निजी क्षेत्र में आरक्षण का दांव, जानिए कितना नुकसानदेह हो सकता है साबित

इन दिनों हरियाणा खबरों में है

Update: 2021-03-11 13:28 GMT

इन दिनों हरियाणा खबरों में है। मुख्यमंत्री मनोहर लाल खट्टर की अगुआई वाली राज्य सरकार ने हाल ही में एक नए कानून को अधिसूचित किया है, जिसके मुताबिक, राज्य में प्रति माह 50,000 रुपये तक वेतन वाली निजी क्षेत्र की 75 फीसदी नौकरियां स्थानीय उम्मीदवारों के लिए आरक्षित होंगी। इसने देश के सबसे पुराने मुद्दों में से एक यानी नौकरी में आरक्षण पर एक बार फिर से बहस छेड़ दी है; विशेष रूप से यह कि क्या सरकार को निजी कंपनियों को नौकरियों में अपनी आरक्षण नीति लागू करने के लिए कहना चाहिए।


भारत में उप-राष्ट्रवाद कोई नई चीज नहीं है। विशुद्ध राजनीतिक नजरिये से शायद यह एक ऐसे देश में हैरान करने वाली बात भी नहीं है, जहां बहुत सारे लोग बहुत कम उपलब्ध नौकरियों के पीछे भाग रहे हैं। इस संदर्भ में हरियाणा कुछ नया नहीं कर रहा है। बढ़ती बेरोजगारी और लोगों के असंतोष से जूझते हुए कई राज्यों ने (महाराष्ट्र, आंध्र प्रदेश, कर्नाटक और मध्य प्रदेश) हाल के दिनों में स्थानीय लोगों के लिए निजी क्षेत्र की नौकरियों को आरक्षित करने की कोशिश की है। हरियाणा बस ऐसे कई राज्यों में से नया उदाहरण है, जो निजी क्षेत्र की नौकरी में आरक्षण को लागू करने की कोशिश कर रहा है। लेकिन जैसा कि इतिहास हमें बताता है, एक सार्वजनिक नीति के रूप में यह नुकसानदेह है। बढ़ती बेरोजगारी का सामना करते हुए आंध्र प्रदेश ने भी ऐसे ही कानून को पारित करने का प्रयास किया था, लेकिन उसे असांविधानिक बताकर हाई कोर्ट में चुनौती दी गई। फिर कर्नाटक ने भी हाल ही में इसी तरह के प्रावधानों के जरिये वर्ष 2020 में निजी क्षेत्र को स्थानीय उम्मीदवारों को वरीयता देने के लिए कहा था। लेकिन राज्य के पास यह सुनिश्चित करने के लिए कोई तंत्र नहीं है कि कंपनियां उसके निर्देशों का अनुपालन कर रही हैं या नहीं।

इस तरह के श्रम कानूनों की कई मोर्चे पर आलोचना हुई। यह नेटिविस्ट (स्थानीयता) श्रम कानून और स्थानीय लोगों के लिए चलाए गए आंदोलनों की पैदाइश का ही नतीजा है, जिसे हमने अलग-अलग समय में भारत के कई हिस्सों में देखा है। इस संदर्भ में 19वीं सदी के उत्तरार्ध में निजाम शासित हैदराबाद में मुल्की कानून, 1960 के दशक के बंबई (अब मुंबई) में दक्षिण भारतीय विरोधी आंदोलन और असम में 'माटी के लाल' आंदोलन को देखा जा सकता है। ऐसे कानून असमान रूप से कम वेतन पाने वाले लोगों को ज्यादा प्रभावित करते हैं और जैसा कि जाने-माने प्रवासन विद्वान चिन्मय तुम्बे ने अपने हालिया लेख में बताया है, 'उच्च बेरोजगारी के समय स्थानीयतावाद चरम पर होता है और जब अर्थव्यवस्था बेहतर प्रदर्शन करती है, तो यह धूमिल पड़ जाता है।'

