प्रधानमन्त्री का खुला आह्वान

प्रधानमन्त्री श्री नरेन्द्र मोदी ने आज किसानों के मन से नये कृषि कानूनों का भय दूर करने का प्रयास किया है

Update: 2020-12-26 05:20 GMT

जनता से रिश्ता वेबडेस्क। प्रधानमन्त्री श्री नरेन्द्र मोदी ने आज किसानों के मन से नये कृषि कानूनों का भय दूर करने का प्रयास किया है और स्पष्ट किया है कि सरकार सभी आन्दोलनकारियों के प्रतिनिधियों से खुले मन से बातचीत करने को तैयार हैं। श्री मोदी ने कृषि क्षेत्र को सीधे खुली बाजार व्यवस्था से जोड़ने के लाभों के बारे में भी विस्तार से चर्चा की और उन सन्देहों को दूर करने की कोशिश की जो आन्दोलनकारी किसानों के मन में उठ रहे हैं। राजनीतिक रूप से प्रधानमन्त्री का सम्बोधन विचारोत्तेजक कहा जायेगा जिससे देश में नये कृषि कानूनों के फायदों को लेकर भी तार्किक बहस छिड़ सकती है।


लोकतन्त्र में जमीनी हकीकत से जुड़े मुद्दों पर बहस को शुभ लक्षण माना जाता है क्योंकि इनसे आम व सामान्य वर्ग की जनता का सीधा लेना-देना होता है। इस व्यवस्था में सरकारें इसी वर्ग के वोट से बनती-बिगड़ती हैं। इसका प्रमाण यह है कि 2015-16 की जनगणना के अनुसार भारत की आबादी के कुल 23 करोड़ परिवारों में से 14.64 करोड़ किसान परिवार हैं। अतः जनतान्त्रिक व्यवस्था में इस वर्ग की हिस्सेदारी सबसे बड़ी है। अतः देश के नौ करोड़ के लगभग छोटे किसानों के खातों में वार्षिक आधार पर तीन किश्तों में छह हजार रुपए सरकारी खजाने से भेजने की घोषणा श्री मोदी की सरकार ने वर्ष 2018 में की थी। इस योजना को प्रधानमन्त्री किसान सम्मान निधि नाम दिया गया। इस हिसाब से प्रतिमाह नौ करोड़ किसानों को पांच सौ रुपये महीना मिलते हैं। इस योजना का सर्वत्र स्वागत किया गया। इससे यह भी जाहिर होता है कि सरकार किसानों की माली हालत में कुछ योगदान करके सुधार करना चाहती है, परन्तु इसके समानान्तर यह भी सत्य है कि पिछले कुछ वर्षों में कृषि उपज लागत में खासी वृद्धि हुई है। कृषि उर्वरकों व कीटनाशकों के दाम महंगे हुए हैं और विभिन्न कृषि मशीनरी पर जीएसटी लागू किया है। इससे सरकारी राजस्व में इजाफा हुआ है। मील मुद्दा यही है कि बाजार की शक्तियों से निर्देशित होती कृषि उपज का लागत मूल्य बढ़ने का प्रभाव सीधे उपज के बाजार मूल्यों पर भी पड़ना चाहिए। प्रधानमन्त्री का लक्ष्य यही लगा कि वह किसानों को यह खोल कर बता सकें इस वातावरण में उन्हें अपनी उपज का मूल्य स्वयं तय करने के अधिकार से लैस करना पूरी तरह जरूरी है और ठेके पर कृषि प्रथा शुरू होने से किसानों के पक्ष में पलड़ा झुका रहेगा।

