वनों की रक्षा
संरक्षित वनों, राष्ट्रीय वन्यजीव अभयारण्यों और राष्ट्रीय उद्यानों को मानवीय गतिविधियों से दूर रखने और बचाने के लिए सुप्रीम कोर्ट ने जिस तरह का सख्त रुख अख्तियार किया है
Written by जनसत्ता: संरक्षित वनों, राष्ट्रीय वन्यजीव अभयारण्यों और राष्ट्रीय उद्यानों को मानवीय गतिविधियों से दूर रखने और बचाने के लिए सुप्रीम कोर्ट ने जिस तरह का सख्त रुख अख्तियार किया है, वह पर्यावरण को बचाने की दिशा में निश्चित रूप से बड़ा कदम है। वन संरक्षण को लेकर जनहित याचिकाओं की सुनवाई करते हुए अदालत ने अपना रुख साफ कर दिया कि पर्यावरण संरक्षण के मामले में कहीं कोई ढील या लापरवाही नहीं बरती जा सकती। इस मामले में अदालत ने एक महत्त्वपूर्ण आदेश जारी करते हुए हर संरक्षित वन क्षेत्र में पर्यावरण के लिहाज से संवेदनशील क्षेत्र बनाने को कहा है।
इस क्षेत्र का दायरा कम से कम एक किलोमीटर का होगा। इस एक किलोमीटर के दायरे में किसी भी तरह की निर्माण, खनन, कारखाना, फैक्ट्री या औद्योगिक इकाई या ऐसी कोई भी मानवीय गतिविधि जो जंगल और उसके पर्यावरण को नुकसान पहुंचाने वाली हो, प्रतिबंधित रहेगी। इस प्रतिबंधित दायरे में किसी भी तरह का स्थायी निर्माण नहीं किया जा सकेगा। लगता है सुप्रीम कोर्ट को यह सख्त उठाने को मजबूर इसीलिए होना पड़ा कि वनों के बचाने में राज्य सरकारें नाकाम साबित होती दिख रही हैं और वन क्षेत्र में ऐसी गतिविधियां तेजी से बढ़ रही हैं जो उन्हें भारी नुकसान पहुंचा रही हैं।
देखा जाए तो संरक्षित वन क्षेत्रों की रक्षा का काम राज्य सरकारों का है। हर राज्य में वन विभाग का अलग बड़ा महकमा होता है। इसके पास संसाधनों से लेकर अधिकारों तक में कोई कमी हो, ऐसा भी नहीं लगता। फिर भी हैरानी की बात यह है कि संरक्षित वन क्षेत्रों के लिए खतरा बढ़ता जा रहा है। वन क्षेत्रों में कटाई से लेकर अतिक्रमण की घटनाएं बढ़ती जा रही हैं।
हालांकि संरक्षित क्षेत्र में स्थानीय लोगों को वनोपज पैदा करने और अपने मवेशी चराने की छूट रहती है। पर देखने में आता है कि वहां लोग कब्जा कर लेते हैं, निर्माण कर लेते हैं, लकड़ियां काटते हैं और इस तरह संरक्षित वन क्षेत्र की वन संपदा को हर तरह से नुकसान पहुंचता रहता है। अगर ऐसी गतिविधियों पर रोक नहीं लगाई जाती है तो निश्चित रूप से संरक्षित वन एक न एक दिन आपना प्राकृतिक स्वरूप खो बैठेंगे और अंतत: इसका खमियाजा पर्यावरण विनाश के रूप में मनुष्य को ही उठाना पड़ेगा। सरकारें चाहें तो संरक्षित वन में वे संवेदनशील क्षेत्र का दायरा बढ़ा भी सकती हैं, लेकिन एक किलोमीटर का दायरा तो न्यूनतम रखना ही होगा।
दरअसल वन भूमि पर अतिक्रमण एक बड़ी समस्या है। शहरों के विस्तार ने इसे और बढ़ाया है। हालांकि बढ़ती मानवीय जरूरतें इसका बड़ा कारण हैं। आबादी और उसकी जरूरतें बढ़ने के साथ शहरों का दायरा बढ़ना स्वाभाविक ही है। आज शहरों और महानगरों का जो विस्तार हो रहा है, उसमें वन भूमि को बचा पाना आसान नहीं है। फिर, शहरीकरण को ही विकास का पर्याय बना दिया गया है।
ऐसे में मानवीय गतिविधियों को सीमित कर पाना कैसे संभव होगा? वन संरक्षण कानून लाया ही इसलिए गया था कि वनों से पेड़ों की अवैध कटाई रोकी जा सके। लेकिन पिछले कुछ दशकों में जंगलों का जिस तेजी दोहन होता गया, उसने बड़े खतरे खड़े हो गए। पर्यावरण संतुलन गड़बड़ा गया है और इसका खमियाजा प्राकृतिक आपदाओं के रूप में सामने आ रहा है। जाहिर है, ऐसे में विकास और पर्यावरण में संतुलन बनाना ही होगा। संरक्षित वनों में संवेदनशील क्षेत्र बनाने की अनिवार्यता में सुप्रीम कोर्ट की यही चिंता छिपी है।