Vijay Garg: वर्षभर कोई न कोई त्योहार हमारे सांस्कृतिक जीवन को हरा-भरा करता रहता है। यह हमारी भारतीय संस्कृति का अभिन्न हिस्सा ही नहीं, बल्कि हमारी धार्मिक, सामाजिक और राष्ट्रीय एकता का भी प्रतीक है। पर्व किसी भी धर्म या संप्रदाय का क्यों न हो, हम सभी भारतवासी उसे हर्षोल्लास के साथ मनाते हैं। एक-दूसरे को बधाइयां और शुभकामनाएं देते हैं। हालांकि आर्थिक उदारीकरण के बाद छाए बाजारवाद ने भारतीय जनजीवन के प्रत्येक क्षेत्र को बुरी तरह प्रभावित किया है। एक खास हिस्से की क्रयशक्ति में इजाफे के साथ-साथ हमारे सामाजिक ताने-बाने और रिश्तों में बनावटीपन भी आया है। आज हर चीज को पैसे की कसौटी पर कसा जाने लगा है । हमारे तीज-त्योहार भी इससे अछूते नहीं रह गए हैं।
अगर कुछ साल पीछे जाएं तो इन त्योहारों को सभी भारतवासी बड़ी आत्मीयता के साथ मनाते थे। किसी किस्म का बनावटीपन इन पर्वों की पवित्रता को छू नहीं पाया था। मगर अब बाजार और पैसे की खनक इन त्योहारों को लील गई है। पहले लोग बड़ी आत्मीयता के साथ अपने पड़ोसियों, रिश्तेदारों, मित्रों और परिचितों के यहां बधाई और शुभकामना देने जाते थे। अतिथि और आतिथेय दोनों ही बड़ी आत्मीयता से गले मिलकर बधाइयों और शुभकामनाओं का आदान- प्रदान करते थे। सामान्यतया अतिथि के हाथ खाली होते थे और आतिथेय के जुड़े रहते थे। आतिथेय हाथ जोड़कर और दिल खोलकर उनका स्वागत करते । घर के बने पकवान और मिष्ठान से स्वागत-सत्कार किया जाता। थोड़ा-बहुत कुछ हुआ तो छोटा-मोटा एक डिब्बा मिठाई का ले लिया । बड़े-बुजुर्ग गली-मोहल्ले के सभी बच्चों को आशीर्वाद देते और मिठाई आदि के लिए कुछ पैसे उनके हाथ पर धर देते ।
हमारे आपसी रिश्ते आत्मीयता, स्नेह और भाईचारे से सिंचित थे, जिनमें कोई लाग-लपेट, कोई बनावटीपन दिखाई नहीं देता था। मगर पिछले कुछ वर्षों में बाजार ने हमारी संवेदनाओं का अतिक्रमण किया। कंपनियों ने विज्ञापनों आदि के माध्यम से ऐसा माहौल बना दिया कि उनके उत्पाद को 'उपहार' के तौर पर अगर अपने मित्रों, परिचितों और रिश्तेदारों को नहीं दिया तो कैसा त्योहार, कैसी बधाई और कैसी शुभकामनाएं ! होली, दिवाली, रक्षाबंधन, नवरात्रि, दशहरा, ईद, क्रिसमस आदि पर बाजार लेने-देने वाले 'उपहारों' से सज जाते हैं। उपहार वही रहते हैं, पर हर त्योहार के साथ कंपनियों की ओर से लुभाने वाले जुमले बदल जाते हैं, जो हमारी संवदेनाओं और भावनाओं को उकसाते हैं। दूसरे शब्दों में कहा जाए तो ये हमारी संवेदनाओं और भावनाओं के साथ खिलवाड़ कर हमें अपने मकड़जाल में उलझाते हैं ।
