यूपी की सियासत में बीजेपी और सपा के बीच चल रहा है शह और मात का खेल
यूपी की सियासत में बीजेपी और सपा
संकेत उपाध्याय का कॉलम:
शुरुआती चरणों के रुझान से अखिलेश यादव प्रसन्न दिखते हैं। कहते हैं यह साफ हो गया कि बीजेपी का सफाया होने जा रहा है। उधर बीजेपी का मानना है कि यह मुंगेरीलाल के सपने हैं। लेकिन नेता लोग चुनावी मौसम में यह सब तो बोलेंगे ही। दरअसल पश्चिम यूपी के चुनाव में बीजेपी ने हर बार ध्रुवीकरण का प्रयास किया। हमने 80 बनाम 20 की बात सुनी, उससे पहले लुंगी वाले, जाली टोपी वाले और अब्बा जान भी सुना।
प्रथम चरण की वोटिंग वाली सुबह ही यह भी सुना कि बीजेपी जिताओ नहीं तो कश्मीर, केरल या बंगाल न बन जाए यूपी। ये बयान स्वयं मुख्यमंत्री के थे। पर एक रोचक चीज होती दिखाई दे रही है। अखिलेश यादव इन जैसे बयानों का जवाब बदले में सवाल पूछकर दे रहे हैं। ध्रुवीकरण की किसी भी बात पर वे बीजेपी से उलझ नहीं रहे हैं। सपा प्रवक्ता भी हिंदू-मुस्लिम वाली डिबेट में बीजेपी से बहस नहीं कर रहे।
सपा को समझ आ गया है कि ऐसी बहस से सिर्फ बीजेपी को फायदा पहुंचेगा। तो ध्रुवीकरण की कोई भी बात सपा तुरंत बेरोजगारी पर ले आती है। हिजाब वाले मुद्दे को बीजेपी के तमाम नेताओं ने तूल देने की कोशिश की। लेकिन अखिलेश की चुनावी रैलियों में इसका कोई जिक्र नहीं हुआ। यहां तक कि देवबंद और अलीगढ़ में कुछ मुसलमानों का यह भी मानना है कि अखिलेश की चुप्पी गलत है।
मुज़फ्फरनगर से एक भी मुसलमान प्रत्याशी न खड़ा करने पर भी रोष था। लेकिन इतना नहीं कि वोट न दें। तो अखिलेश का यह दांव सफल होता दिख रहा है। सौ बात की एक बात यह है कि ध्रुवीकरण की राजनीति का फार्मूला अखिलेश ने समझ लिया है। इस मामले में वे परिपक्व हो गए हैं। इस बात का इल्म बीजेपी को भी है। इसलिए अब जमीन पर बीजेपी ने अपना दूसरा अटैक तेज कर दिया है, जहां ध्रुवीकरण के बोल भी बीच-बीच में आएंगे।
बीजेपी को महसूस हो गया है कि अखिलेश की पार्टी की छवि पर चोट देने का एक और अवसर उनके पास है। ऐसा अवसर जो सबके दिल को छूता है- कानून व्यवस्था। बीजेपी के प्रत्याशी अपनी हर स्पीच में लगातार इस बात का जिक्र कर रहे हैं कि सपा आई मतलब कानून-व्यवस्था गड़बड़ाई। इसको यूपी सरकार में ही एक मंत्री ने मुझे समझाया। उन्होंने कहा कि सपा प्रत्याशियों की तुलना अगर आप बीजेपी प्रत्याशियों से करें तो हमारे कैंडिडेट अमूमन हलके निकलेंगे।
भारी बलवान न होने की वजह से चुनाव मोदी और योगी के चेहरे पर लड़ा जाएगा। चूंकि बीजेपी के विधायक और प्रत्याशी बाहुबली छवि के नहीं हैं और सरकारी फैसले एकदम केंद्रित रहते हैं, इसलिए कोई भी विधायक प्रशासन पर दबाव डालने में सक्षम नहीं है। इस वजह से विधायक स्तर पर ट्रांसफर, पोस्टिंग, आपराधिक छवि के लोगों का बीच-बचाव और प्रशासन और पुलिस के काम में हस्तक्षेप भी बंद है। इसका फायदा यह है कि स्थानीय स्तर पर रोजमर्रा के जीवन में प्रशासन को कानून-व्यवस्था काबू में रखने में दिक्कत नहीं होती।
जिन मंत्री से मैं बात कर रहा था उनका मानना है कि आम आदमी इसको अच्छी कानून-व्यवस्था के रूप में ही देखेगा। भले ही जनता विधायक को किसी लायक न समझे लेकिन कानून-व्यवस्था का लाभ उठा सकती है। कानून व्यवस्था की बात पर अखिलेश और उनकी पार्टी की छवि गुंडई और बदमाशी वाली रही है- चाहे फिर उनके खुद के कार्यकाल में हुए दंगे हों या उनके पिता मुलायम सिंह यादव के समय की बात हो।
अखिलेश यह नहीं मानते, लेकिन राजनीति छवि का खेल है। और अगर बीजेपी यह छवि बनाने में सक्षम हो जाती है, तो हिंदू-मुसलमान की राजनीति नहीं, यह अखिलेश के लिए एक नई चुनौती बन जाएगी। इसका जवाब अखिलेश को लगातार देते रहना होगा और वह अपने आप को तैयार भी कर रहे हैं- बीजेपी में आपराधिक गतिविधियों की बात उठाकर, अजय मिश्र टेनी के बेटे की रिहाई की बात को उठाकर और एनसीआरबी डाटा का हवाला देकर।
वे जनता के सामने यह कहकर जाने की कोशिश कर रहे हैं कि कानून-व्यवस्था ठीक रखने की बात बीजेपी का नया प्रोपगैंडा है। राजनीति में सही छवि कितनी जरूरी होती है इसके बारे में एक किस्सा याद आया। 2007 में जब मुलायम सरकार से कानून-व्यवस्था पर कई सवाल पूछे गए तो उन्होंने एनसीआरबी डाटा का हवाला देते हुए एक एड कैंपेन चालू कर दिया। अमिताभ बच्चन टीवी पर आकर बोल गए- यूपी में दम है, क्योंकि जुर्म यहां कम है। उसी साल मुलायम चुनाव हार गए।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)