आधी आबादी की दशा सुधारने में निर्णायक सिद्ध होगी विवाह के लिए न्यूनतम आयु बढ़ाना
आधी आबादी की दशा सुधारने
हृदयनारायण दीक्षित. कोई भी समाज व्यवस्था संपूर्ण नहीं होती। उसमें परिवर्तन की आवश्यकता सदैव बनी रहती है। भारतीय समाज में व्याप्त कुरीतियों को दूर करने विशेषकर महिलाओं की दशा सुधारने के लिए तमाम आंदोलन चलते रहे हैं, लेकिन महिला सशक्तीकरण संबंधी सुधार की गति बहुत धीमी थी। महिला सशक्तीकरण की दृष्टि से प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की ताजा पहल महत्वपूर्ण है। मोदी सरकार ने कन्या के लिए विवाह की न्यूनतम आयु 18 साल से बढ़ाकर 21 साल करने का निर्णय लिया है। इससे वर-वधू के लिए विवाह की न्यूनतम आयु एकसमान हो जाएगी। सरकार तत्संबंधी विधेयक लाने वाली है। इस प्रस्ताव का चहुंओर स्वागत हो रहा है, लेकिन कुछ प्रतिगामी तत्व इसका घोर विरोध कर रहे हैं। सपा सांसद शफीकुर्रहमान बर्क, एसटी हसन और पार्टी नेता अबू आजमी ने लज्जाजनक प्रतिक्रिया व्यक्त की है। बर्क ने कहा कि विवाह की उम्र बढ़ाने से लड़कियों को आवारगी का मौका मिलेगा, जिससे हालात बिगड़ेंगे। हसन ने कहा, 'महिलाओं की प्रजनन आयु 16-17 वर्ष से 30 वर्ष तक होती है। शादी में देरी से बांझपन की आशंका बढ़ जाती है।' ऐसे तत्व अपनी पुरानी किताबों का भी सहारा लेते हैं। उनकी मानें तो 18 वर्ष से ऊपर की शिक्षित सुयोग्य, आत्मनिर्भर, अविवाहित बेटियां आवारा हैं। उनकी प्रतिक्रिया घोर आपत्तिजनक है।
भारत में 19वीं सदी से ही महिलाओं की स्थिति सुधारने के गंभीर प्रयास हुए हैं। अग्रणी समाज सुधारक राजा राममोहन राय ने समाज की तत्कालीन जड़ता पर प्रहार किए थे। उन्होंने सतीप्रथा के विरुद्ध 1818 में जनमत बनाया। वह श्मशानों में जाते और विधवाओं के रिश्तेदारों से आत्मदाह को रोकने का आग्रह करते। उन्होंने बहुविवाह का भी विरोध किया और महिलाओं को संपत्ति संबंधी अधिकार भी दिए जाने की मांग की। ईश्वरचंद्र विद्यासागर ने भी 1855 में पुनर्विवाह के पक्ष में शक्तिशाली जनमत बनाया। विधवा पुनर्विवाह के पक्ष में कानून बनाने का अनुरोध किया और कानून बना भी। पहला कानूनी हंिदूू विधवा पुनर्विवाह कोलकाता में 7 दिसम्बर, 1856 को हुआ। उन्होंने 1850 में बाल विवाह के विरोध में भी जनमत बनाया। बहुविवाह के विरुद्ध भी वह सक्रिय रहे। तमिल कवि सुब्रमण्यम भारती ने 'नारी स्वाधीनता' लेख में स्त्री दुर्दशा के सुधार के लिए उत्तर वैदिक काल की गार्गी व मैत्रेयी का उल्लेख किया था। ज्योतिबा फुले, गोपाल हरि देशमुख, जस्टिस रानाडे, केटी तेलंग, डीके कर्वे और अनेक संस्थाओं ने भी महिलाओं की दशा सुधारने के लिए आंदोलन चलाया। उनके प्रयासों से 1891 में लड़कियों के विवाह की आयु 10 वर्ष से बढ़ाकर 12 वर्ष की गई थी।
