कजाकिस्तान में शुरू हुआ विरोध प्रदर्शन भारत के लिए बड़ी मुसीबत खड़ी कर सकता है
विरोध प्रदर्शन भारत के लिए बड़ी मुसीबत खड़ी कर सकता है
कार्तिकेय शर्मा।
कजाकिस्तान (Kazakhstan) के राष्ट्रपति कासीम-जोमार्ट तोकायेव (Kassym-Jomart Tokayev) ने शुक्रवार को कानून-व्यवस्था संभालने वाली एजेंसियों को सरकार के खिलाफ प्रदर्शन कर रहे लोगों को देखते ही गोली मारने का आदेश दिया. ईंधन की कीमतों में बढ़ोतरी (High Fuel Price) के खिलाफ बड़ा आंदोलन शुरू होने के कुछ दिन बाद सरकार ने ये आदेश दिया है.
कजाकिस्तान में पूर्व राजदूत, अशोक सज्जनहार (Ashok sajjanhar) ने TV9 को एक विशेष साक्षात्कार में बताया कि मध्य एशियाई (Central Asia) देश में संकट दक्षिण एशिया (South Asia), विशेष रूप से भारत, के लिए अच्छा नहीं है. उन्होंने कहा कि देश में अस्थिरता से आतंकवादी संगठनों के स्लीपर सेलों को बढ़ावा मिलेगा, जो क्षेत्रीय शांति और सुरक्षा के लिए हानिकारक होगा.
कजाकिस्तान में संकट क्यों आया?
तात्कालिक कारण एलपीजी की बढ़ी हुई कीमतें हैं. कजाकिस्तान के नागरिक कार के ईंधन के रूप में एलपीजी का इस्तेमाल करते हैं. देश में ईंधन की कीमतों को दोगुना कर दिया गया है. हालांकि इसने अब भ्रष्टाचार, असमानता और अमीर और गरीब के बीच की खाई को और गहरा कर दिया है और राजनीतिक स्वतंत्रता भी कम हो गई है, जो यहां के राजनीतिज्ञ लंबे समय से सही करने का वादा करते रहे हैं.
2019 में पदभार ग्रहण करने वाले राष्ट्रपति तोकायव ने कहा था कि वो एक ऐसी सरकार बनाने जा रहे हैं जो लोगों की बात सुनती है. लेकिन पिछले ढाई साल में इस दिशा कुछ खास नहीं किया गया. इसलिए मैं समझता हूं कि इस मुद्दे पर लंबे समय से लोग अपने गुस्से को रोके हुए थे जो देश के पश्चिमी हिस्से में मौजूद तेल समृद्ध प्रांत में विरोध के साथ फूट पड़ा और अब दूसरे शहरों में भी फैल गया है.
इन विरोध प्रदर्शनों का मध्य एशिया में क्या असर पड़ेगा?
1991 में सोवियत संघ के विघटन के बाद स्वतंत्र होने वाले सभी देशों में से कजाकिस्तान वास्तव में सबसे सफल, स्थिर, शांतिपूर्ण और समृद्ध देश रहा है. देश ने जिस तरह से अपनी विविधता को संभाला है वो एक आदर्श मॉडल बन गया है. देश में 130 से अधिक जातीय अल्पसंख्यक और संप्रदाय हैं. मुझे लगता है कि विरोध प्रदर्शनों से देश की छवि और प्रतिष्ठा को बड़ा धक्का लगा है. अब कजाकिस्तान की स्थिरता पर भी एक प्रश्नचिह्न लग गया है, जो पहले तुर्कमेनिस्तान, ताजिकिस्तान, कजाकिस्तान, उज्बेकिस्तान और किर्गिस्तान के राजनीतिक नेतृत्व पर लगता था. अब ये किसी भी तरफ जा सकता है. सभी देश पहले से अधिक सत्तावादी बन सकते हैं, जिस कारण वहां पर हिंसा, अराजकता और तबाही जैसी समस्याएं पैदा हो सकती हैं. दूसरी तरफ वो पहले से अधिक लोकतांत्रिक भी हो सकते हैं. मगर मैं कहूंगा वो पहले से ज्यादा निरंकुश हो जाएंगे.
क्या इन घटनाक्रमों का असर दक्षिण एशिया पर भी पड़ेगा?
दक्षिण एशिया खासकर भारत के लिए यह अच्छी खबर नहीं है. हम जानते हैं कि इन देशों में बड़ी संख्या में आतंकवादियों के स्लीपर सेल मौजूद हैं. इन जगहों पर सत्तावादी शासन है, जैसा अफगानिस्तान में भी है. जहां कई आतंकवादी संगठन काम करते हैं. वो सब इससे प्रोत्साहित और उत्साहित महसूस करेंगे. मध्य एशियाई देशों में स्लीपर सेल को भी प्रोत्साहन मिलेगा. अगर मध्य एशिया में समस्या और अस्थिरता पैदा करने वाले आतंकवादी गुट हैं तो यह भी संभव है कि इनका प्रभाव दक्षिण एशिया भी में महसूस किया जाएगा. खासकर तब जब इन देशों में कट्टरवाद बढ़ता है तो दक्षिण एशिया की स्थिति पर गंभीर प्रभाव पड़ सकता है.
