Russia Ukraine War : यूक्रेन में रूस के लड़खड़ाते कदमों को देखकर पूरी दुनिया हैरान है

यूक्रेन में रूस के लड़खड़ाते कदमों को देखकर पूरी दुनिया हैरान है

Update: 2022-03-12 10:26 GMT

सैयद अता हसनैन

ऐसा लगता है कि रूसी (Russia) सशस्त्र बलों ने यूक्रेन (Ukraine) में आक्रमण शुरू करते समय सोचा था कि वो बिजली की तेजी से सफलता हासिल कर लेंगे. रूसी नेतृत्व के जेहन में उस वक्त अफगानिस्तान (Afghanistan) नहीं बल्कि 1956 का हंगरी और 1968 का चेकोस्लोवाकिया था. हंगरी में शुरू हुए राष्ट्रीय विद्रोह को 4 नवंबर, 1956 को सोवियत टैंकों और सैनिकों ने शातिर तरीके से कुचल दिया; निहत्थे नागरिक रूस के सामने विरोध नहीं कर सके. हजारों लोग मारे गए और घायल हुए और ढाई लाख लोग हंगरी छोड़कर भाग गए.
1968 में जब चेकोस्लोवाकिया ने अपनी वामपंथी विचारधारा को छोड़ने का प्रयास शुरू किया तो दो लाख तत्कालीन सोवियत सैनिक और पांच हजार टैंक ने प्राग में लोगों को कुचल डाला. यूक्रेन भी कभी सोवियत संघ का हिस्सा रह चुका है. यही कारण है कि शायद रूसी नेतृत्व को उम्मीद थी कि यूक्रेन की प्रतिरोध क्षमता ऐसी होगी कि 1956 और 1968 में किए गए ऑपरेशन की तरह उनके सैनिक देश के अंदर घुसते चले जाएंगे. मगर यूक्रेन में ऐसा कुछ नहीं हुआ है. यूक्रेन के लोग आठ साल पहले मैदान आंदोलन में अपने साहस का परिचय दे चुके हैं.
रूसी सेना ने अपनी पूरी ताकत नहीं लगाई
रूस ने इसे गंभीरता से लिया और जमीन, आसमान और समुद्र से एक साथ हाइब्रिड युद्ध शुरू कर यूक्रेन के पूर्वी क्षेत्र डोनबास और क्राइमिया को सफतलापूर्वक जीत लिया. हालांकि, यूक्रेन का प्रतिरोध देखकर रूस की सेना और युद्ध की योजना बनाने वाले बेहद हैरान हैं. कोई भी पेशेवर सैनिक आपको बता देगा कि युद्ध को सफलतापूर्वक जीतने के लिए विरोधी को कभी कमजोर नहीं समझना चाहिए. एक योजना के विफल होने की स्थिति में कई विकल्पों के साथ आकस्मिक योजना तैयार रखी जाती है. यूक्रेन की सीमाओं पर रूसी सेना न सिर्फ लंबे समय से अपनी सेना की तैनाती की तैयारी कर रही थी बल्कि कई जगहों पर सेना तैनात भी हो चुकी थी.
रूस-यूक्रेन युद्ध के पहले पांच दिन में रूस ने अपने उसी ताकत का प्रदर्शन किया जिसके लिए वो जाना जाता है. आक्रमण करने वाला पक्ष आदर्श रूप में हवा में अपनी श्रेष्ठता का प्रदर्शन करता है ताकि जमीन पर मौजूद उसकी सेना के लिए अनुकूल स्थिति पैदा हो और वो हल्के प्रतिरोध के बीच आगे बढ़ते रहें. ऐसा प्रतीत होता है कि रूसी सेना ने पूरी तरह से हवाई ताकत का इस्तेमाल यह सोच कर नहीं किया कि वह जरूरत से ज्यादा ताकत न लगा कर भी अपने लक्ष्य को प्राप्त कर लेगी. युद्ध के पहले चरण में (पहले पांच दिन) ऐसा लगता है कि रूस ने थोड़े समय के भीतर ही युद्ध को समाप्त करने, कीव पर कब्जा करने और यूक्रेनी राजनीतिक नेतृत्व के देश छोड़ कर भाग जाने की उम्मीद की थी. युद्ध गलत सूचना फैला कर भी लड़ी जाती है और रूस एक बार यह सूचना दुनिया भर में फैलाने में सफल भी रहा कि व्लोदोमीर ज़ेलेंस्की भी अफगानिस्तान के अशरफ गनी की तरह यूक्रेन को उसके भाग्य पर छोड़ कर देश छोड़ कर भाग गए हैं.
