तालिबान के रवैये से बढ़ी मुश्किलें : पर्दे के पीछे अलकायदा से नजदीकी और दिखावटीपन की के पीछे की वजहें

मंदिरों और गुरुद्वारों को नुकसान पहुंचाया गया है।

Update: 2022-09-20 01:43 GMT

अफगानिस्तान की सत्ता पर पिछले साल 15 अगस्त को तालिबान ने कब्जा कर लिया था, जो दूसरे साल भी जारी है। वहां हालात काबू में नहीं आ रहे। कब्जे से पहले दोहा (कतर) में तालिबान और अमेरिका के बीच एक समझौता हुआ था, जिसमें तालिबान ने वायदा किया था कि वे अल कायदा और दूसरे दहशतगर्द संगठनों के साथ कोई संबंध नहीं रखेंगे और अफगानिस्तान की धरती का इस्तेमाल किसी और देश के खिलाफ नहीं करने देंगे।



लेकिन काबुल के सुरक्षित इलाके में अपने परिवार के साथ रह रहे अल कायदा के अमीर अयमान अल जवाहिरी अमेरिकी ड्रोन हमले में मारे गए। उसके बाद दुनिया को असलियत का पता चल गया कि तालिबान अब भी अल कायदा के काफी निकट है। तालिबान की ऐसी दोहरी नीतियों के कारण ही उसकी सरकार को मान्यता नहीं मिली। सच तो यह है कि तालिबान सरकार दोहा समझौते पर पूरी तरह अमल नहीं कर पा रही है और यही कमजोरी विश्व बिरादरी की तालिबान सरकार को मान्यता देने में रुकावट डाल रही है।


वे देश भी आगे बढ़ने को तैयार नहीं, जो तालिबान सरकार के साथ हमदर्दी रखते हैं। अब भी कई ऐसे मुद्दे हैं, जिनके कारण तालिबान में गहरे मतभेद पाए जाते हैं, जैसे लड़कियों की पढ़ाई और महिलाओं की नौकरी का मुद्दा इत्यादि। इसका कारण यह है कि देश में अब तक समावेशी सरकार कायम नहीं हो पाई है। यह तय हुआ था कि सरकार में सभी समुदायों और वर्गों का प्रतिनिधित्व होगा। पर अभी तक ऐसा नहीं हो सका। सरकार में पश्तून और उज्बेक का ही दबदबा है।

नतीजतन आपसी मतभेदों के कारण मंत्रिमंडल में तब्दीलियां होती ही रहती हैं। चंद दिन पहले ही उप-सूचना मंत्री जबीउल्लाह मुजाहिद को इस्तीफा देना पड़ा। मानवाधिकारों का हनन बराबर जारी है। सरकार पर कट्टरपंथियों का नियंत्रण है, जिसका नुकसान जनता को हो रहा है। तालिबान अपनी प्रतिबद्धताओं को लागू करने में विफल रहे हैं और कड़ी नीतियां फिर से लागू कर रहे हैं। महिलाओं का हिजाब पहनना अनिवार्य है और उन पर सार्वजनिक तौर पर काम करने पर प्रतिबंध लगा है।

वे अकेले यात्रा नहीं कर सकतीं और उन्हें ड्राइविंग लाइसेंस देने पर रोक लगा दी गई है। शिक्षा प्राप्त करने के लिए लड़कियों को काबुल छोड़ने की अनुमति नहीं है। अगर महिलाएं इन प्रतिबंधों के खिलाफ आवाज उठाती हैं और प्रदर्शन करती हैं, तो उन्हें गिरफ्तार कर लिया जाता है। हजारों अल्पसंख्यक तालिबान के जुल्मों से छुटकारा पाने के लिए पलायन कर गए हैं। मंदिरों और गुरुद्वारों को नुकसान पहुंचाया गया है।

तालिबान दोहा समझौते में वायदा कर चुके हैं कि देश में ऐसी चीजों की खेती बंद कर देंगे, जिससे नशीले पदार्थ तैयार होते हैं और उनकी स्मगलिंग पर सख्ती से रोक लगा दी जाएगी। पर सरकार इस कारोबार को बंद नहीं कर सकी। यही कारण है कि सारी दुनिया में तालिबान की छवि खराब है। देश की आर्थिक हालत बुरी तरह चरमरा गई है। उसको कहीं से माली मदद नहीं मिल पा रही। अमेरिका ने अफगान सेंट्रल बैंक की 3.5 अरब डॉलर की जब्त की हुई रकम लौटाने से इनकार कर दिया है।

दरअसल अमेरिका इस बात की गारंटी नहीं दे सकता कि यह रकम दहशतगर्दों के हाथ नहीं जाएगी। संयुक्त राष्ट्र ने आगाह किया है कि बढ़ती गरीबी से जूझ रहे अफगानिस्तान के 60 लाख लोगों के अकाल से प्रभावित होने का खतरा मंडरा रहा है। देश मानवीय, आर्थिक, जलवायु, भुखमरी और कई वित्तीय संकटों का सामना कर रहा हैं। उसने दानदाताओं से अनुरोध किया है कि अफगानिस्तान की दिल खोलकर मदद करें। इसके अलावा भुखमरी खत्म करने में प्रतिदिन आने वाले खाने की चीजों को उपलब्ध कराएं।

कई देश बराबर मानवीय आधार पर मदद कर रहे हैं। भारत ने भी कई लाख टन गेहूं व खाद्य सामग्री भेजी है, जिसकी अफगान जनता तारीफ कर रही है। इससे भारत का तालिबान सरकार के साथ सीधा संपर्क भी स्थापित हुआ है। अफगानिस्तान के मौजूदा संगीन हालात को देखते हुए, यही कहा जा सकता है कि जब तक तालिबान की कट्टरपंथी सोच और रवैया नहीं बदलेगा, जनता का भरोसा प्राप्त नहीं होगा तथा वहां के हालात दिन-प्रतिदिन और खराब होंगे।

सोर्स: अमर उजाला 

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