। रोज इंतजार रहता डाकिए बाबू का। दूर कहीं दिखता तो पेट में अलग प्रकार की हरकत होती। डाकिया बगैर कुछ कहे निकलता तो मन कुछ पल के लिए ठंडा पड़ जाता, लेकिन फिर कल आने की उम्मीद लहलहा जाती। इस इंतजार के सिलसिले में जो मजा रहता था वह मंजिल मिल जाने के बाद उतना नहीं रहता। इसलिए कहते हैं कि यात्रा, मंजिल से ज्यादा महत्त्वपूर्ण है। खतों को लेकर दीवानगी ऐसी रहती थी कि हर एक खत सलीके से रखा होता था एक फाइल में, दिल के करीब। बेटी अपने ससुराल में उस खत को बार-बार पढ़ती, जिसमें मां ने उसे शिद्दत से याद किया होता।
प्रेम पत्रों का मायाजाल ही अलग था। रहते कहीं थे और पता और कहीं का देते थे। इस तरह हमेशा एक तीसरा होता था दो प्रेमियों के बीच। कोई सहेली या दोस्त। यों प्रेम भी ऐसे अनजाने सहायकों के माध्यम से परवान चढ़ता था। बुजुर्ग डाकिया बाबू इन हरकतों से बनते अनजान थे, पर उन्होंने यों ही अपने बाल धूप में सफेद नहीं किए होते थे। प्रेम पर पहले पहरे बहुत थे और ऐसे में खतों के आदान-प्रदान के लिए अतिरिक्त कुशलता की आवश्यकता होती थी। किसी तरह मंजिल तक पहुंचे खतों के अलावा कई बार संदेशवाहक भी दोनों को साथ लाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा करते थे।
कई खत इतनी देर कर देते कि आंसू में बदल जाते। खतों के बैरंग होने की अपनी कहानी है। देरी से पहुंचने के लिए बैरंग रखे जाते थे और जहां खत देना होता, उसे पंजीकृत खत की भांति हाथ में देकर पैसा वसूल किया जाता। बैरंग खतों का गणित इतना निराला था कि पता चल जाता कि किसका है। इसी तरह, पोस्टकार्ड का कोना फटा होता तो उसे घर के अंदर नहीं लाया जाता, उसमें कोई मनहूस खबर ही लिखी होगी।
कई बार तो प्रेमी भी जीते जी पोस्टकार्ड कोना फाड़कर भेज देते कि कम लिखे को ज्यादा समझना, अब हमें भूल जाना, जमाना नहीं मिलने देगा। इस तरह मोहब्बत की मौत भी अभिव्यक्त होती थी। कई तो दूसरों की शेरो-शायरी लिखते-लिखते अच्छे-खासे शायर बन जाते थे। किसी खत पर लिखा होता, 'खत जो लिखा मैंने इंसानियत के पते पर, डाकिया ही चल बसा वो शहर ढूंढ़ते-ढूंढ़ते।'