Sedition Law : क्या 152 साल पुराने राजद्रोह कानून को खत्म कर देना चाहिए?

अदालत ने तब ये भी कहा था कि इस धारा के इस्तेमाल से प्रेस की आजादी पर पड़ने वाले प्रभाव के मद्देनजर भी इसकी व्याख्या की जानी जरूरी है

Update: 2022-05-11 14:34 GMT
प्रवीण कुमार | 
फिल्म शोले का एक डायलॉग- "हम अंग्रेजों के जमाने के जेलर हैं." 152 साल पुराने राजद्रोह कानून (Sedition Law) पर भी इस रूप में फिट बैठता है कि "हम अंग्रेजों के जमाने के कानून हैं." और शायद इसीलिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी (PM Narendra Modi) भी औपनिवेशिक काल के बोझ को उतारने का जिक्र कर देश को ऐसे कानूनों से मुक्ति दिलाना चाहते हैं. पिछले कई वर्षों से इस बात पर बहस चल रही थी कि राजद्रोह कानून को खत्म कर देना चाहिए. पिछले साल की ही तो बात है, जब सुप्रीम कोर्ट (Supreme Court) ने दो टीवी चैनलों के खिलाफ राजद्रोह के आरोप में आंध्र प्रदेश पुलिस की दंडात्मक कार्रवाई पर रोक लगाते हुए कहा था कि राजद्रोह कानून से संबंधित आईपीसी की धारा 124ए की व्याख्या करने के आवश्यकता है.
अदालत ने तब ये भी कहा था कि इस धारा के इस्तेमाल से प्रेस की आजादी पर पड़ने वाले प्रभाव के मद्देनजर भी इसकी व्याख्या की जानी जरूरी है. लग तो तभी गया था कि शीर्ष अदालत इस कानून को लेकर काफी गंभीर है. लेकिन एडिटर्स गिल्ड ऑफ इंडिया, टीएमसी सांसद महुआ मोइत्रा समेत पांच पक्षों की तरफ से दायर याचिकाओं ने आग में घी का काम किया. और फिर कई दौर की सुनवाई के बाद आज यानी 11 मई 2022 को सुप्रीम कोर्ट ने एक ऐतिहासिक आदेश में कहा कि भारतीय दंड संहिता की धारा 124A के तहत 152 साल पुराने राजद्रोह कानून (Sedition Law) को तब तक स्थगित रखा जाए जब तक कि केंद्र सरकार इस प्रावधान पर पुनर्विचार नहीं करती है.
कानून को लेकर केंद्र का रवैया स्पष्ट नहीं
राजद्रोह कानून खत्म करने को लेकर केंद्र सरकार का रवैया स्पष्ट नहीं है. एक तरफ पीएम मोदी इस बात को कह चुके हैं कि औपनिवेशिक काल के बोझ को उतारने का वक्त आ गया है और इसका हवाला सीजेआई एन.वी. रमना ने भी दिया, वहीं दूसरी तरफ सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई के दौरान केंद्र सरकार के सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने कहा कि राष्ट्रहित और देश की एकता व अखंडता को ध्यान में रखते हुए केंद्रीय कार्यपालिका ने फैसला लिया है कि इस कानून से दंड का प्रावधान नहीं हटाया जाएगा. सुनवाई के दौरान केंद्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट की बेंच से बार-बार आग्रह किया कि कानून पर रोक नहीं लगाया जाए. याद करें तो जुलाई 2019 में राज्य सभा में एक सवाल के जवाब में गृह मंत्रालय ने साफतौर पर कहा था कि "देशद्रोह के अपराध से निपटने वाले आईपीसी के तहत प्रावधान को खत्म करने का कोई प्रस्ताव नहीं है. सरकार ने तब ये भी कहा था कि राष्ट्रविरोधी, अलगाववादी और आतंकवादी तत्वों का प्रभावी तरीके से मुकाबला करने के लिए राजद्रोह कानून के प्रावधान को बनाए रखना जरूरी है." मतलब साफ है कि केंद्र सरकार की मंशा औपनिवेशिक काल के राजद्रोह कानून को बनाए रखने में है न कि खत्म करने में.
आखिर क्यों खत्म होना चाहिए राजद्रोह कानून?