दरअसल सरकार कृषि को बाजार मूलक अर्थव्यवस्था का अंग बना कर किसानों को अपनी फसल का लाभप्रद दाम अपने लागत खर्च के अनुरूप तय करने के लिए प्रेरित कर रही है और अपनी फसल को कहीं भी लाभप्रद मूल्य पर बेचने के लिए तैयार करना चाहती है। इसके साथ ही सरकार न्यूनतम समर्थन मूल्य प्रणाली व कृषि मंडी तन्त्र जारी रखेगी। प्रधानमन्त्री ने अपने सम्बोधन में यह प्रश्न भी उठाया कि किसान आन्दोलन में शामिल कुछ विरोधी पार्टियां केरल राज्य में मंडी प्रणाली चालू करने की मांग क्यों नहीं करती है? जाहिर है उनका इशारा वामपंथियों और कांग्रेस की तरफ था। उन्होंने यह भी याद दिलाया कि 2014 में उनकी सरकार आने से पहले कृषि उत्पादन मूल्य के बारे में गठित स्वामीनाथन आयोग की सिफारिशों को उन विपक्षी दलों की सरकारों ने क्यों लागू नहीं किया जब वे स्वयं सत्ता में थे? उन्होंने प. बंगाल की ममता सरकार द्वारा किसान सम्मान योजना शुरू न करने को भी राजनीतिक मुद्दा बनाया।

प्रधानमन्त्री ने यह चुनौती भी दी कि इन नये कृषि कानूनों की मुखालफत करने के लिए विपक्ष के पास कोई ठोस तर्क नहीं है इसलिए वह किसानों में भय का माहौल पैदा करना चाहता है। असल में किसान आन्दोलन का हमें वैज्ञानिक व तर्कपूर्ण विश्लेषण करने की जरूरत है। पूरे देश में पंजाब व हरियाणा और प. उत्तर प्रदेश ऐसे इलाके हैं जहां सम्बन्धित राज्य की खपत से बहुत ज्यादा कृषि उत्पादन होता है। इन राज्यों में सरकार इनकी उपज समर्थन मूल्य पर खरीदती है। इसमें गेहूं व धान मुख्य रूप से आते हैं। शेष राज्यों में पैदावार उनकी खपत के अनुसार ही हो पाती है और वहां बिक जाती है। अतः पंजाब व हरियाणा के किसानों को विशेष रूप से डर है कि नये कानूनों के आ जाने से उनकी उपज के दाम गिर जायेंगे इसीलिए वे न्यूनतम समर्थन मूल्य को कानूनी जामा पहनाने की मांग कर रहे हैं और यही वजह है कि अन्य राज्यों के किसान आन्दोलन में ज्यादा रुचि नहीं ले रहे हैं। हालांकि परोक्ष रूप से वे भी न्यूनतम समर्थन मूल्य को संवैधानिक अधिकार बनाये जाने के पक्ष में हैं। पूरे किसान आन्दोलन का निचोड़ यही है जिस पर इतना बावेला मचा हुआ है। प्रधानमन्त्री ने आज छह राज्यों के नई व्यवस्था के लाभार्थी किसानों से बात करके यह संशय मिटाने की कोशिश भी की कि ठेका प्रथा आ जाने से किसानों की जमीन पर संकट आ जायेगा, परन्तु नये कृषि कानूनों के तहत हमें उन संशोधनों की तरफ भी ध्यान देना चाहिए जिनकी अनुशंसा पिछली सरकारों के दौरान एक मत से की गई थी। इनमें किसान उत्पादक संघों की संरचना का विचार महत्वपूर्ण है जिसकी सिफारिश पंजाब के तत्कालीन राज्यपाल श्री शिवराज पाटील की अध्यक्षता में राज्यपालों की बनी एक समिति ने की थी। इस समिति के सामने लगातार घटती कृषि जोतों से किसानों के समक्ष पैदा होने वाले आर्थिक संकट से उबरने के उपाय सुझाना था। इसने ही यह सिफारिश की थी कि छोटे-छोटे किसानों के समूह बना कर उनकी तय की गई उपजायी गई फसल के सामूहिक विपणन की प्रथा को बढ़ाया जाना चाहिए। अतः किसानों की समस्याओं का समाधान ढूंढ़ते समय हमें सभी पक्षों का तार्किक अध्ययन करना चाहिए।


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