कुछ साल पहले तक रक्षाबंधन में भाई जो कुछ अपनी बहन के हाथ में रख देता था, वह उसके लिए अमूल्य उपहार होता था। अगर बहन बड़ी और समझदार हुई तो कहती थी कि 'इसकी क्या जरूरत थी।' लेकिन बाजार का असर देखिए कि आज रक्षाबंधन से पहले ही बहन पूरे अधिकार के साथ भाई से अपना तोहफा मांगती है। यह बाजार के मकड़जाल का ही प्रभाव है कि हम सोच में पड़ जाते हैं कि किसी के घर अगर शुभकामना देने जाना है तो खाली हाथ कैसे जाएं! बिना उपहार के भी भला बधाई या शुभकामनाएं दी जा सकती हैं ? उधर सामने वाला भी यह मान बैठता है कि कोई अगर आएगा तो कुछ न कुछ उपहार तो लाएगा ही। उपहार जितना भारी-भरकम और महंगा होता है, रिश्ता उतना ही प्रगाढ़ समझा जाता है। छोटा और सस्ता उपहार लाने वाले को तो कई बार कमतर नजर से देखा जाता है और जो कुछ भी नहीं लाता, उसे तो पूरी तरह उपेक्षित कर दिया जाता है।
बाजारवाद के कारण समाज के एक हिस्से की क्रयशक्ति बढ़ जाने, पैसा आने से कुछ लोगों में अहंकार भी आया है, जिसके कारण पहले वाली आत्मीयता और भावनाओं पर गहरा आघात लगा है। अब लोग यह सोचते हैं कि पहले दूसरे लोग उसके पास आएं, उसके घर आएं फिर वे जाएंगे। अमूमन सबकी सोच ऐसी ही हो गई है। इसका अ यह होने लगा है कि लोग अपने-अपने घरों में कैद होकर अपने सीमित दायरों में ही पर्व मनाने लगे हैं। पहले उपहारों का आदान-प्रदान उच्च वर्ग की शान समझा जाता था। पर अब इसका सबसे अधिक शिकार मध्यम वर्ग हो रहा है। पहले मध्यवर्गीय व्यक्ति हैसियत के प्रतीक के चक्कर में महंगे उपहार अपने परिजनों, मित्रों और परिचितों को देता है, फिर उनसे यह अपेक्षा रखता है कि वे भी उसे उतना ही या उससे महंगा उपहार वापस दें। उपहार लेने वाला व्यक्ति भी यह दिखाने की कोशिश करता है कि वह भी कम नहीं है, इसलिए वह उससे भी महंगा उपहार देकर अपनी ऊंची हैसियत दिखाने की कोशिश करता है। यही कारण है कि रिश्तों में बनावटीपन झलकने लगा है। रिश्ते दरकने लगे हैं, क्योंकि रिश्ते का आधार अब बाजार तय कर रहा है।
अगर हमें अपने त्योहारों की पवित्रता बचानी है तो कम से कम इन्हें बाजार और पैसे के मकड़जाल से बचाकर रखना होगा। अगर हमें अपने रिश्तों को बचाना है तो लुभावने और भावनाओं के साथ खिलवाड़ करने वाले विज्ञापनों से बचकर रहना होगा। प्रेम, स्नेह और भाईचारे को रिश्तों की धुरी बनाना होगा। छोटे-मोटे उपहारों को हमारे रिश्तों की प्रगाढ़ता की परिभाषा बनने से रोकना होगा। हमें समझना होगा कि त्योहार हमारे आपसी सौहार्द के लिए है । हमारे पर्व हमारे रिश्तों को प्रगाढ़ता प्रदान करने के लिए है। बस हम बिना किसी से कोई अपेक्षा रखे अपने दिल की गहराइयों से एक-दूसरे को अपने तीज- त्योहारों की बधाई और शुभकामनाएं दें। ऐसा नहीं है कि त्योहारों पर उपहार लेना-देना गलत है। ये भी खुशियां बांटने का एक साधन है। बस ये रिश्तों में दिखावा न लाएं, हैसियत के प्रदर्शन का प्रतीक न बनें। शुभकामनाएं बाजार से नहीं, दिल से निकलनी चाहिए।
विजय गर्ग सेवानिवृत्त प्रिंसिपल शैक्षिक स्तंभकार स्ट्रीट कौर चंद एमएचआर मलोट पंजाब