रुपये की कसक

यह सरकार पर निर्भर है कि वह संकट को अवसर में कैसे बदलती है।

Update: 2022-05-13 03:15 GMT

कोरोना संकट से उबरती अर्थव्यवस्था में रुपये का डॉलर के मुकाबले लुढ़कना हमारी गंभीर चिंता का विषय है, लेकिन खराब होती वैश्विक अर्थव्यवस्था में यह गिरावट स्वाभाविक है। एशिया की कई बड़ी अर्थव्यवस्थाएं फिलहाल मुश्किल दौर से गुजर रही हैं। इसके बावजूद रुपये का डॉलर के मुकाबले अब तक की बड़ी गिरावट के साथ 77 पार पहुंचना बड़ी फिक्र की बात ही कही जायेगी। इसके चलते भारत के विदेशी मुद्रा भंडार में गिरावट हुई है। मुश्किल बात यह है कि भारत का आयात निर्यात के मुकाबले अधिक है। खासकर अस्सी फीसदी से अधिक कच्चा तेल हमें विदेशों से आयात करना पड़ता है जिसके चलते पेट्रोलियम पदार्थों के दामों में वृद्धि होगी, जो कालांतर पहले से बढ़ी महंगाई को और बढ़ाएगी। जाहिर है रुपये के कमजोर होने का असर आम आदमी की जेब पर भी पड़ेगा। ऐसे वक्त में जब आरबीआई कह रहा है कि कोरोना काल से पहले स्तर की अर्थव्यवस्था पर लौटने में एक दशक से ज्यादा समय लग सकता है तो अर्थव्यवस्था को लेकर हमारी चिंताएं और गहरी हो जाती हैं। महंगाई दर ऊंची है, बेरोजगारी बेतहाशा बढ़ी हुई है तो ऐसे में रुपये के मूल्य में गिरावट से समस्याओं में और इजाफा ही होगा। निस्संदेह कोरोना महामारी से बाधित वैश्विक आपूर्ति शृंखला में रूस-यूक्रेन युद्ध ने आग में घी का काम किया है। जब भी वैश्विक अर्थव्यवस्था में गहरी अनिश्चितता उभरती है दुनिया का संपन्न वर्ग डॉलर की ओर दौड़ता है, जिससे उसके मूल्य में वृद्धि होती है। हाल ही में अमेरिकी फेडरल रिजर्व द्वारा ब्याज दरों में वृद्धि से वैश्विक स्तर पर डॉलर मजबूत हुआ है। ऐसे में संस्थागत निवेशक अमेरिकी अर्थव्यवस्था में निवेश कर रहे हैं और भारतीय शेयर बाजार से पैसा निकाल रहे हैं जिससे भारतीय बाजार में विनिवेश की प्रक्रिया तेज हुई है और रुपये के मूल्य में गिरावट हुई है। कमोबेश दुनिया की बड़ी अर्थव्यवस्थाओं में अंतर्राष्ट्रीय आपूर्ति शृंखला में बाधा व रूस-यूक्रेन युद्ध के चलते मौद्रिक नीतियां सख्त हुई हैं, जो कालांतर मुद्रा अवमूल्यन का कारक बनती हैं।

निस्संदेह, रुपये में गिरावट का क्रम स्थायी नहीं है, देर-सवेर उसमें सुधार की संभावना है। लेकिन असली सवाल यह है कि हम इस संकट का मुकाबला मौद्रिक व अन्य नीतियों से कैसे करते हैं। इसमें विदेशी निवेशकों से भी सहारा मिल सकता है। लेकिन हमारी बड़ी चिंता यह है कि रुपये के मूल्य में गिरावट से हमारे तमाम आयात महंगे हो जायेंगे। उसके लिये हमें अधिक भुगतान करना होगा। वहीं एक दूसरा पहलू यह भी है कि हमारे निर्यात सस्ते हो जायेंगे। इससे हमारे निर्यात बढ़ सकते हैं। यदि सरकार निर्यातकों को बढ़ावा दे तो इससे निर्यात बढ़ने के साथ ही रोजगार के नये अवसर भी सृजित किये जा सकते हैं। साथ ही निर्यातकों को डॉलर के लिये अधिक रुपये मिलेंगे। लेकिन आम आदमी की चिंता यह है कि कच्चे तेल के दाम बढ़ने से ट्रांसपोर्ट व्यय बढ़ जायेंगे, जो कालांतर पहले से बढ़ी महंगाई को और बढ़ा सकता है। आवश्यक वस्तुओं के दाम बढ़ने से लोगों की क्रयशक्ति कम हो जायेगी। वहीं विदेशों में पढ़ रहे और पढ़ने जाने की तैयार कर रहे छात्रों की मुश्किलें भी बढ़ जायेंगी। उनकी पढ़ाई इससे और महंगी हो जायेगी। वहीं फार्मा व आईटी कंपनियां फायदे में रहने वाली हैं, रुपये के कमजोर होने उनकी कमाई बढ़ जायेगी। जाहिरा तौर पर रुपये के गिरने का एक संदेश दुनिया में यह भी जायेगा कि भारतीय अर्थव्यवस्था कमजोर है। वैसे कोरोना संकट में आय कम होने से लोगों की क्रय शक्ति में गिरावट आई है। इसके चलते मांग में आई गिरावट से हमारा उत्पादन भी प्रभावित हुआ है। दरअसल, सरकार को लोगों की मांग बढ़ाने पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए। खासकर असंगठित क्षेत्र को मजबूत बनाने की जरूरत है जो हमारे रोजगार का बड़ा जरिया भी है। विकास दर को गति देने के लिये बाजार में मांग व आपूर्ति का संतुलन बनाना भी जरूरी है। यह उद्योगों को गति देने के लिये भी आवश्यक है। यह सरकार पर निर्भर है कि वह संकट को अवसर में कैसे बदलती है।

सोर्स: dainiktribuneonline news 

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