सभी कानून समाज की आवश्यकता के अनुरूप बदले जाते हैं और नए गढ़े भी जाते हैं। केंद्र सरकार का बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ अभियान पूरे देश में लोकप्रिय है। क्या बेटियों को समुचित शिक्षा देने का अभियान किसी पुरानी किताब के आधार पर गलत सिद्ध किया जा सकता है। शादी की उम्र बढ़ाने से लड़कियों को ठीक से पढ़ने व जीवन संघर्षो की तैयारी करने का विशेष अवसर मिलेगा। भारत में अनेक सामाजिक सुधार आंदोलन लगातार चले हैं। यथास्थितिवादियों द्वारा उसमें अड़ंगा भी लगाया जाता रहा है। समाज सुधार का काम आसान नहीं होता। समाज सुधार के काम में समाज से ही टक्कर लेनी होती है। तीन तलाक संबंधी कानून का भी कट्टरपंथियों द्वारा जबरदस्त विरोध किया गया था, लेकिन सरकार ने उस मामले में अपनी इच्छाशक्ति का परिचय दिया। कानून सामाजिक आवश्यकता से ही बनाए जाते हैं। सामाजिक परिवर्तन के इच्छुक व्यक्ति और समूह अभियान चलाते हैं। सरकारें सामाजिक परिवर्तन की मांग के अनुसार विधायन करती हैं। न्यायपालिका भी प्रसंग के अनुसार इसमें हिस्सा लेती है। लड़कियों को सेना में प्रतिष्ठित करने का आदेश न्यायालय ने ही दिया था।
प्राचीन भारत में स्त्री और पुरुष राष्ट्र जीवन के सभी कार्यो में मिलकर काम करते थे। वैदिक काल में समाज गठन की मूल संस्था परिवार थी और परिवार गठन का मूल अधिष्ठान था विवाह। देवों को भी विवाहित बताया गया है। तब बाल विवाह नहीं थे। ऋग्वेद में विवाहित नववधू के लिए शुभकामना है कि 'वह अपने परिवार की साम्राज्ञी बने। पूरे परिवार की चिंता करे। सबको नियंत्रण में रखे।' इसके लिए कन्या की परिपक्व आयु आवश्यक थी। लोपामुद्रा नाम की ऋषिका मंत्र रचयिता हैं। वह पति ऋषि अगस्त्य को भी मार्गदर्शन देती है। महिलाएं सैन्य अभियानों में भी सक्रिय रही हैं। कैकेयी ने युद्ध अभियान में ही दशरथ की सहायता करके ही उनसे वरदान का अधिकार प्राप्त किया था। झांसी की रानी सहित अनेक महिलाएं भी युद्ध लड़ी थीं। भारत में महिला शक्ति आदरणीय रही है। बेटी को शिक्षित-प्रशिक्षित कर सौभाग्यशाली बनाना सामाजिक कर्तव्य है। यह काम समाज को करना चाहिए। विधायिका व न्यायपालिका को भी। ताजा कानून की घोषणा सरकार ने की है। कायदे से पूरे समाज को इसका दिल खोलकर स्वागत करना चाहिए, लेकिन दुर्भाग्य से ऐसा नहीं हुआ। अस्पृश्यता निषेध कानून भी सामाजिक आवश्यकता का परिणाम था। गांधी, आंबेडकर, डा. हेडगेवार और लोहिया के अभियान भी उल्लेखनीय हैं।
शाहबानो मामले में न्यायालय का निर्णय स्वागतयोग्य था, लेकिन तत्कालीन सरकार ने कट्टरपंथी तत्वों के प्रभाव में उसे पलट दिया। ध्यान रहे कि अब वैसी सरकार नहीं है। भारी विरोध के बावजूद सरकार तीन तलाक कानून से पीछे नहीं हटी। कट्टरपंथी प्रतिगामी शक्तियों के सामने घुटने टेकने की आवश्कता नहीं है। सामाजिक सुधार की दिशा में सभी जरूरी कदम उठाए जाने चाहिए। समाज में सुधार की गुंजाइश हमेशा बनी रहती है। संविधान निर्माता यह जानते थे। उन्होंने नीति निर्देशक तत्वों में राष्ट्रजीवन की तमाम अभिलाषाएं जोड़ी हैं। अनुच्छेद 38 का शीर्षक महत्वपूर्ण है, 'कि राज्य लोककल्याण की अभिवृद्धि के लिए सामाजिक व्यवस्था बनाएगा।' यहां राज्य पर लोककल्याण की वृद्धि के लिए सामाजिक व्यवस्था बनाने का निर्देश है। अनुच्छेद-39 (क) में सभी पुरुष और स्त्रियों को समान रूप से जीविका के पर्याप्त साधन उपलब्ध कराने का निर्देश है। अनुच्छेद-44 अति महत्वपूर्ण है। इसमें 'सभी नागरिकों के लिए एक सामान नागरिक संहिता' बनाने का निर्देश है। भारत को संविधान निर्माताओं के ऐसे सभी आदेशों व सपनों को पूरा करना चाहिए।
(लेखक उत्तर प्रदेश विधानसभा के अध्यक्ष हैं)