राम पुनियानी का लेख: हिन्दू धर्म पर ब्राह्मणवादी परंपरा का वर्चस्व, यही बढ़ती साम्प्रदायिकता का कारण है!
हिन्दू धर्म पर ब्राह्मणवादी परंपरा का वर्चस्व, यही बढ़ती साम्प्रदायिकता का कारण है!
एक टीवी बहस में पैगम्बर मुहम्मद के बारे में नुपूर शर्मा की एक टिप्पणी को ईशनिंदा माना गया। इसके बाद खाड़ी के कुछ देशों और कुछ अन्य मुस्लिम-बहुल राष्ट्रों ने इसका विरोध किया और अमरावती और उदयपुर में निहायत क्रूर और निंदनीय हत्याएं हुईं। जिन लोगों ने ये हत्याएं कीं उन्हें यह पता होना चाहिए था कि स्वयं के अपमान को पैगम्बर किस तरह लेते थे। कहा जाता है कि जब भी वे एक सड़क से निकलते थे, एक महिला ऊपर से उन पर कचरा फेंकती थी। एक दिन जब उन पर कचरा नहीं फेंका गया तो वे उस महिला के घर पहुंचे। वहां उन्हें पता चला कि वह बीमार है। पैगम्बर साहब ने उसकी देखभाल की अंततः उस महिला ने उन्हें अपना आशीर्वाद और शुभकामनाएं दीं।
नुपूर शर्मा की टिप्पणियों से उपजा घटनाक्रम अभी भी चर्चा का विषय बना हुआ है। इस बीच, महुआ मोइत्रा पर देवी काली के बारे में एक टिपण्णी करने के लिए चौतरफा हमले किये जा रहे हैं और उन पर कई थानों में प्रकरण दायर कर दिए गए हैं। उनकी पार्टी ने भी इस मामले में उनसे दूरी बना ली है। महुआ ने ये टिप्पणियां लीना मणिमेकालाई की फिल्म के सन्दर्भ में कीं थीं। इस फिल्म में काली की वेशभूषा में एक महिला को सिगरेट पीते हुए दिखाया गया है। पृष्ठभूमि में प्राइड फ्लैग (एलजीबीटीक्यू समुदाय से सम्बंधित झंडा) दिखलाई दे रहा है। यह फिल्म 'रिदम्स ऑफ़ कनाडा' फिल्म उत्सव में रिलीज़ हुई थी।
महुआ मोइत्रा, जो कि तृणमूल कांग्रेस की सांसद हैं, का कहना है कि वे स्वयं भी देवी काली की भक्त हैं और यह भी कि देवी काली मांस का भक्षण करतीं हैं और उन्हें शराब चढ़ाई जाती है। जब यह बात कहने के लिए उन्हें कठघरे में खड़ा किया गया तो उन्होंने उज्जैन का उदाहरण देते हुए बताया कि वहां भक्तगण अपने कल्याण और समृद्धि की कामना से देवी को शराब पिलाते हैं। महुआ ने कहा, "उज्जैन में नवरात्रि के पर्व का विशेष महत्व है। इस पर्व का समापन एक वार्षिक अनुष्ठान से होता हैं जिसमें उज्जैन का जिला कलेक्टर चौबीस खम्बा मंदिर में महामाया और महालय नामक देवियों की सात फीट ऊंची प्रतिमाओं की जीभ पर देसी शराब की बोतल रखता है। यह मंदिर विश्वप्रसिद्ध महाकाल मंदिर के नज़दीक है।"
काली, दुर्गा और उनके विभिन्न रूप देश और विशेष रूप से बंगाल की प्रमुख देवियों में शामिल हैं। बंगाल के दो प्रतिष्ठित हिन्दू सुपुत्रों रामकृष्ण परमहंस और उनके शिष्य स्वामी विवेकानंद ने देवियों के सम्बन्ध में अत्यंत दिलचस्प और पैनी समझ दर्शाने वाली टिप्पणियां कीं हैं, जो भारतीय धार्मिक परंपरा के विविधवर्णी चरित्र को रेखांकित करती हैं। यही विविधता हिन्दू समाज की आध्यात्मिक धारा की सबसे बड़ी ताकत है।
स्वामी विवेकानंद लिखते हैं कि रामकृष्ण परमहंस के प्रभाव में उन्होंने देवी की आराधना शुरू की और देवी ही उनकी पथप्रदर्शक हैं। ज्योतिर्मय शर्मा नामक एक अध्येता अपनी पुस्तक "ए रीस्टेटमेंट ऑफ़ रिलिजन" में विवेकानंद द्वारा सन 1900 में मे हेल को लिखे एक पत्र को उदृत करते हैं। इस पत्र में विवेकानंद लिखते हैं, "काली की पूजा करना धर्म में आवश्यक नहीं है। उपनिषद हमें धर्म के मर्म से परिचित करवाते हैं। काली पूजा मुझे प्रिय है। परन्तु आपने कभी मुझे यह करने की सलाह किसी और को देते नहीं सुना होगा। न ही आपने कहीं पढ़ा होगा कि मैंने भारत में इसके बारे में कुछ कहा। मैं केवल उन बातों की शिक्षा देता हूं जो संपूर्ण मानवता की भलाई के लिए हों। अगर मैं कोई अजीब सा काम करता हूं तो मैं उसे गुप्त रखता हूं। बात वहीं ख़त्म हो जाती है। मुझे आपको यह समझाने की ज़रुरत नहीं है कि काली पूजा क्या है। मैंने काली पूजा किसी को भी नहीं सिखाई है।"