152 साल पुराने ब्रिटिशकालीन राजद्रोह कानून को खत्म करने के पीछे अलग-अलग तथ्य और तर्क हैं. पिछले साल इस मामले पर सुनवाई करते हुए चीफ जस्टिस भी कह चुके हैं कि "चूंकि ये औपनिवेशिक कानून है और स्वतंत्रता आंदोलन को दबाने के लिए बनाया गया था. ये वही कानून है जो महात्मा गांधी और बाल गंगाधर तिलक को चुप कराने के लिए इस्तेमाल हुआ था. तो आजादी के 75 साल बाद भी देश में ऐसे कानून की जरूरत है क्या?" तथ्यों व तर्कों के आधार पर समझा जाए तो आईपीसी की 124ए नाम की कोई धारा होनी ही नहीं चाहिए. चाहे लॉ कमीशन ऑफ इंडिया के परामर्श पत्र की बात करें, एनसीआरबी के आंकड़े का विश्लेषण करें या कानूनी विशेषज्ञों की राय को समझें, कोई ऐसी वजह नहीं दिखती कि इस राजद्रोह कानून को बनाए रखा जाए.
कानून के खिलाफ विधि आयोग का परामर्श पत्र
भारतीय विधि आयोग यानी लॉ कमीशन ऑफ इंडिया ने साल 2018 में एक परामर्श पत्र जारी किया था जिसमें राजद्रोह कानून को लेकर आगे का रास्ता क्या होना चाहिए इस बारे में बताया गया था. इस पत्र में लॉ कमीशन ने कहा कि "लोकतंत्र में एक ही गीत की किताब से गाना देशभक्ति का पैमाना नहीं हो सकता है. लोगों को अपने तरीके से अपने देश के प्रति स्नेह दिखाने की आजादी होनी चाहिए." लॉ कमीशन ने कहा कि इस तरह के विचारों में प्रयोग की जाने वाली अभिव्यक्ति कुछ के लिए कठोर और अप्रिय हो सकती है लेकिन ऐसी हर बात को राजद्रोह तो नहीं कहा जा सकता है. लॉ कमीशन ने यह भी कहा कि "धारा 124ए केवल उन मामलों में लागू की जानी चाहिए जहां किसी भी कार्य के पीछे की मंशा सार्वजनिक व्यवस्था को बाधित करने या हिंसा और अवैध साधनों से सरकार को उखाड़ फेंकने की हो.
अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार के हर गैर-जिम्मेदाराना प्रयोग को राजद्रोह नहीं कहा जा सकता है और न ही सरकार की नीतियों से मेल न खाने वाले विचार व्यक्त करने के लिए किसी पर राजद्रोह की धारा लगाई जानी चाहिए." लॉ कमीशन का कहना था कि यूनाइटेड किंगडम ने दस साल पहले ही राजद्रोह कानूनों को समाप्त कर दिया था और कहा था कि वो देश ऐसे कठोर कानूनों का उपयोग करने का उदाहरण नहीं बनना चाहता. पत्र में लॉ कमीशन ने पूछा कि कानून की धारा 124ए को बनाये रखना कितना उचित होगा जिसे अंग्रेजों ने भारतीयों पर अत्याचार करने के लिए एक उपकरण के तौर पर उपयोग किया था.
राजद्रोह की पोल खोलते एनसीआरबी के आंकड़े
नेशनल क्राइम रिकार्ड्स ब्यूरो के आंकड़ों की बात करें तो 2015 से 2020 के दौरान आईपीसी की धारा 124ए के तहत राजद्रोह के कुल 356 मामले दर्ज हुए, जिसमें करीब 548 लोगों को हिरासत में लेकर पूछताछ की गई. हैरानी की बात यह है कि इन 6 वर्षों में सिर्फ 12 गिरफ्तार लोगों पर ही राजद्रोह का अपराध साबित हो पाया. एनसीआरबी के आंकड़े दिखाते हैं कि राजद्रोह के अधिकतर मामलों में दोषी माना जाना तो दूर चार्जशीट तक नहीं दायर हो पाती. अक्सर ये मामले बड़े जोशो-खरोस के साथ दर्ज किए जाते हैं लेकिन जांच एजेंसियों के पास इसके कोई सबूत नहीं होते. एक आंकड़ों के अनुसार, नागरिक संशोधन कानून के विरोध-प्रदर्शन में शामिल 25 लोगों, हाथरस गैंग रैप के बाद विरोध प्रदर्शन कर रहे 22 लोगों और पुलवामा हमले के बाद 27 अलग-अलग लोगों के ऊपर राजद्रोह कानून के तहत मुकदमे दर्ज किये गए हैं.