क्या रूस इस विरोध का इस्तेमाल उत्तरी अटलांटिक संधि संगठन (NATO) को पीछे हटाने के लिए कर रहा है?
नाटो अब इस क्षेत्र से बाहर जा चुका है. वह अफगानिस्तान में 20 साल से था, लेकिन मध्य एशिया में इसकी कोई उपस्थिति नहीं रही है. 2005 तक उज्बेकिस्तान में अमेरिका का बेस था. किर्गिस्तान में भी 2014 तक मानस बेस मौजूद था. इस क्षेत्र से अमेरिका को भी बाहर निकाल दिया गया था. नाटो मोटे तौर पर यहां अनुपस्थित रहा है, ना तो यूरोप और ना ही अमेरिका यहां है. मेरे विचार से अमेरिका और यूरोप के पास मध्य एशिया को लेकर कोई रणनीतिक दृष्टिकोण नहीं है. कुछ निवेशों को छोड़ दें तो अमेरिका ने मध्य एशिया को हमेशा से अफगानिस्तान के ही नजरिए से देखा है, कि किस तरह के संबंध उनके साथ स्थापित किए जाएं.
मध्य एशिया को लेकर उनके पास कोई स्पष्ट नीति नहीं है. यहां रूस के लिए मध्य एशिया से संबंध स्थापित करने के लिए अच्छा अवसर है. इसे यहां चीन से चुनौती मिल रही है जो न केवल आर्थिक क्षेत्र में बल्कि सुरक्षा क्षेत्र में भी अपनी दखल बढ़ा रहा है. तुर्की भी कम से कम पांच में से चार देशों में अपनी पैठ बना रहा है. ईरान भी वहां पैर जमाने की कोशिश कर रहा है. रूस मौके का फायदा उठाकर एक बार फिर इस इलाके में अपना प्रभुत्व स्थापित कर ये संदेश देने की कोशिश करेगा कि वह इस क्षेत्र में सबसे बड़ी शक्ति है.
क्या मौजूदा विरोध 'अरब स्प्रिंग' की तरह हैं? क्या यह 'मध्य एशियाई स्प्रिंग' होगा?
यहां की स्थिति कुछ हद तक वैसी ही है. मगर अभी कुछ भी कहना जल्दबाजी होगी. यहां पर दो परस्पर विरोधी विचार हैं. राष्ट्रपति कहते रहे हैं कि इसमें विदेशी आतंकवादी और आपराधिक तत्व शामिल हैं. हालांकि इस दावे का कोई सबूत नहीं है. इसके लिए हमें थोड़ा और इंतजार करना होगा. अगर ये विद्रोह घरेलू है जो अलग-अलग कारणों से सरकार का विरोध कर रहा है तो ये अधिक सहज और स्वाभाविक है. तब ऐसा लगेगा कि ये 'अरब स्प्रिंग' का 'कजक वेरिएंट' है. मध्यम वर्ग, युवा और छात्र खुल कर प्रदर्शन करने बाहर निकल आए हैं, मगर सरकार की जानकारी के बिना कैसे ये मामला इतना भड़क गया, ये बड़ा सवाल है. ये कोई 'स्प्रिंग' है या नहीं इसके लिए हमें थोड़ा और इंतजार करना होगा जब हमारे पास और जानकारी आ जाएगी.
क्या इससे पूर्व राष्ट्रपति नूरसुल्तान नजरबायेव का शासन समाप्त हो गया है?
तोकायेव पूर्व राष्ट्रपति नजरबायेव के विश्वसनीय सहयोगी और विश्वासपात्र रहे हैं. ऐसा नहीं है कि तोकायेव नज़रबायेव के खिलाफ थे. जब नज़रबायेव ने पद छोड़ा तो उन्होंने खुद तोकायेव को सत्ता सौंप दी जो उस वक्त सीनेट के अध्यक्ष थे. कजाकिस्तान में हर शख्स नज़रबायेव का करीबी रहा है. ऐसी धारणा बनी है कि नज़रबायेव के दौरान तीस साल में जो आर्थिक प्रगति हुई उसका फायदा केवल उनके करीबी प्रबुद्ध वर्ग ने उठाया. इसका फायदा ट्रिकल डाउन इफेक्ट के साथ वहां के मध्यम वर्ग या गरीबों तक नहीं पहुंचा. नज़रबायेव भले ही सत्ता छोड़ गए हों मगर अब भी 'लीडर ऑफ दे नेशन' का संवैधानिक पद उनके पास है. वह अब राष्ट्रीय सुरक्षा परिषद के प्रमुख नहीं हैं, न ही वह अब सत्ताधारी दल के मुखिया हैं. उनकी शक्ति काफी कम हो गई है. ऐसा लगता है कि सड़क पर जो लोग प्रदर्शन कर रहे हैं वो नज़रबायेव का विरोध कर रहे हैं ना कि तोकायव का, जो नज़रबायेव के विश्वासपात्र और भरोसेमंद सहयोगी हैं.