रामकृष्ण परमहंस एक बहुत गहन-गंभीर बात कहते हैं। शर्मा के अनुसार, रामकृष्ण अपनी दिव्य माता, देवी काली से बात कर रहे हैं। वे कहते हैं, "हे मां, सब लोग कहते हैं कि केवल मेरी घड़ी ही सही समय बताती है। ईसाई, ब्राह्मो, हिन्दू, मुसलमान सभी कहते हैं, 'केवल मेरा धर्म सच्चा है'। हे मां, तथ्य यह है कि किसी की भी घड़ी सही नहीं है। आपके सच्चे रूप को कौन समझ सकता है? परन्तु जो भी पूरी श्रद्धा से आपकी प्रार्थना करता है वह आपकी कृपा से किसी भी राह से आप तक पहुंच सकता है। मां, मुझे दिखाईए कि अपने चर्चों में ईसाई आपकी प्रार्थना कैसे करते हैं। पर हे मां, यदि मैं अन्दर जाऊंगा तो लोग क्या कहेंगे? अगर वे हंगामा खड़ा कर दें तो! अगर वे उसके बाद मुझे काली मंदिर में न घुसने दें तो? तो फिर, मुझे ईसाई प्रार्थना को चर्च के दरवाज़े से दिखाओ।"
यह वर्णन हिन्दू धर्म की विविधता के मर्म को छूता है। वर्तमान में बढ़ती साम्प्रदायिकता के बरक्स, परमहंस और विवेकानंद का जोर उस विविधता पर है, जो आध्यामिकता का मूल है। जहां एक पैगम्बर, एक ईश्वर और एक पुस्तक वाले धर्म कई पंथों में विभाजित हैं वहीं हिन्दू धर्म नाथ, तंत्र, भक्ति, शैव, सिद्धांत और अनेक अन्य परम्पराओं का संगम है। ये परम्पराएं बहुत स्पष्ट नज़र नहीं आतीं क्योंकि हिन्दू धर्म पर ब्राह्मणवादी परंपरा का वर्चस्व है और यही बढ़ती साम्प्रदायिकता का कारण है। आंबेडकर का भी यही कहना था।
वैश्विक स्तर पर आध्यात्मिकता बहुदेववाद (यूनानी पौराणिकता, हिन्दू धर्म इत्यादि) से त्रिदेववाद (ब्रह्मा, विष्णु महेश या पिता, पुत्र और पवित्र आत्मा) से एकेश्वरवाद की ओर बढ़ती रही है। इसके अतिरक्त, दैवीय शक्ति का स्वरुप भौतिक से अमूर्त की ओर यात्रा करता रहा है। इसका एक उदाहरण निरंकार, निर्गुण ईश्वर की परिकल्पना है। स्वामी दयानंद सरस्वती के लिए ज्ञान ही ईश्वर था। गांधी, सत्य और अहिंसा को ईश्वर से जोड़ते थे। समाज के बड़े हिस्से की वंचना की ओर ध्यान आकर्षित करने के लिए स्वामी विवेकानंद ने 'दरिद्रनारायण' शब्द गढ़ा था।
भारत की अचंभित करने वाले विविधता और बहुलता का शानदार वर्णन जवाहरलाल नेहरु ने किया है। वे समाज के बड़े तबके के जीवन में धर्म के महत्व को स्वीकार करते हैं परन्तु अंधश्रद्धा को बढ़ावा देने वालों और अपने राजनैतिक हितों को साधने के लिए धर्म का उपयोग करने वालों से उन्हें कोई सहानुभूति नहीं है। "धर्म मनुष्य के मानस की किसी गहरी आतंरिक जरुरत को पूरा करता है और दुनिया के लोगों में से अधिकांश किसी न किसी धार्मिक मान्यता या आस्था के बिना नहीं जी सकते। धर्म ने बहुत श्रेष्ठ महिलाओं और पुरुषों को जन्म दिया है और धर्मांध, संकीर्ण मानसिकता वाले तानाशाहों को भी।"
हम मानव इतिहास के एक अत्यंत अशांत दौर से गुज़र रहे हैं। एक ओर धर्म के नाम पर आतंकी हमले हो रहे हैं तो दूसरी ओर प्रजातंत्र के विरोधी, धर्म का चोला पहन कर अपनी राजनीति कर रहे हैं। यही वह मूल कारण है जिसके चलते मणिमेकालाई और मोइत्रा जैसे लोग देवी काली की अपने परिकल्पना को अभिव्यक्त करने के लिए एफआईआर का सामना कर रहे हैं।
सॉर्स- नवजीवन