ज्ञान परंपरा में वैज्ञानिकता
क्या यह आश्चर्यजनक नहीं है कि जिस दिशा में आधुनिक विज्ञान केवल पिछली शताब्दी में ही विचार कर सका, उसकी उपस्थिति भारत में सदियों से न केवल चिंतन में थी, बल्कि वह विज्ञान के अनेक क्षेत्रों में ऐतिहासिक योगदान भी कर रही थी।
जगमोहन सिंह राजपूत: क्या यह आश्चर्यजनक नहीं है कि जिस दिशा में आधुनिक विज्ञान केवल पिछली शताब्दी में ही विचार कर सका, उसकी उपस्थिति भारत में सदियों से न केवल चिंतन में थी, बल्कि वह विज्ञान के अनेक क्षेत्रों में ऐतिहासिक योगदान भी कर रही थी। वैचारिकता को व्यावहारिकता में परिवर्तित कर उन्होंने गणित और विज्ञान की ठोस नींव रखी।
पृथ्वी पर मनुष्य का जीवन प्रकृति पर निर्भर है। प्रकृति न केवल मनुष्य और अन्य जीवधारियों की आवश्यकताओं की पूर्ति करती है, बल्कि वह जीवन के आध्यात्मिक तत्व की ओर भी अग्रसर करती है। मानवमात्र को बिना किसी भेदभाव के अनेक जन्मजात वरदान प्रकृति से मिले हैं, जिनमें विचार की शक्ति और संकल्पना की शक्ति सबसे पहले आते हैं। इन दैवीय वरदानों के आधार पर मानव सभ्यताएं विकसित हुर्इं, मनुष्य ने अपने प्रयत्नों से ज्ञान, विज्ञान, मनोविज्ञान, दर्शन, स्वस्थ जीवन जैसे क्षेत्रों में प्रवीणता हासिल की और आगे बढ़ता गया।
बाहरी जगत उसे अपने हर पक्ष को जानने के लिए प्रेरित करता रहा। लेकिन जैसे-जैसे विचार और संकल्पनाओं ने इस जगत को पहचानने में सहायता की, उसी तरह जीवन कहां से क्यों, और जीवन के बाद क्या जैसे प्रश्न भी उभरे। भारत की प्राचीन सभ्यता के विकास की विशेषता रही कि यहां के जिज्ञासुओं, गुरुओं, ऋषियों, मनीषियों और तपस्वियों ने केवल बाहर तो देखा ही, मनुष्य के भीतर-अंतरतम तक को समझने का भी प्रयास किया। उन्होंने उस मूल चेतना को पहचाना जो मनुष्य मात्र की एकता को स्थापित करती थी। ज्ञान और दर्शन में लगातार परिश्रमपूर्वक आगे बढ़ते रहने की प्रवृत्ति तथा हर उपलब्धि को और गहराई तक जानने के लिए अध्ययन, मनन, चिंतन में वे उत्कृष्टता प्राप्त करते रहे। उन्होंने मनुष्य और प्रकृति की परस्परता को जाना और इस पारस्परिकता को बनाए रखने के लिए मनुष्य के उत्तरदायित्व को स्पष्ट रूप से निर्धारित किया।