विज्ञान शिक्षा और लैंगिक असमानता
कोई भी अर्थव्यवस्था तब तक विकास नहीं कर सकती, जब तक कि उसमें आधी आबादी की संपूर्ण भागीदारी न हो। इसलिए यह आवश्यक है कि महिलाओं के शिक्षण का स्वरूप बदला जाए, ताकि पारंपरिक लैंगिक पूर्वाग्रह को विश्व अर्थव्यवस्था के अगले दौर में पनपने से रोका जा सके।
ऋतु सारस्वत: कोई भी अर्थव्यवस्था तब तक विकास नहीं कर सकती, जब तक कि उसमें आधी आबादी की संपूर्ण भागीदारी न हो। इसलिए यह आवश्यक है कि महिलाओं के शिक्षण का स्वरूप बदला जाए, ताकि पारंपरिक लैंगिक पूर्वाग्रह को विश्व अर्थव्यवस्था के अगले दौर में पनपने से रोका जा सके। इस तथ्य के बावजूद कि हम पुरुषों और महिलाओं दोनों के लिए एक अधिक समान दुनिया बनाने का लंबा सफर तय कर चुके हैं, लैंगिकता का मुद्दा आज भी प्रासंगिक बना हुआ है।
इससे जुड़े पूर्वाग्रहों ने दुनिया के सामने अवांछित चुनौतियां खड़ी कर रखी हैं। विशेषकर बात जब महिलाओं की हो तो इनसे निपटना और भी मुश्किल हो जाता है। महिला सशक्तिकरण बीती शताब्दी से ही चर्चा और मंथन का विषय रहा है। सशक्तिकरण का स्वरूप कोई भी हो, उसकी बुनियाद शिक्षा के धरातल पर ही खड़ी होती है। शिक्षा का प्रत्यक्ष संबंध आर्थिक संबलीकरण से है। आत्मनिर्भरता 'नेतृत्व' और 'निर्णायक क्षमता' को बलवती करती है, जो सशक्तिकरण को प्रबल करने का सशक्त साधन है।
शिक्षा और रोजगार का गहरा संबंध है। चूंकि हर काल में समाज और देश की आवश्यकता के अनुरूप रोजगार के स्वरूप में परिवर्तन होता रहता है। इसलिए शिक्षा की प्रासंगिकता भी तभी होती है जब वह रोजगारोन्मुखी हो। देश में चौथी औद्योगिक क्रांति ने दस्तक दे दी है। अब भारत को लगभग पांच करोड़ तकनीक सक्षम कामगार तैयार करने होंगे। परंतु एक यक्ष प्रश्न यह है कि क्या इसमें महिलाएं भी अपनी जगह बना पाएंगी? क्योंकि भारत ही नहीं, दुनिया भर में महिलाओं की संभावनाएं, बुद्धिमत्ता और सृजनात्मकता भारी असमानता और पूर्वाग्रहों से घिरी हुई हैं। संयुक्त राष्ट्र की रिपोर्ट के मुताबिक भविष्य में नब्बे फीसद नौकरियां ऐसी होंगी, जिसमें किसी न किसी रूप में सूचना और संचार तकनीक का ज्ञान जरूरी होगा।
स्टेम (विज्ञान, प्रौद्योगिकी, इंजीनियरिंग और गणित) से जुडेÞ क्षेत्रों में बड़ी संख्या में नौकरियों के अवसर पैदा हो रहे हैं। पर इस वास्तविकता के साथ इस सत्य को भी अनदेखा नहीं किया जा सकता कि विश्व भर में स्टेम विषयों में सभी स्तरों पर एक लैंगिक विषमता की स्थिति कायम है। सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक प्रगति के बावजूद दुनिया का ऐसा कोई कोना नहीं जहां व्यावहारिक स्तर पर लैंगिक रूढ़िवादिता जटिल रूप से मौजूद न हो। इस तथ्य की पुष्टि उन आंकड़ों से होती है जो यह बताते हैं कि दुनिया के दो तिहाई से अधिक देशों में विज्ञान, प्रौद्योगिकी, इंजीनियरिंग और गणित जैसे विषयों में लड़कियों की हिस्सेदारी केवल पंद्रह फीसद है।
