विवेक की बलि

यह समझना मुश्किल होता जा रहा है कि लोगों में असहनशीलता और हिंसा की प्रवृत्ति इतनी कैसे बढ़ रही है कि जिन मामलों में उन्हें कानून की मदद लेनी चाहिए, उनका निपटारा भी वे खुद करने लगते हैं और इसका नतीजा अक्सर किसी की मौत के रूप में सामने आता है।

Update: 2022-09-14 04:39 GMT

Written by जनसत्ता; यह समझना मुश्किल होता जा रहा है कि लोगों में असहनशीलता और हिंसा की प्रवृत्ति इतनी कैसे बढ़ रही है कि जिन मामलों में उन्हें कानून की मदद लेनी चाहिए, उनका निपटारा भी वे खुद करने लगते हैं और इसका नतीजा अक्सर किसी की मौत के रूप में सामने आता है। दिल्ली में जिस तरह एक व्यक्ति को मोबाइल फोन चोरी करने के आरोप में कुछ लोगों ने पीट-पीट कर मार डाला, वह इसका ताजा उदाहरण है।

बताया जा रहा है कि जिस युवक को पीट-पीट कर मार डाला गया, वह रात को एक कारखाने में घुसा और मोबाइल फोन चोरी कर लिया। उसे चोरी करते वहां उपस्थित एक व्यक्ति ने देख लिया और उसे पकड़ कर कुछ लोगों के साथ मिल कर पीटना शुरू कर दिया। पहले उसके बाल काटे और फिर इतना पीटा कि उसने वहीं दम तोड़ दिया। उसके शव को सड़क कर फेंक दिया गया। पुलिस ने सीसीटीवी की मदद से आरोपियों का पता लगाया। हालांकि हमारे समाज में यह आम प्रवृत्ति है कि किसी चोर के पकड़े जाने पर लोग खुद उसे पीट-पीट कर सजा देने का प्रयास करते हैं। मगर दिल्ली में हुई घटना लोगों में जड़ें जमा चुकी हिंसा का परिचायक है।

अनेक ऐसे उदाहरण हैं, जब लोग मामूली बात पर कहा-सुनी होने या छोटी-मोटी आपराधिक घटनाओं पर भी खुद इंसाफ करने की नीयत से हिंसा का सहारा लेते हैं। ऐसी भी अनेक घटनाएं देखी गई हैं, जब किसी की हत्या करके अफसोस के बजाय कई लोग गर्व का अनुभव करते हैं। मानो किसी की जान ले लेना अब खेल होता गया है। इसका क्या अर्थ लगाया जाना चाहिए? क्या लोगों में पुलिस और न्याय व्यवस्था पर भरोसा कमजोर हुआ है? क्या अब लोगों में इतना भी विवेक नहीं रहा कि चोरी, जेबकरती जैसी आपराधिक घटनाओं की शिकायत पुलिस को करनी चाहिए और दंड तय करने का काम न्यायपालिका पर छोड़ देना चाहिए।

किसी की जान ले लेने से भला कहां अपराध पर लगाम लगता है। किसी को सबक सिखाने का यह तरीका तो नहीं हो सकता कि उसे जान से ही मार डाला जाए। कैसे हमारे समाज से यह समझ और मानवीय तकाजा खत्म होता जा रहा है। हालांकि संबंधित मामले में पुलिस ने हत्या के आरोपियों की पहचान कर ली है और उन्हें इस तरह कानून को हाथ में लेने की सजा भी मिलने की उम्मीद है। मगर क्या इस तरह समाज की संवेदनशीलता लौटाई जा सकती है।

समाज में बनते हिंसक मानस की कुछ वजहें तो समझी जा सकती हैं। पिछले कुछ सालों से जिस तरह उन्मादी तत्त्व समाज को सुधारने के नाम पर हिंसा को हथियार के रूप में इस्तेमाल करते देखे जाने लगे हैं। सामुदायिक वैमनस्यता को बढ़ावा देते हैं। इस तरह अपने ही बीच रहने वाले बहुत सारे लोगों को कई लोग शक की नजर से देखने लगे हैं। तमाम संचार माध्यमों पर अपराध और हिंसा को आम घटना की तरह परोसा जाने लगा है। अपराधियों को समाज के कई लोग सम्मानित करते हैं, उन सबसे हमारे सामाजिक मूल्यों को गहरा आघात लगा है। उन मूल्यों की स्थापना कैसे हो, यह बड़ी चिंता का विषय है। स्कूलों में नैतिक शिक्षा का पाठ तो पढ़ाया जाता है, मगर समाज के अगुआ अपने आचरण से जब तक उन मूल्यों को स्थापित नहीं करेंगे, हिंसक वृत्ति का उन्मूलन कठिन बना रहेगा।


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