शुरुआत में सैन्य अभियान में अपेक्षाकृत कम सफलता को इस तरह से समझाया जा सकता है कि रूस ने समझा हो कि 1956 में हंगरी और 1968 में चेकोस्लोवाकिया की तरह उसे ज्यादा प्रतिरोध का सामना नहीं करना पड़ेगा और केवल टैंक और पैदल सेना लक्ष्य को प्राप्त करने में सफल रहेगी. वैकल्पिक रूप से रूस संघर्ष के बाद मानव त्रासदी को भी कम से कम रखने की कोशिश कर रहा था क्योंकि वो जानता है कि उसने जो काम किया है उसके लिए दुनिया उसे मुख्य खलनायक के रूप में देखेगी.
रूस ने अपने सिद्धांत में परिवर्तन किया ताकि यूक्रेन उसकी मंशा समझ जाए
रूस के लिए स्थिति अनुकूल नहीं रही. पूरी तरह से हवाई मदद नहीं मिलने से रूस की जमीनी फौज भी कीव तक आसानी से नहीं पहुंच पा रही क्योंकि यूक्रेन अच्छे संगठन और नेतृत्व के कारण अपेक्षा से ज्यादा प्रतिरोध कर रहा है. रूस ने शहरी क्षेत्रों पर केवल यह संदेश देने के लिए कुछ मिसाइल दागे कि उनके पास भरपूर क्षमता और जीत के लिए हर पैंतरे को अपनाने की इच्छाशक्ति है. छठे दिन तक भी कोई प्रगति नहीं होने पर रूस ने अपने सिद्धांत में परिवर्तन किया ताकि यूक्रेन उसकी मंशा समझ जाए. रूस ने बिना किसी पछतावे के हेरिटेज सिटी और कंक्रीट वाले इलाकों में बमबारी शुरू कर दी. उसके पांच दिन बाद रूस की थल सेना के सामने रसद से संबंधित बड़ी चुनौतियां होने की खबरें आ रही हैं. वायु शक्ति का भी प्रभावी तरीके से इस्तेमाल नहीं किया गया.
दुनिया भर में युद्ध के दौरान रसद पहुंचाने को लेकर चर्चा होती रहती है. मुख्य रूप से रसद और इंधन की कमी के कारण रूस की थल सेना आगे नहीं बढ़ पा रही है. दुनिया भर की सेना लॉजिस्टिक्स में 72 घंटे की तैयारी रखती है. मगर उसके बाद भी उद्देश्यों की पूर्ति नहीं हो तो फोर्मेशन और यूनिट को अतिरिक्त स्टॉक की जरूरत पड़ती है. अगर ये पहले से गाड़ियों पर पास ही कहीं तैयार रखे गए हों तो बेहतर होता है क्योंकि रसद जल्दी पहुंच जाता है.
इससे तुरंत किसी चीज की कमी पड़ने पर उसे जरूरत वाली जगह तक बगैर वक्त गंवाए लाया जा सकता है. इस तरह की इमरजेंसी को ध्यान में नहीं रखने के कारण रूस ने युद्ध में जरूरी गति खो दी है. कई जगहों पर तो उसे अपने बख्तरबंद गाड़ियों को पेट्रोल, डीजल की कमी के कारण छोड़ कर आगे बढ़ना पड़ा है. हंगरी और चेकोस्लोवाकिया वाले अनुभव ने रूस की तैयारी पर असर डाला है. रूस को उम्मीद थी कि यूक्रेन टैंकों को देख कर ही घुटने टेक देगा. दूसरी तरफ ये आश्चर्य की बात है कि रूस जैसी प्रतिष्ठित और पेशेवर सेना ने इस तरह से गलत अनुमान कैसे लगाया और स्थिति को कैसे समझ नहीं पाई.
यूक्रेन ने खुद को अच्छी तरह से संगठित किया हुआ है
तत्कालीन सोवियत संघ ने राष्ट्रीय रणनीति के तौर पर आर्थिक, सांस्कृतिक और भू-राजनीतिक स्थिति के अनुरूप दूर तक मार करने की अवधारणा को विकसित किया. शीत युद्ध के दौरान यूरोप में युद्ध ऑपरेशनल मेनूवर ग्रुप (OMG) के सिद्धांत पर लड़ा जाता था. निःसंदेह तब वह नाटो की संयुक्त सेनाओं के विरुद्ध अधिक चुनौतीपूर्ण परिस्थितियों के लिए तैयार कर रहा था. हालांकि, पेशेवर सेनाएं बड़े सिद्धांतों से प्रेरित होकर अपनी प्रतिक्रिया देने के लिए जानी जाती हैं.
