जड़ होती नौकरशाही
इक्कीसवीं सदी के भारत में बड़ा परिवर्तन नौकरशाही में सुधार से ही संभव होगा। इसे वक्त के साथ बदलना बेहद जरूरी है। पचास के दशक की कार्य-संस्कृति से न तो भारतीय रेल चलाई जा सकती है
प्रेमपाल शर्मा: इक्कीसवीं सदी के भारत में बड़ा परिवर्तन नौकरशाही में सुधार से ही संभव होगा। इसे वक्त के साथ बदलना बेहद जरूरी है। पचास के दशक की कार्य-संस्कृति से न तो भारतीय रेल चलाई जा सकती है, न कोई दूसरा संस्थान। यूरोप अमेरिका से लेकर सभी विकसित राष्ट्रों की नौकरशाही ने निजी क्षेत्र से सबक लेते हुए अपने को सुधारा है।
दुनिया में शायद ही कोई ऐसा देश होगा जो भारत जैसी नौकरशाही के विरोधाभास में जीता हो। एक तरफ नौकरशाही को हर तरफ से धिक्कार, प्रताड़ना और अपमान से गुजरना पड़ता है, तो दूसरी तरफ हर नौजवान उसमें शामिल होने का सपना भी देखता है। इसमें सरकारी स्कूल, विश्वविद्यालय से लेकर कोर्ट-कचहरी तक हर सरकारी संस्था शामिल है। कुछ दिन पहले पटना और इलाहाबाद में रेलवे भर्ती परीक्षा को लेकर नौजवान गुस्से में सड़क पर उतरे और सरकारी संपत्ति को भारी नुकसान पहुंचाया। वैसे उनकी बात कुछ हद तक सही भी है कि रेलवे की नौकरियों में भर्ती में देरी क्यों हो रही है? साथ ही, इन नौजवानों ने भर्ती की परीक्षा प्रणाली पर भी उंगली उठाई।
इन नौजवानों का दर्द जायज है। पिछले दो साल की कोरोना त्रासदी की मार सबसे ज्यादा गरीबों और बेरोजगारों पर पड़ी है। हिंदी क्षेत्र में तो और भी ज्यादा, क्योंकि यहां लोग छोटे-मोटे काम भी शुरू नहीं कर पा रहे हैं और न ही भविष्य में इसकी कोई उम्मीद दिखाई दे रही है। लेकिन कुछ दरारें इस विरोध में भी साफ नजर आती हैं। उन्होंने नौकरशाही को अकर्मण्य, उदासीन, भ्रष्ट न जाने क्या-क्या कहा है। जब कोई ऐसा आरोप लगता है तो नौकरशाही कोई शीर्ष पर बैठे एक व्यक्ति का नाम नहीं, बल्कि पूरा संस्थान होता है जिसमें कई स्तर के कर्मचारी-अधिकारी होते हैं।
अगर देखा जाए तो यह आरोप हर स्तर पर लागू है। बड़े अफसरों की जिम्मेदारी निश्चित रूप से ज्यादा है। लेकिन रेलवे भर्ती बोर्ड की परीक्षा के तहत जिन पदों पर भर्ती की जाएगी, वे भी अपनी कामचोरी, लापरवाही, अकर्मण्यता के लिए उतनी ही बदनाम हैं। कौन नहीं जानता कि रेल प्रशासन में सबसे ज्यादा बिना टिकट यात्री, जहरखुरानी की घटनाएं, चोरी, लेटलतीफी, घाटे की रेल उत्तर भारत की है और विशेषकर उन इलाकों में जहां उपद्रव हुए हैं। आखिर यह कौनसा समाज है जो ऐसे नागरिक बना रहा है जो जब तंत्र से बाहर होते हैं तो उसे बर्बाद और तोड़ने के लिए तत्पर रहते हैं और अंदर पहुंच जाएं तो उसे हर हालत में बचाने के लिए। रेल प्रशासन की तरफ से भर्ती में देर भी हो रही है और कुछ चूके भी हुई हैं।
इस विरोध-प्रदर्शन से रेल प्रशासन की नींद टूटी और भी सुधार के लिए सिद्धांत रूप से वह तैयार हो गया है। कमेटी बन गई है और उम्मीद है कि ऐसे कदम उठाए जाएंगे जिससे भविष्य में भी ऐसी नौबत नहीं आए। लेकिन ऐसी घटनाओं की रोशनी में पूरे तंत्र पर पर निगाह डालने की भी जरूरत है। पैंतीस हजार पदों के लिए होने वाली यह भर्ती असम, तमिलनाडु, गुजरात, कश्मीर से लेकर उत्तर प्रदेश, बिहार सहित पूरे देश के नौजवानों के लिए थी। क्या कारण है कि उपद्रव सिर्फ इलाहाबाद और पटना में ही हुए? जो आंकड़े सामने आ रहे हैं, उसमें सबसे ज्यादा संख्या उत्तर प्रदेश और बिहार के बेरोजगारों की ही है।
कोरोना काल से पूरा देश प्रभावित हुआ। लेकिन दक्षिण के राज्य अपनी बेहतर शिक्षा व्यवस्था, हुनर, कार्य संस्कृति के बूते तेजी से पटरी पर आ रहे हैं, जबकि उत्तर प्रदेश, बिहार जैसे उत्तरी राज्यों में नौजवानों की टकटकी सिर्फ सरकारी नौकरियों की तरफ ही लगी हुई है। इलाहाबाद, लखनऊ, पटना, भागलपुर जैसे शहरों में एक-एक कमरे में दस-दस बच्चों का रहना, बहुत कम साधनों में प्रशिक्षण और विशेषकर अंग्रेजी सुधारने के लिए जान झोंकते क्या इन नौजवानों के लिए इतनी सरकारी नौकरियां बची हैं? क्या शिक्षा व्यवस्था पचास फीसद से ज्यादा निजी हाथों में नहीं पहुंच गई? क्या ऐसे ही कदम रेलवे में लगातार नहीं बढ़ रह रहे?