आमतौर पर यह रूढ़िगत मान्यता व्याप्त है कि कुछ खास कामों के लिए पुरुष ही योग्य होते हैं और तथाकथित रूप से विज्ञान और गणित जटिल विषय हैं, इसलिए यह महिलाओं के लिए नहीं हैं। जबकि यह सच नहीं है। विज्ञान एक 'विशिष्ट लिंग' के लिए नहीं है। लैंगिक अंतर विज्ञान के कारण नहीं, बल्कि सामाजिक मानदंडों की उपज है।
अमेरिका की फ्लोरिडा स्टेट यूनिवर्सिटी में हुए एक शोध के मुताबिक लगातार ऐसा तर्क दिया जाता जा रहा है कि उच्च शिक्षा में विज्ञान विषयों में लैंगिक विषमता योग्यता को दर्शाती है, लेकिन जब लगातार छह वर्षों तक दसवीं कक्षा के विद्यार्थियों की गणित में योग्यता की परीक्षा ली गई तो लड़के और लड़कियों ने समान रूप से प्रदर्शन किया। इस समानता के बावजूद लड़के खुद को गणित में बेहतर मानते हैं, जबकि लड़कियां स्वयं को कमतर मानती हैं। 'फ्रंटियर्स इन साइकोलाजी' में प्रकाशित यह शोध उस तथ्य की पुष्टि करता है जब निरंतर किसी व्यक्ति या समूह विशेष की क्षमता पर अविश्वास किया जाता है तो वह स्वयं ही यह स्वीकारने लगता है कि वह अक्षम है।
चार्ल्स डार्विन ने अपनी किताब 'द डिसेंट आफ मैन एंड सलेक्शन इन रिलेशन टु सेक्स' में लिखा था कि स्त्रियों और पुरुषों की क्षमता में बहुत अंतर होता है और पुरुष हर क्षेत्र में स्त्रियों के मुकाबले अधिक सफलता हासिल करते हैं। उनके मुताबिक इस अंतर का कारण स्त्रियों का पुरुषों की तुलना में जैविक रूप से कमतर होना है। लेकिन क्या यह तर्कसंगत है कि बिना किसी तथ्यात्मक और वैज्ञानिक सत्यापन के डार्विन का यह तर्क स्वीकार किया जाए। डार्विन की टिप्पणी उन सामाजिक परिस्थितियों की अवहेलना की परिणति है, जहां स्त्रियों को पुरुषों की तुलना में कम अवसर प्रदान किए गए और उनकी स्वतंत्रता को भी नियंत्रित किया गया।
आर्गनाइजेशन फार इकोनामिक कोआपरेशन एंड डवलपमेंट की ओर से साठ देशों में किए गए एक अध्ययन में इस बात का खुलासा हुआ कि अभिभावक भी लड़कियों को विज्ञान विषय लेने के लिए हतोत्साहित करते हैं। एक सत्य और भी है जिससे इनकार नहीं किया जा सकता, वह यह कि महिलाओं को कमतर दिखाने की प्रवृत्ति और विज्ञान को पुरुषों का विषय मानने वाले शोध भी पुरुषों द्वारा ही किए जाते रहे हैं।
ब्रिटिश विज्ञान पत्रकार एंजेला सैनी ने 'इनफीरियर: हाउ साइंस गाट वीमेन रांग एंड द न्यू रिसर्च दैट्स रीराइटिंग द स्टोरी' में लिखा भी है कि हम हमेशा से विज्ञान को तटस्थ मानते हैं, लेकिन वास्तविकता यह है कि विज्ञान अधिकांशत पूर्वाग्रहों से भरा होता है क्योंकि वैज्ञानिक स्वयं पूर्वाग्रहों का शिकार होते हैं। जीवविज्ञान का कोई भी शोध यह सिद्ध नहीं कर सका है कि महिलाएं वह नहीं कर सकतीं, जो एक पुरुष कर सकता है।
