कोरोना संकट से उबरती अर्थव्यवस्था में रुपये का डॉलर के मुकाबले लुढ़कना हमारी गंभीर चिंता का विषय है, लेकिन खराब होती वैश्विक अर्थव्यवस्था में यह गिरावट स्वाभाविक है। एशिया की कई बड़ी अर्थव्यवस्थाएं फिलहाल मुश्किल दौर से गुजर रही हैं। इसके बावजूद रुपये का डॉलर के मुकाबले अब तक की बड़ी गिरावट के साथ 77 पार पहुंचना बड़ी फिक्र की बात ही कही जायेगी। इसके चलते भारत के विदेशी मुद्रा भंडार में गिरावट हुई है। मुश्किल बात यह है कि भारत का आयात निर्यात के मुकाबले अधिक है। खासकर अस्सी फीसदी से अधिक कच्चा तेल हमें विदेशों से आयात करना पड़ता है जिसके चलते पेट्रोलियम पदार्थों के दामों में वृद्धि होगी, जो कालांतर पहले से बढ़ी महंगाई को और बढ़ाएगी। जाहिर है रुपये के कमजोर होने का असर आम आदमी की जेब पर भी पड़ेगा। ऐसे वक्त में जब आरबीआई कह रहा है कि कोरोना काल से पहले स्तर की अर्थव्यवस्था पर लौटने में एक दशक से ज्यादा समय लग सकता है तो अर्थव्यवस्था को लेकर हमारी चिंताएं और गहरी हो जाती हैं। महंगाई दर ऊंची है, बेरोजगारी बेतहाशा बढ़ी हुई है तो ऐसे में रुपये के मूल्य में गिरावट से समस्याओं में और इजाफा ही होगा। निस्संदेह कोरोना महामारी से बाधित वैश्विक आपूर्ति शृंखला में रूस-यूक्रेन युद्ध ने आग में घी का काम किया है। जब भी वैश्विक अर्थव्यवस्था में गहरी अनिश्चितता उभरती है दुनिया का संपन्न वर्ग डॉलर की ओर दौड़ता है, जिससे उसके मूल्य में वृद्धि होती है। हाल ही में अमेरिकी फेडरल रिजर्व द्वारा ब्याज दरों में वृद्धि से वैश्विक स्तर पर डॉलर मजबूत हुआ है। ऐसे में संस्थागत निवेशक अमेरिकी अर्थव्यवस्था में निवेश कर रहे हैं और भारतीय शेयर बाजार से पैसा निकाल रहे हैं जिससे भारतीय बाजार में विनिवेश की प्रक्रिया तेज हुई है और रुपये के मूल्य में गिरावट हुई है। कमोबेश दुनिया की बड़ी अर्थव्यवस्थाओं में अंतर्राष्ट्रीय आपूर्ति शृंखला में बाधा व रूस-यूक्रेन युद्ध के चलते मौद्रिक नीतियां सख्त हुई हैं, जो कालांतर मुद्रा अवमूल्यन का कारक बनती हैं।
सोर्स: dainiktribuneonline news