किसी सरकार का फिर चुना जाना हमेशा ही अच्छे प्रदर्शन का सबूत नहीं होता है
किसी सरकार के द्वारा चुनाव जीतने को मतदाताओं द्वारा उसके काम पर सहमति की मुहर की तरह देखा जाता है
संजय कुमार का कॉलम:
किसी सरकार के द्वारा चुनाव जीतने को मतदाताओं द्वारा उसके काम पर सहमति की मुहर की तरह देखा जाता है। फिर से चुनाव जीतने में सरकार का प्रदर्शन- विशेषकर उसकी आर्थिक नीतियां- केंद्रीय भूमिका निभाता है। लोकनीति-सीएसडीएस के चुनाव-उपरांत सर्वेक्षण ने बताया था कि अटल बिहारी वाजपेयी की एनडीए सरकार लोकप्रिय थी, इसके बावजूद वह 2004 का चुनाव इसलिए हारी, क्योंकि लोगों को लगा कि सरकार के पांच साल के कार्यकाल में उनकी आर्थिक स्थिति पहले से बेहतर नहीं हुई है।
इसी तरह 2014 में कांग्रेसनीत यूपीए सरकार भी इसीलिए हारी, क्योंकि 2009 से 2014 के बीच मतदाताओं की आर्थिक दशा नहीं सुधर सकी थी। इसके विपरीत 2009 में मतदाताओं ने यूपीए सरकार को फिर से इसलिए चुना था, क्योंकि लोगों के मन में अपने परिवार की आर्थिक दशा के प्रति सकारात्मक भावनाएं थीं।
लेकिन अगर हम हाल के सालों के चुनावी नतीजे देखें तो यह धारणा सही नहीं लगती। लोगों ने अपनी आर्थिक दशा बिगड़ने के बावजूद सत्तारूढ़ दलों को फिर से चुना है। महंगाई और बेरोजगारी के प्रति लोगों में आक्रोश होने के बावजूद हाल में हुए चार राज्यों के चुनावों में भाजपा फिर से चुनी गई। 2019 के आम चुनाव में भाजपा को पहले से बड़ा जनादेश मिला था, जबकि तब भी लोग अपनी आर्थिक स्थिति को लेकर सहज नहीं थे।
इससे यही संकेत मिलता है कि किसी सरकार का फिर से चुना जाना हमेशा ही इस बात का परिचायक नहीं होता है कि उसे उसके अच्छे प्रदर्शन और विशेषकर अर्थव्यवस्था के क्षेत्र में किए गए अच्छे काम का पुरस्कार मतदाताओं ने दिया है।
पहले महंगाई या बेरोजगारी से आम जनजीवन प्रभावित होता तो चुनावों में असंतोष की झलक दिखती थी। महंगाई बढ़ने पर सत्तारूढ़ पार्टी का चुनाव हारना तय हो जाता था। अब यह ट्रेंड बदल गया है।
हाल ही में जिन पांच राज्यों में विधानसभा चुनाव हुए थे, उनमें से चार में भाजपा सत्तारूढ़ थी और वहां वह फिर से चुनाव जीती है। पंजाब में कांग्रेस आम आदमी पार्टी से हारी। अलबत्ता यूपी और उत्तराखंड में भाजपा की सीटें घटीं और गोवा और मणिपुर में बढ़ीं, लेकिन कुल-मिलाकर भाजपा ने आराम से ये चारों चुनाव जीत लिए थे।
उत्तराखंड में उसने 70 में से 47 और यूपी में उसने अपने गठबंधन सहयोगियों के साथ मिलकर 403 में से 273 सीटें जीत ली थीं। सीटें घटने के बावजूद इन राज्यों में भाजपा का वोट-शेयर बढ़ा ही था। इसके बावजूद सत्तारूढ़ पार्टी की जीत को उसके काम पर मतदाता की मुहर की तरह नहीं देखना चाहिए। लोकनीति-सीएसडीएस का सर्वेक्षण बताता है कि आज लोगों में बेरोजगारी को लेकर गहरा असंतोष है।
नौकरियां मिल नहीं रहीं और जरूरी चीजों की कीमतें बढ़ रही हैं। सीएमआईई डाटा भी बताता है कि 1991 से 2019 तक- यानी एक लम्बे समय तक- भारत में बेरोजगारी दर 5.5 प्रतिशत पर बनी हुई थी, लेकिन बीते कुछ सालों में यह बढ़ी है और ताजा आंकड़े बताते हैं कि अब यह 7.8 प्रतिशत हो गई है।
सर्वेक्षण में पाया गया कि हर राज्य में लगभग 80 प्रतिशत लोगों ने माना कि बेरोजगारी बढ़ी है, जबकि बहुत कम ने इससे असहमति जताई। कीमतें आसमान छू रही हैं। आटा 2010 में 15 रुपए प्रतिकिलो था, वह अब 35 रुपए प्रतिकिलो हो गया है। पेट्रोल-डीजल और रसोई गैस की कीमतें कहां से कहां चली गईं।
पहले जब महंगाई या बेरोजगारी से आम लोगों का जीवन प्रभावित होता था तो उनके राजनीतिक निर्णयों में उनके असंतोष की झलक दिखती थी। महंगाई बढ़ने पर सत्तारूढ़ पार्टी का चुनाव हारना तय हो जाता था। लेकिन अब यह ट्रेंड बदल गया है। एक साल तक चले किसानों के आंदोलन के बाद पांच राज्यों में चुनाव हुए थे। इस बात के पर्याप्त सबूत हैं कि किसान तीन कृषि कानूनों से ही नाराज नहीं थे, नाराजगी की वजहें और भी थीं।
सर्वेक्षण बताते हैं कि दूसरे रोजगारों में लिप्त लोगों का भी यही मानना है कि किसानों की स्थिति बीते पांच सालों में पहले से बदहाल हुई है। यूपी में यह जनमत सबसे प्रगाढ़ था, जहां 42 प्रतिशत लोग यह मानते हैं कि किसानों की स्थिति बिगड़ी है, केवल 24 प्रतिशत ही ऐसे हैं, जो इससे विपरीत राय रखते हैं। यही विचार पंजाब और उत्तराखंड के बहुमत का भी रहा है।
गोवा चूंकि कृषि प्रधान राज्य नहीं है, इसलिए वहां इस मसले पर इतनी चिंता नहीं दिखाई दी है। लेकिन आमजन में नकारात्मक धारणा के बावजूद सत्तारूढ़ पार्टी का एक नहीं बल्कि चार राज्यों में फिर से चुना जाना आखिर क्या संकेत करता है? चुनावी जीत के मायने क्या हैं, इस बारे में और गम्भीरता से विचार करने का समय आ गया है।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)