चूंकि विज्ञान के क्षेत्र पर पुरुषों का प्रभुत्व है, इसलिए यह तथ्य निरंतर स्थापित करने की चेष्टा की जाती है कि महिलाएं विज्ञान की जटिलताओं के साथ सहज नहीं रह सकती। इस लिंगभेद को तोड़ना आसान नहीं है, क्योंकि हम में से अधिकांश के मस्तिष्क में बालपन से ही इस तरह के लिंगभेद वाली मानसिकता भर दी जाती है। एक अध्ययन के मुताबिक पांच वर्ष के बच्चे में भी यह समझ विकसित हो जाती है कि उसके लिंग (लड़का / लड़की) से क्या व्यवहार अपेक्षित है।
लैंगिक पूर्वाग्रह से लड़ना कभी भी आसान नहीं रहा। लेकिन प्रारंभिक शिक्षा के स्तर पर अगर शिक्षक और अभिभावक विज्ञान और गणित जैसे विषयों में लड़कियों की रुचि जागृत करें, तो संभवत स्थितियां बदल सकती हैं। यह तय है कि शिक्षकों के प्रशिक्षण में अभिनव और लैंगिक भिन्नताओं और जरूरतों को समझने वाली प्रौद्योगिकी में निवेश वर्तमान रुझान को बदल सकता है। दरअसल, यह पूरा प्रयास सामाजिक सोच के बदलाव के आग्रह पर निर्भर करता है। इसके लिए एक ऐसे वातावरण के निर्माण की आवश्यकता है जहां लड़कियां भविष्य की अग्रणी वैज्ञानिक व नवाचारी बनें और सर्वजन के लिए एक न्याय संगत और टिकाऊ भविष्य को आकार दें।
सच तो यह है कि कोई भी अर्थव्यवस्था तब तक विकास नहीं कर सकती, जब तक कि उसमें आधी आबादी की संपूर्ण भागीदारी न हो। इसलिए यह आवश्यक है कि महिलाओं के शिक्षण का स्वरूप बदला जाए, ताकि पारंपरिक लैंगिक पूर्वाग्रह को विश्व अर्थव्यवस्था के अगले दौर में पनपने से रोका जा सके। शैक्षिक प्रारूपों और उसमें निहित व्यवस्थागत बदलाव जहां अपनी भूमिका निभाएंगे, वहीं लड़कियों में आत्मविश्वास भी पैदा करेंगे।
ऐसी एक पहल हाल में वाशिंगटन डीसी के 'स्मिथ सोनियन म्यूजियम' में विज्ञान के क्षेत्र में महान योगदान देने वाली महिलाओं पर एक प्रदर्शनी आयोजित करके की गई। महिलाओं को प्रेरित करने के लिए यह प्रदर्शनी अमेरिका में विभिन्न स्थानों पर लगाने की भी योजना है, ताकि लोग जान सकें कि विज्ञान के क्षेत्र में मैरी क्यूरी जैसी महिलाएं भी हैं जिन्होंने अपना अभूतपूर्व योगदान दिया है।
हमारे लिए अब यह समझना आवश्यक हो जाता है कि विज्ञान और तकनीक से जुड़े विषयों और करियर विकल्प में महिलाओं और लड़कियों की संख्या बढ़ाना बेहद अहम है। इससे टिकाऊ विकास लक्ष्यों को हासिल करने में मदद मिल सकती है। वरना विज्ञान, प्रौद्योगिकी, इंजीनियरिंग और गणित में महिलाओं की मौजूदगी के बिना दुनिया की रूपरेखा पुरुषों द्वारा पुरुषों के लिए ही तय की जाती रहेगी।