पिछले पांच साल में ही नहीं, बल्कि बीस वर्षों से रेलवे के बहुत सारे कार्यकलाप सार्वजनिक-निजी भागीदारी (पीपीपी) माडल और दूसरे कई नामों से निजी हाथों की तरफ बढ़ रहे हैं, चाहे विश्राम गृहों का रखरखाव हो या स्टेशन का विकास या उत्पादन इकाइयों के बहुत सारे काम। पिछले दिनों तो लगभग सौ रेलवे मार्गों को भी निजी गाड़ियों को सौंपने की तैयारी हो चुकी है। इसके बावजूद उत्तर प्रदेश बिहार जैसे हिंदी राज्यों के स्कूल, विश्वविद्यालय या समाज में यह ज्ञान कब आएगा कि आप फर्जी सामान्य ज्ञान और अंग्रेजी की स्पेलिंग रटने के आधार पर सरकारी नौकरी की उम्मीद छोड़ना कब बंद करेंगे? खेती, उद्योग या दूसरे हुनर या श्रम आधारित काम करना क्यों नहीं सीखते?
गंभीर प्रश्न नौकरशाही में सुधार का भी है। किसी भी हालत में उसका अपराध कम नहीं है। भारतीय नौकरशाही दुनिया की सबसे भ्रष्ट और आरामतलब नौकरशाही मानी जाती है। और इसके लिए जिम्मेदार राजसत्ता भी कम नहीं है। हालांकि मौजूदा सरकार ने इस समस्या पर ध्यान दिया है और सुधार के लिए पारदर्शिता वाले कुछ अच्छे कदम लागू किए हैं, पर वे सब तकनीक के इस्तेमाल वाले ज्यादा हैं।
याद कीजिए एक समय था जब रेल टिकट के लिए लंबी-लंबी कतारें होती थीं। बिजली के दफ्तर से लेकर टेलीफोन और पासपोर्ट कार्यालय तक में काम आसानी से नहीं हो पाते थे। पर इक्कीसवीं सदी की डिजिटल तकनीक की दुनिया ने नौकरशाही को सुधारने या उसके पर कतरने के लिए ज्यादा बेहतर काम किया है, बजाय हमारी सत्ता ने। सत्ताधीशों ने शायद ही कभी लालफीताशाही, भ्रष्टाचार, भाई-भतीजावाद के खिलाफ आवाज उठाई, बल्कि प्रकारांतर से उसे और प्रश्रय ही दिए जाते रहने की प्रवृत्ति बनी रही।
निश्चित रूप इक्कीसवीं सदी के भारत में बड़ा परिवर्तन नौकरशाही में सुधार से ही संभव होगा। इसे वक्त के साथ बदलना बेहद जरूरी है। पचास के दशक की कार्य संस्कृति से न तो भारतीय रेल चलाई जा सकती है, न कोई दूसरा संस्थान। यूरोप अमेरिका से लेकर सभी विकसित राष्ट्रों की नौकरशाही ने निजी क्षेत्र से सबक लेते हुए अपने को सुधारा है। हमारी नौकरशाही पर पिछले दिनों सुप्रीम कोर्ट ने भी बार-बार बहुत सख्ती से चोट की है।
याद कीजिए भारत के मुख्य न्यायाधीश एनवी रमण ने वायु प्रदूषण को लेकर पिछले साल नवंबर में कहा था कि 'नौकरशाही में एक तरह की जड़ता विकसित हो गई है। वे फैसले नहीं लेना चाहते। कार कैसे रोकें? वाहन कैसे जब्त किया जाए? क्या यह सब कोर्ट करेगा।' ऐसी ही टिप्पणी उन्होंने उत्तर प्रदेश के एक कर्मचारी की बकाया राशि न देने के मामले में की थी। उन्होंने मुख्य सचिव के लिए कहा था कि 'आप अपने ही कर्मचारी को उसके जायज बकाया धन से वंचित कर रहे हैं. आप को सख्त सजा दी जानी चाहिए।' सुप्रीम कोर्ट तो यहां तक कह चुका है कि 'इस देश को तो अब भगवान भी नहीं बचा सकता।'