इंदिरा गांधी को याद करते हुए
एक अदना सा अशुभ लम्हा बरसों-बरस तक कसक देता रहता है
शशि शेखर। एक अदना सा अशुभ लम्हा बरसों-बरस तक कसक देता रहता है, पर कोई समूचा दिन ही अप्रिय घटनाओं से आक्रांत रहा हो, तो वह आपकी स्मृतियों पर कैसे दस्तक देगा? यकीनन, खौफ, वितृष्णा और उकताहट एक साथ आप पर हल्ला बोल देंगे। हर साल 31 अक्तूबर मेरे लिए ऐसी ही साबित होती है। 1984 में इसी दिन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को उनके अंगरक्षकों ने सरकारी आवास में मार डाला था और उसके बाद दिल्ली दरबार और देश के कुछ हिस्सों में हौलनाक हादसे होते रहे। प्रतिहिंसा की वह आग बुझने में कई दिन लग गए थे। बहैसियत पत्रकार मैं उन विषैले लम्हों का गवाह और लेखक था।
आज जब हम इंदिरा गांधी को याद करते हैं, तो ऐसा लगता है, जैसे वह आधुनिक भारत की चुनिंदा निर्माताओं में से एक थीं। वे समाजवादी सपनों के दिन थे, इसलिए हुकूमत संभालते ही उन्होंने ताबड़तोड़ लोक-लुभावन फैसले किए। राजा-महाराजाओं का प्रिवी पर्स खत्म करना हो या बैंकों का राष्ट्रीयकरण, ऐसे कई काम थे, जिन्होंने उस समय सामाजिक-आर्थिक सुधारों का दर्जा पाया। कृपया आज के दिनों से उस वक्त के फैसलों की तुलना मत कर बैठिएगा। वह दूसरे महायुद्ध के बाद उपजे शीत युद्ध से अघाई दुनिया थी। तब के जरूरियात अलग थे। लोकतंत्र में समाज की सबसे निचली सीढ़ी पर बैठे लोगों को इस तरह के निर्णय रुचते थे। इंदिरा गांधी की सुदीर्घ सियासी सफलता का मूल कारण यही था। उनमें कमजोर वर्ग के लोगों को संबोधित और सम्मोहित करने की अद्भुत क्षमता थी। 1971 में उन्होंने कहा था, 'वे कहते हैं इंदिरा हटाओ, मैं कहती हूं गरीबी हटाओे'। गरीबी तो नहीं हटी, पर उनके हक में बैलेट बॉक्स जरूर गरीबों के वोटों से अमीर हो गए।
याद करें, उन्होंने जब सत्ता संभाली थी, उसके दो वर्ष पहले भारत और पाकिस्तान में करारी जंग हुई थी। युद्ध हमेशा आम आदमी की जेब पर भारी साबित होते हैं। तब का हिन्दुस्तान तो वैसे ही कदम-कदम लड़खड़ाता हुआ प्रतीत होता था। विशाल आबादी का पेट भरने के लिए राजकोष में पर्याप्त धन न था और अमेरिका से आया लाल गेहूं बड़ी आबादी को खिलाता और जिलाता था। राष्ट्रपति लिंडन बी जॉनसन भारत को तरह-तरह से आंखें दिखाते थे। कहते हैं, एक बार अमेरिकियों ने गेहूं से लदा जहाज किसी वजह से बीच के किसी बंदरगाह पर रोक दिया था। उस समय नई दिल्ली के हाथों के तोते उड़ गए थे, क्योंकि देश के गोदामों में बेहद सीमित अवधि का खाद्यान्न था। ऐसा लगता था, जैसे हम अमेरिकी रहम-ओ-करम के मोहताज हैं।
यही समय था, जब इंदिरा गांधी ने विशेषज्ञों की सलाह पर कृषि क्षेत्र में नए प्रयोग और सुधार किए। ऐतिहासिक हरित क्रांति उसी की उपज थी। आज भारत के गोदाम यदि अपनी आवश्यकता से अधिक अनाज से भरे हैं, तो इसका काफी कुछ श्रेय इंदिरा गांधी के हिस्से जाता है।
