जन कचहरी में जनप्रतिनिधि
यह साधारण याचिका नहीं, बल्कि नागरिक समाज द्वारा उन विशेषाधिकारों को सीधी चुनौती है
By: divyahimachal
यह साधारण याचिका नहीं, बल्कि नागरिक समाज द्वारा उन विशेषाधिकारों को सीधी चुनौती है, जो आजादी के बाद नए भारत की सौगात में जनप्रतिनिधियों के नाम अर्जित हुए हैं। जनप्रतिनिधियों के वेतन-भत्ते आयकर की छूट के दायरे में आते हैं और इसी अधिनियम के खिलाफ हिमाचल हाईकोर्ट में याचिका दायर हुई है। देश के जिन राज्यों ने अपने विधायकों का आयकर खुद चुकाने की वकअत दिखाई है, उनमें हिमाचल भी इस परंपरा का अगुआ राज्य है। यह राशि करीब पौने दो करोड़ बनती है और इस तरह अदालत से प्रार्थना की जा रही है कि ऐसे एकतरफा फैसले से निजात दिलाई जाए। जाहिर है यह मामला कानूनी दांवपेंच से कहीं अधिक इस तथ्य को प्रमाणित करता है कि आम नागरिक से कहीं भिन्न हमारे जनप्रतिनिधि हैं और वे अपनी मनमर्जी से कोई फैसला करते हुए, राजनीतिक वर्चस्व के शिरोमणि हो सकते हैं। यह याचिका ठीक उस वक्त आ रही है जब पड़ोसी राज्य पंजाब की आप सरकार ने, विधायकों के पेंशन संबंधी मानक बदलते हुए उन्हें केवल एक पेंशन लेने तक सीमित कर दिया है। ऐसे फैसले से जनता के बीच नई बहस और जनप्रतिनिधियों के अधिकार प्रणाली पर प्रश्न उभरे हैं। इस बहस को सिरे से खारिज नहीं किया जा सकता कि राज्य के खजाने के प्रति घटती जवाबदेही के तर्क ये कदापि नहीं हो सकते कि किसी भी सार्वजनिक नौकर से भिन्न जनप्रतिनिधियों की कामकाजी जरूरतें पूरी की जाएं। राष्ट्र के प्रति हर नागरिक और सार्वजनिक पद की अपनी-अपनी भूमिका है और यह भी कि वित्तीय सुरक्षा का दायरा सभी को एक समान हासिल होना चाहिए। इसी बीच पूरे देश में ओपीएस बनाम एनपीएस के विवेचन व विच्छेदन की धार पर दो धाराएं स्पष्ट हो गई हैं।
यानी एक सामान्य सरकारी कर्मचारी के भविष्य की गाथा तो एनपीएस के दायरे में परिपूर्ण मानी गई, लेकिन यही पंेशन स्कीम जनप्रतिनिधियों के फलक पर मेहरबान व सरकारी वित्तीय संसाधनों की अति उदारता से न्याय करती है। यानी संविधान के सामने दोहरी प्रणालियों का प्रसार इस कद्र हो गया कि एक पेंशन वर्षों की सेवा को एक खांचे में बैठा देती है, जबकि यही कानून बनाने वाले हाथों को इतना सशक्त बनाए रखती है कि जनप्रतिनिधि अपनी एक हाजिरी पर जिंदगी भर का मुकाम हासिल कर लेते हैं। यह परिपाटी वर्षों से चल रही थी, लेकिन अब सेवा और स्वार्थ पर जन अदालत में फैसला होने लगा है। यह देश के संसाधनों को राजनीतिक अमानत मानने के खिलाफ भी नागरिक आक्रोश है, जो यह अपेक्षा रखता है कि जनप्रतिनिधि कम से कम उन न्यायोचित फैसलों से जुड़ें, जिस प्रकार आम जनता या सरकारी कर्मचारी अपनी मेहनत और मजदूरी का हक पाते हैं। पेंशन को लेकर सामाजिक सुरक्षा की गुत्थियां भले ही सरकारें खोल रही हैं, लेकिन नागरिक समाज का एक वृहद पक्ष अब यह चाहने लगा है कि हर व्यक्ति के जीवन में आते हुए आयु विराम या रिटायरमेंट आयु को अंगीकार करते हुए, सरकारी पेंशन का भुगतान ऐसे हो कि उसकी आवश्यक जरूरतें पूरी हो जाएं। यानी साठ-पैंसठ साल के किसान, मजदूर, गैर सरकारी क्षेत्र के कर्मचारी तथा अन्य वर्गों से संबंधित लोगों के लिए भी राज्य पोषित पेंशन का भुगतान हो।
जमीन की ताकत को अनाज उत्पादन से जोड़ते किसान या राष्ट्र के विकास की हर ईंट को जोड़ते मजदूर के लिए उसका श्रम क्यों जिंदगी के अंतिम एहसास में राज्य पोषित पेंशन का हकदार न बने। बहरहाल हम एक अदालती मामले को केवल इस निगाह से देख पा रहे हैं कि जनता वास्तविक लोकतांत्रिक परख में यह भेदभाव मिटाना चाहती है। हमारे जनप्रतिनिधि सार्वजनिक खजाने से इतने लबालब न हो जाएं कि सामान्य जनता एडि़यां रगड़ते-रगड़ते यह भूल जाए कि सार्वजनिक धन के इस्तेमाल की कोई सीमा व मर्यादा होना लाजिमी है। आम मध्यमवर्गीय परिवार किसी न किसी रूप में अपनी बचत से जीवन की लौ जलाना चाहते हैं और इसीलिए नौकरीपेशा समाज लगातार केंद्रीय बजट से आयकर की कुछ छूट चाहता है। विडंबना यह है कि उसकी बचत अब बैंकिंग प्रणाली व देश की आर्थिक स्थिति के आगे अति दरिद्र साबित हो रही है, जबकि आयकर दरों का वह एकमात्र देशभक्त बना दिया गया है। ऐसे में जनता ने जनप्रतिनिधियों के विशेषाधिकारों को भविष्य की ऐसी खाई मान लिया है, जहां गाहे-बगाहे न्याय की संवेदना ही घायल होगी। चुनाव की अगली पायदान पर जनता अगर ऐसे विषयों को मुद्दा बना दे, तो इस पहल का हर मतदाता के मानस पटल पर खासा असर हो सकता है।