पिछले एक दशक में जो 405 राजद्रोह के केस दर्ज किए गए हैं उनमें से सबसे ज़्यादा 96 प्रतिशत केस 2014 के बाद के हैं. अगर मामले दर्ज हुए, गिरफ्तारी हुई, चार्जशीट भी दायर हुई और आरोप साबित करने के लिए पुलिस कोर्ट में पर्याप्त सबूत पेश नहीं कर पाती है तो इसका मतलब तो यही निकलता है कि राजनीतिक सत्ता के दबाव में पुलिस झूठे आरोप लगाकर लोगों को फंसाती है. दरअसल यह कानून मूल रूप से लोगों में भय पैदा करता है और सत्ता के खिलाफ असंतोष को दबाने की कोशिश करता है.
अभिव्यक्ति की आजादी और लोकतंत्र
लोकतंत्र में नागरिकों को सरकार की नीतियों के खिलाफ रचनात्मक तरीके से किसी भी राजनीतिक या सामाजिक मंच से बहस व विमर्श आदि द्वारा अपने विचारों को अभिव्यक्त करने की आजादी प्राप्त है. लेकिन राजद्रोह कानून की आड़ में सरकारें ऐसे नागरिकों के विरोध अथवा असंतोष की आवाज को दबाने में सफल हो जाती है. हाल में ऐसी कई घटनाएं इस बात की गवाह हैं जहां सरकार इस राजद्रोह कानून की मदद से अपने खिलाफ उठने वाली विरोध के स्वर को दबाने मे सफल रही है. आप अगर पड़ताल करेंगे तो पाएंगे कि हाल के वर्षों में जितने भी पत्रकारों के खिलाफ राजद्रोह का मामला दर्ज किया गया उनमें से एक भी पत्रकार ने हिंसक कृत्य नहीं किया फिर भी उन्हें गिरफ्तार किया गया.
जब राजद्रोह कानून के आधार पर किसी पत्रकार या मीडिया समूह को अपनी बात रखने से रोका जाता है तो इससे भी लोकतंत्र पर बट्टा लगता है. इससे भी गंभीर बात यह है कि राजद्रोह कानून की वजह से सरकार की विश्वसनीयता भी घटती है जो प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष तौर पर देश की वैश्विक छवि को भी नुकसान पहुंचाता है. सुप्रीम कोर्ट में वरिष्ठ वकील और ह्यूमन राइट्स लॉ नेटवर्क के संस्थापक कॉलिन गोंसाल्विस का तो साफतौर पर कहना है कि आईपीसी की 124ए नाम की कोई धारा होनी ही नहीं चाहिए. गोंसाल्विस कहते हैं कि इस तरह का प्रावधान जिसे दुनिया के अन्य हिस्सों में कानून की किताब से हटा दिया गया है, उसे भारत में भी कानून की किताब का हिस्सा नहीं होना चाहिए.
अब सवाल यह उठता है कि राजद्रोह कानून को लेकर सुप्रीम कोर्ट ने तो अपना काम कर दिया है. बहुत संभव है कल को यह कानून खत्म भी हो जाए. लेकिन क्या इस कानून को पूरी तरह से हटा देना सही होगा? कानून का विरोध इसलिए हो रहा है क्योंकि अपनी राजनीतिक सत्ता को बचाने के लिए सभी सरकारें राजद्रोह कानून का दुरूपयोग करती हैं. चिंता इस बात को लेकर है कि नागरिकों की व्यक्तिगत स्वतंत्रता, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता एक सभ्य और सुसंस्कृत लोकतंत्र की पहचान होती है और जब यह पहचान डेंजर जोन में आ जाए तो फिर क्या? दूसरी तरफ अगर कानून को खत्म कर दिया गया तो फिर वाकई अगर राजद्रोह की श्रेणी में कोई अपराध सामने आता है तो फिर क्या होगा? लिहाजा जरूरत इस बात की है कि न्यायपालिका और विधायिका मिलकर इस औपनिवेशिक कानून की समीक्षा करे और कुछ संशोधनों के जरिये इसमें ऐसे प्रावधान शामिल किए जाएं ताकि राजनीतिक सत्ता अपनी सत्ता को बचाने के इसे टूलकिट के रूप में इस्तेमाल न कर पाए. तभी लोकतंत्र की साख बचेगी, मजबूत होगी सरकार की साख और कामयाब हो पाएगा अभिव्यक्ति की आजादी का नारा.
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं, आर्टिकल में व्यक्त विचार लेखक के निजी हैं.)
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