यूक्रेन-रूस के मामले में ऐसा लग रहा है कि सिद्धांतों को भुला दिया गया है और प्रदर्शन पर प्रश्न उठ रहे हैं. कई लोग रूस की विफलता का कारण सेना में यथार्थवादी प्रशिक्षण का अभाव मान रहे हैं. रूसी लड़ाकू पायलटों को प्रशिक्षण के दौरान सीमित उड़ान मिले, जरूरी कल-पुर्जों की कमी के कारण भी वे अपनी पूरी क्षमता से हमला नहीं कर पा रहे हैं.
यूक्रेन ने खुद को अच्छी तरह से संगठित किया हुआ है. सेना के साथ वहां के नागरिक भी लड़ाई में शामिल हैं. शायद कुछ ही प्रमुख सैनिक हैं और आस-पास ज्यादा आम नागरिक मौजूद हैं. महत्वपूर्ण सुरक्षा की चुनौतियों के बावजूद उन्होंने अपने शहरों को सुचारू रूप से चलाने में सफलता प्राप्त की है. उनकी एयर डिफेंस यूनिट का प्रदर्शन उत्कृष्ट रहा है. सैकड़ों एंटी टैंक टीम काफी अच्छा कर रही है. कई तो कंधे पर रख कर चलाने वाले स्टिंगर एंटी-एयरक्राफ्ट मिसाइल से नीची उड़ान भरने वाले रूसी लड़ाकू विमान और अटैक हेलीकॉप्टर को निशाना बना रहे हैं. शहरों में रूसी सेना का प्रवेश आसान नहीं होगा खासकर तब जब इतनी अधिक संख्या में वहां मिसाइलें मौजूद हों. अगर रूस यूक्रेन के शहरों में घुसना चाहता है तो उसके लिए उसे शहर के बड़े हिस्से को नष्ट करना होगा. एक बार रूसी सेना के सड़कों, गलियों में उतर आने के बाद सब कुछ यूक्रेन के प्रतिरोध पर निर्भर करेगा. अगर यूक्रेन के लोगों की प्रेरणा बनी रहती है और पर्याप्त संख्या में लोग उप्लब्ध होते हैं तो युद्ध लंबा चल सकता है.
रूस के परमाणु बम के उल्लेख को नाटो ने गंभीरता से लिया है
ऐसा प्रतीत होता है कि सहनशक्ति ही परिणाम तय करेगी. रूसी क्षमता और पीछे से अतिरिक्त सैनिकों को लाने और रूस के नागरिकों के समर्थन पर काफी कुछ निर्भर करेगा. मगर लगता नहीं है पुतिन दबाव में आएंगे. यूक्रेन के लोगों के अपने शहरों खास कर कीव की रक्षा करने की क्षमता, शहरी संरचनाओं और भारी क्षति का सामना करने के बाद भी प्रतिरोध क्षमता और नाटो से मिल रही हथियारों की खेप के इस्तेमाल का भी असर पड़ेगा. रूस की कोशिश यूक्रेन को ब्लैक सी से दूसरे इलाकों से काट देने की है ताकि यूक्रेन के उद्योगों पर इसका असर पड़े और वह आर्थिक रूप से टूट जाए. रूस पर भी असल हमला आर्थिक रूप से ही हो रहा है.
नाटो और पश्चिमी देश रूस को आर्थिक रूप से अलग-थलग कर पंगु बनाने की कोशिश कर रहे हैं. युद्ध में सहनशक्ति भी आर्थिक विचारों से तय होगी क्योंकि बड़े प्रतिबंधों से कमर टूट जाती है. इस तरह का गठजोड़ और प्रतिबंध अब तक अतीत में कहीं नहीं देखा गया है. अगर रूस यूक्रेन में सेना की मदद से सत्ता परिवर्तन में सफल भी हो जाता है तो भी राजनीतिक जीत उससे कोसों दूर होगी. उधर नाटो पहले से ही एक छद्म युद्ध की योजना बना रहा है. जिसे रूस सीमाओं के साथ भीतरी हिस्सों में भी फैलाने के फायदे पर विचार किया जा रहा है. हालांकि अभी कहीं भी संघर्ष का अंत नजर नहीं आ रहा है.
ऐसा तभी मुमकिन है जब रूस और यूक्रेन के बातचीत हो और दोनों पक्ष को युद्ध का औचित्य समझ आए. मगर दोनों देश जिस कदर आगे बढ़ चुके हैं, इसमें वापस लौटने के आसार कम ही दिखते हैं. रूस के परमाणु बम के उल्लेख को नाटो ने गंभीरता से लिया है. ऐसा इसलिए भी है क्योंकि पुतिन क्या करेंगे इसका अंदाजा अब तक कोई नहीं लगा सका है. हालांकि रूस को यह बात याद रखनी चाहिए कि नाटो के पास भी परमाणु हथियार हैं और म्यूचुअली एश्योर्ड डिस्ट्रक्शन (MAD) के सिद्धांत का न तो अंत हुआ है न ही इसे भुला दिया गया है.
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