भारत की सीमाओं के प्रति भी वह बेहद संवेदनशील थीं। उन्होंने सिक्किम को युक्तिपूर्वक हिन्दुस्तान का हिस्सा बनाकर इस उपमहाद्वीप के नक्शे को ही बदल डाला था। वह बेहद साहसिक कदम था। चीन की ओर से कड़ा प्रतिरोध आने की संभावना थी और यह आशंका भी जताई जा रही थी कि पड़ोस के छोटे देश सशंकित हो सकते हैं। पर वह दृढ़ प्रतिज्ञ थीं। अपने इसी गुण के चलते वह इससे पहले 1971 में पाकिस्तान को दो टुकड़ों में बांट ही चुकी थीं। वह लड़ाई संसार के सैन्य इतिहास में हमेशा ऊंचा मुकाम रखेगी। यह पहला मौका था, जब किसी देश के 90 हजार से ज्यादा सैन्यकर्मियों को हिन्दुस्तानी फौज के समक्ष घुटने टेकने पर मजबूर होना पड़ा। कल्पना करें, अगर पाकिस्तान इस तरह बंटा न होता, तब क्या होता? कश्मीर के साथ ही बंगाल और पूर्वोत्तर में भी अलगाव के शोले भड़क रहे होते।
उन्होंने एक कमाल और किया था। अमेरिकी राष्ट्रपति रिचर्ड निक्सन की निजी घृणा का शिकार होने के बावजूद इंदिरा गांधी ने हिम्मत नहीं हारी थी। सोवियत संघ के साथ दीर्घकालिक सामरिक समझौता कर उन्होंने भारत को नई बुलंदी और सुरक्षा प्रदान की थी। 18 मई, 1974 को पोकरण में पहला परमाणु परीक्षण उनके नेतृत्व में भारतीय आत्मविश्वास के जयघोष से कम अहमियत नहीं रखता। इसने कई पड़ोसियों के दुस्साहस पर लगाम लगा दी थी। शीतयुद्ध की शिकार दुनिया में किसी अन्य देश ने ऐसा करिश्मा नहीं किया था।
इतनी सफलताओं के बावजूद उनके पैर हमेशा जमीन पर रहते थे। वह लोगों से मिलने, उनसे बातचीत करने में कभी गुरेज नहीं करती थीं। जब हम प्राथमिक कक्षाओं में पढ़ते थे, तब उनके इलाहाबाद आने पर हमें ले जाया जाता। हम पाते कि बहुत से लोग खड़े हैं, उनमें से कुछ के हाथ में काले झंडे भी हैं और वे 'मुर्दाबाद' या 'वापस जाओ' जैसे नारे लगा रहे हैं। पत्रकारों के पूछने पर उनका जवाब होता- विपक्ष को विरोध करने का हक है। लेकिन क्या वह वाकई इतनी उदार थीं?
भारतीय राजनीति में वे कद्दावर विरोधियों के दिन थे। राम मनोहर लोहिया, अटल बिहारी वाजपेयी, जॉर्ज फर्नांडीस जैसे जबर्दस्त लोग उनके सामने खड़े थे। ये सभी उन्हें अधिनायक कहते। आपातकाल लगाकर उन्होंने यह साबित भी कर दिया था। 25 जून, 1975 से 21 मार्च, 1977 तक आपातकाल के 21 महीने उनकी यशगाथा पर वैसे ही चिपके हैं, जैसे चांद पर दाग। राजनीति में वंशवाद को भी उन्होंने ही स्थापित किया। पहले छोटे बेटे संजय को जमाने की कोशिश की और हवाई दुर्घटना में उनके मारे जाने के बाद राजनीति के प्रति विरक्ति रखने वाले बडे़ बेटे राजीव को वह सप्रयास सत्ता के खेल में खींच लाई थीं। वह खुद वंशवाद की उपज थीं और इसे अगर उन्होंने पुख्ता किया, तो इसमें आश्चर्य कैसा?
पंजाब, कश्मीर और उत्तर-पूर्व में अम्नो-अमान कायम करने में भी वह नाकाम रही थीं। हालांकि, लंबे राजनीतिक जीवन में सब कुछ सिर्फ भला-चंगा हो, ऐसा कहां संभव है? इंदिरा गांधी के काम, उनके जाने के 37 बरस बाद भी उनकी याद दिलाते हैं। हम कुंद स्मृतियों के लोग हैं। पर वह काल की शिला पर गहरे हस्ताक्षर उकेर गई हैं। आप आगे भी याद आएंगी।