रूस भारत का साझेदार व मददगार है, इसलिए भारत की चुप्पी की नीति सही है

रूस भारत का साझेदार व मददगार है

Update: 2022-03-04 08:50 GMT
अभिजीत अय्यर मित्रा का कॉलम: 
हम इस बात के तो अभ्यस्त हैं कि नेपाल हमारे और चीन के बीच गेम खेलता रहता है। हम इस बात के भी आदी होते जा रहे हैं कि भूटान भी अब भारत-चीन के बीच उसी तरह का गेम खेलने लगा है, जो वह पहले नहीं खेलता था। लेकिन कल्पना कीजिए, अगर किसी दिन नेपाल और भूटान- जिनकी भारत के साथ खुली सीमाएं हैं- चीन के साथ एक ऐसा गठजोड़ कर लें, जो हमारे विरुद्ध हो, तो क्या होगा?
क्या आपको लगता है भारत इस पर चुप बैठेगा? यूक्रेन और रूस के बीच ठीक यही हुआ है। जिस यूक्रेन को आज हम एक देश के रूप में जानते हैं, वर्ष 1237 में मंगोलों के आक्रमण तक उसका अस्तित्व भी नहीं था। मंगोलों के द्वारा तहस-नहस कर दिए जाने के बाद यहां कज्जाक लोग रहने लगे, जो यायावर-लड़ाके थे और मंगोलों जितने ही बर्बर थे। तब यह इलाका जपोरोजियान सिच कहलाता था, जो एक अनधिकृत राज्य-संघ की तरह था, और आज की जो यूक्रेनी पहचान है, उसके मूल में यही है।
1600 में इस परिसंघ ने मॉस्को के जार के प्रति अपनी निष्ठा प्रदर्शित की। तब जार अपने क्षेत्र का तेजी से विस्तार कर रहा था। जब यह रूसी साम्राज्य फैलने लगा तो उसने पोलिश-लिथुआनियाई कॉमनवेल्थ के बड़े इलाके को अपने में मिला लिया और यूक्रेन प्रांत का हिस्सा बना दिया।
जब कम्युनिस्टों ने जार से सत्ता अपने हाथ में ली तो उन्होंने न केवल यूक्रेन के पश्चिम में कुछ और पोलिश और दक्षिण में कुछ और रोमानियाई क्षेत्रों को जोड़ा, बल्कि स्वयं रूस के भी एक बड़े हिस्से को उसमें मिला दिया, जिनमें ओडेस्सा, खारकोव, डोनेस्क प्रांतों सहित और द्नाइपर नदी के पूर्व में मौजूद समस्त भूमि शामिल थी।
वर्ष 1957 में सोवियत-संघ के नेता निकित ख्रुश्चेव- जो कि स्वयं यूक्रेनी थे- ने यूक्रेन को क्रीमिया प्रायद्वीप भी दे दिया। यानी आज हम जिस यूक्रेन को जानते हैं, उसका 90 प्रतिशत हिस्सा जार और सोवियतों के द्वारा उसे उपहार में दिया गया था। 19वीं और 20वीं सदी में जैसे-जैसे यूरोपियन राष्ट्रवाद बढ़ता गया, यूक्रेन में भी भाषाई आधार पर यह भावना बलवती होने लगी कि वह रूस से पृथक है। इसका आधार यह था कि लम्बे पोलिश राज के दौरान यूक्रेनी चर्च की निष्ठाएं कैथोलिक चर्च के प्रति अधिक हो गई थीं।
19वीं सदी की यह विशिष्टता थी कि इसने भाषा और सम्प्रदाय को एक कर दिया था। इसकी अति तब हुई, जब दूसरे विश्वयुद्ध के दौरान यूक्रेनियों के एक बड़े समूह ने स्तेपान बांदेरा के नेतृत्व में नाजियों का समर्थन किया। स्तेपान एक यूक्रेनी राष्ट्रवादी था और उसके मन में रूसियों और यहूदियों के प्रति घोर घृणा थी। लेकिन जब युद्ध में सोवियतों की विजय हुई तो यूक्रेनी राष्ट्रवाद और बांदेरा के विद्रोह के सभी चिह्न नष्ट कर दिए गए। 1991 में जब सोवियत संघ टूटा तो यूक्रेन ने स्वयं को एक नस्ली-घालमेल के बीच पाया।
द्नाइपर नदी के पूर्व में रूसी इलाका था, जिसका औद्योगिक विकास तेजी से हुआ था। वहीं पश्चिम में यूक्रेन का ग्रामीण और गरीब इलाका था। इसने टकरावों को जन्म दिया और स्तेपान बांदेरा के विचारों के समर्थक फिर से जुटने लगे। 2014 ने इस ताबूत में आखिरी कील ठोंक दी। अमेरिका की शह पर यूक्रेन के चुने गए राष्ट्रपति- जो रूस के समर्थक थे- के विरुद्ध एक आंदोलन हुआ और परिणामस्वरूप यूक्रेन की रूसी जनता के नागरिक अधिकारों का विधिपूर्वक हनन किया जाने लगा।
इसी के बाद रूस ने क्रीमिया पर चढ़ाई की और उसे अपने में मिला लिया। देखा जाए तो यूक्रेन ने 2014 में रूस के साथ ठीक वही किया था, जो 1947 में पाकिस्तान ने कश्मीर के साथ किया था। उसने दावा किया कि चूंकि उस प्रांत के लोग नस्ली या भाषाई रूप से उसके जैसे थे, इसलिए उस भूमि पर उसका अधिकार था।
जाहिर है भारत इस कदम का समर्थन नहीं कर सकता था। दूसरी तरफ रूस भारत का निकटतम साझेदार भी है, जिसने रिएक्टरों को बनाने के लिए हमें तकनीक दी है और मिसाइल कार्यक्रम में हमारी सहायता की है। इसलिए 2014 में हम चुप रहे। आज जब रूस ठीक वही कर रहा है, जो अमेरिका ने बोस्निया, सर्बिया, इराक, लीबिया और सीरिया में किया था, तब भी भारत वही कर रहा है, जो उसने उन सब मामलों में किया था यानी चुप रहना।
हमारी प्राथमिकताएं
यूक्रेन के मामले में भारत का रुख हमारे हितों के अनुरूप है। कुछ इसे स्वार्थ कह सकते हैं। लेकिन इसीलिए हमने यूक्रेन में मौजूद विद्यार्थियों को लाने के लिए ऑपरेशन गंगा चलाया है। क्योंकि हमारी जिम्मेदारी दुनिया से ज्यादा अपने विद्यार्थियों के प्रति है।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)
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