देश की सबसे बड़ी कार कंपनी मारुति सुजुकी और बीपीओ कंपनी जेनपैक्ट के अलावा सॉफ्टवेयर व टेक्नोलॉजी में देश-दुनिया की दिग्गज कंपनियों ने गुड़गांव में दफ्तर खोल रखे हैं। इनमें माइक्रोसॉफ्ट, गूगल, टीसीएस और इन्फोसिस जैसे नाम शामिल हैं। यह नया कानून इन कंपनियों के लिए सबसे बड़ी परेशानी खड़ी कर सकता है। बीपीओ या बीपीएम (बिजनेस प्रॉसेस मैनेजमेंट) कारोबार एक तरह से गुड़गांव की जान है।
गुड़गांव को दुनिया की बीपीएम राजधानी भी कहा जाता है। दुनिया में इस काम में लगे लोगों का पांच प्रतिशत हिस्सा गुड़गांव में है। बीपीओ व आईटी कंपनियों के अलावा गुड़गांव और मानेसर के इलाके बडे़ औद्योगिक क्षेत्र हैं। देश की 50 प्रतिशत कारें, 60 प्रतिशत मोटरसाइकिलें और 11 प्रतिशत ट्रैक्टर यहीं पर बनते हैं। इन इलाकों में औद्योगिक विकास के साथ ही यूनियन और मैनेजमेंट के विवाद का भी लंबा इतिहास है। 2012 में मारुति के प्लांट में झगड़ा इतना विकराल हो गया था कि आंदोलनकारियों ने कंपनी के एक बड़े अफसर को जलाकर मार डाला था।
उसके बाद से ही कंपनी ने अपने नए कारखाने दूसरी जगहों पर लगाने का काम तेज कर दिया। दूसरी कंपनियां भी इस क्षेत्र में निवेश करने से पहले काफी सोच-विचार करने लगी हैं। बेरोजगारी का आंकड़ा साफ दिखा रहा है कि हरियाणा में रोजगार की कितनी जरूरत है। सरकारी नौकरियां कम होती जा रही हैं। ऐसे में, चुनाव जीतने के लिए यह नारा बुरा नहीं है कि हम प्राइवेट नौकरियों में भी आरक्षण दिलवा देंगे और कंपनियों की तसल्ली के बारे में भी सोचा गया होगा। इसीलिए शर्त है कि महीने में 50 हजार रुपये से कम तनख्वाह वाली नौकरियों में ही आरक्षण देना होगा।
एक छूट यह भी दी गई है कि योग्य उम्मीदवार न मिलें, तो बाहर के लोगों को रखा जा सकता है, लेकिन ऐसी हर नियुक्ति के लिए सरकार से मंजूरी लेनी होगी। यानी काम में रोड़ा अटकाने का एक और इंतजाम। कारोबारी इसे इंस्पेक्टर राज की वापसी का सुबूत मान रहे हैं।
बीपीओ का तो करीब 80 प्रतिशत स्टाफ इस आरक्षण के दायरे में आ जाएगा। सॉफ्टवेयर कारोबार के जानकारों से बातचीत में पता चलता है कि ऐसी कंपनियों में 70 प्रतिशत से कुछ ही कम स्टाफ पांच साल से कम अनुभव वाला होता है और इनमें से करीब आधे 50 हजार रुपये से कम तनख्वाह पर काम करते हैं। राहत की बात यह है कि आरक्षण का नियम सिर्फ नई भर्ती के लिए है।
कंपनी के मौजूदा स्टाफ पर इसका असर नहीं पड़ना है, लेकिन ये कंपनियां देश भर में साल में लाख-डेढ़ लाख नए लोगों को नौकरियां देती हैं। डर है, अब वे अपना कारोबार गुड़गांव या हरियाणा के बजाय देश के दूसरे हिस्सों में ले जाने की सोचने लगेंगी। कोरोना काल में जब पूरे-पूरे दफ्तर बंद करके वर्क फ्रॉम होम का अनुभव हो चुका है, तब कंपनियों में यह हौसला भी बढ़ चुका है कि वे आसानी से यहां से वहां जा सकती हैं।
लेकिन क्या यह समस्या का हल है? याद कीजिए, वर्ष 2019 में मध्य प्रदेश की कांग्रेस सरकार के मुख्यमंत्री कमलनाथ ने एलान किया था कि वह ऐसा कानून लाएंगे, जिससे निजी कंपनियों को 70 प्रतिशत नौकरियां राज्य के नौजवानों के लिए आरक्षित करनी होंगी। इसके साल भर बाद मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने एलान किया कि प्रदेश की सारी सरकारी नौकरियां स्थानीय लोगों के लिए ही रखने, यानी 100 प्रतिशत आरक्षण का कानून बनाएंगे। इसी किस्म के एलान 1995 में गुजरात और 2016 में कर्नाटक की सरकारें कर चुकी हैं, लेकिन इनमें से कोई भी अमल में नहीं आ सका है।
भारत का संविधान राज्य सरकारों को यह अधिकार नहीं देता कि वे इस तरह के आरक्षण लागू करें, जिससे बराबरी के अधिकार का उल्लंघन होता हो। सर्वोच्च न्यायालय भी कई मामलों में यह साफ कर चुका है कि राज्य सरकारें इस तरह भेदभाव करने वाले नियम-कायदे नहीं बना सकतीं। लेकिन कानूनी प्रावधानों में कुछ गुंजाइश भी है और संसद ने जब रोजगार में इस तरह के भेदभाव खत्म करने के लिए कानून पारित किया, तब कुछ राज्यों को रियायत भी दी गई। इसलिए यह आशंका बेबुनियाद नहीं कि दूसरी सरकारें भी ऐसे कानून बनाने की सोचेंगी। हालांकि, यह भी करीब-करीब तय है कि ऐसा कानून अदालत में टिक नहीं पाएगा। इससे बड़ी चिंता यह है कि देश में रोजगार का संकट कैसे खत्म किया जाए? जब तक उसका इलाज सामने नहीं आएगा, तब तक नीम हकीमों वाले ऐसे नुस्खों का सहारा राजनीतिक पार्टियां और सरकारें लेती रहेंगी।