स्थानीयतावाद को लेकर शोर-शराबा शायद ही कभी भारत के असली कानूनों में जगह बना सके, क्योंकि यह चुनाव से पहले वोट खींचने वाले जुमलों तक ही सीमित रह जाता है। आखिरकार, भारतीय संविधान के कई अनुच्छेद जन्म स्थान के आधार पर रोजगार में भेदभाव पर रोक लगाते हैं। जैसा कि जनवरी 2017 में प्रवासन पर कार्य समूह की रिपोर्ट में बताया गया, 2014 में चारू खुराना बनाम भारत संघ मामले में सुप्रीम कोर्ट का फैसला स्पष्ट रूप से कहता है कि रोजगार के मामले में आवास के आधार पर प्रतिबंध असांविधानिक है। दूसरी बात, इतनी ही सख्त आलोचना इसके शुद्ध कार्यान्वयन को लेकर है। इस तरह का कानून अनिवार्य रूप से कानूनी बाधाओं में चलता है। अब आंध्र प्रदेश का ही उदाहरण ले लीजिए, निजी क्षेत्र की नौकरियों में आरक्षण लागू करने वाला यह पहला राज्य बना। इसने एक नया कानून पारित किया, जिसे आंध्र प्रदेश एम्प्लायमेंट ऑफ लोकल कैंडिडेट्स इन इंडस्ट्रीज/ फैक्टरीज बिल, 2019 कहा जाता है, जो मौजूदा उद्योगों को अधिनियम शुरू होने की तारीख से तीन साल के भीतर स्थानीय उम्मीदवारों को 75 फीसदी रोजगार सुनिश्चित करने के लिए कहता है। हालांकि इस विधेयक को असांविधानिक बताकर राज्य के उच्च न्यायालय में चुनौती दी गई है। इसके खिलाफ तर्क दिया जाता है कि यह संविधान के कई प्रावधानों का उल्लंघन करता है। भारत के संविधान में कहा गया है कि धर्म, नस्ल, जाति, लिंग, वंश, जन्म स्थान, निवास या इनमें से किसी के आधार पर किसी के साथ कोई भेदभाव नहीं किया जा सकता है। चूंकि इस कानून को राज्य के उच्च न्यायालय में चुनौती दी गई है, इसलिए इस कानून को अभी कार्यान्वित नहीं किया गया है।

मध्य प्रदेश ने भी स्थानीय लोगों के लिए निजी क्षेत्र की नौकरी में 70 फीसदी आरक्षण कोटा लाने का वादा किया है। लेकिन कई वकीलों का कहना है कि मध्य प्रदेश के कानून की भी वही नियति होगी, जो आंध्र प्रदेश में निजी नौकरी में आरक्षण कोटे की हुई है। ऐसे में भारत की राज्य सरकारों को, चाहे वे किसी भी राजनीतिक दल से संबंधित हों, समझना चाहिए कि अंतरराज्यीय प्रवासन में वृद्धि निश्चित रूप से होगी। यह किसी भी अन्य देश के विकास की दिशा-दशा से स्पष्ट है। स्थानीयतावादी कानूनों में वृद्धि से देश में दरारें गहरा रही हैं। उदाहरण के लिए, उत्तर प्रदेश जैसे राज्य, जो कई अंतर-राज्य प्रवासियों का स्रोत है, अन्य राज्यों के उन कानूनों से प्रभावित होगा, जो निजी क्षेत्र के काम को केवल स्थानीय लोगों के लिए आरक्षित करना चाहते हैं।

हमारे देश में बहुत कम कामगारों के पास सुरक्षित नौकरी है। कामगारों का विशाल बहुमत अनिवार्य रूप से निजी क्षेत्र का हिस्सा है और ऐसे कानूनों से वे श्रमिक बुरी तरह प्रभावित होंगे, जो गरीब हैं। हरियाणा के कानून में आय की सीमा (कटऑफ) से यह स्पष्ट हो जाता है कि अमीर और कुशल श्रमिक काम करने के लिए भारत में कहीं भी जा सकते हैं। हालांकि, इसी तरह के अवसर अंतर-राज्यीय गरीब प्रवासी श्रमिकों को देने से इन्कार किया जाता है। यह समानता के बुनियादी सिद्धांतों के खिलाफ है। जैसा कि प्रवासन विद्वान तुम्बे कहते हैं, 'इस कानून के साथ मूलभूत समस्या यह है कि कम आय वाले प्रवासी श्रमिक एक बार फिर भारत की सार्वजनिक नीतियों के शिकार बन जाएंगे।'

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