अफगानिस्तान में बदले हालात के हिसाब से सही दांव चलना भारत सरकार के लिए टेढ़ी खीर
फगानिस्तान से अमेरिकी सैनिकों की वापसी तो सुनिश्चित थी
जनता से रिश्ता वेबडेस्क| तिलकराज| अफगानिस्तान से अमेरिकी सैनिकों की वापसी तो सुनिश्चित थी, पंरतु वह जिस अप्रत्याशित एवं औचक तरीके से हुई उसने पूरे विश्व को हैरत में डाल दिया। आज समूचा अफगानिस्तान अराजकता की भेंट चढ़ा है। यह हमारे दौर की सबसे बड़ी मानवीय आपदाओं में से एक है। इसकी तुलना वियतनाम से अमेरिकी पलायन से की गई, परंतु इस संकट का दायरा कहीं ज्यादा बड़ा है। काबुल की देहरी पर तालिबान की दस्तक के साथ ही अफगान सरकार घुटनों के बल आ गिरी। भयावहता का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि अफगानिस्तान में मचे बवाल के कारण दुनिया के तमाम देश वहां से अपने नागरिकों की सुरक्षित वापसी को लेकर चिंतित हो उठे। काबुल एयरपोर्ट के नजदीक बम धमाकों से सुरक्षित वापसी की राह में भी अड़ंगे लगने लगे। इन परिस्थितियों में भारत के समक्ष चुनौतियां कई गुना बढ़ गईं। भारत के लिए अफगानिस्तान मात्र विदेश नीति का ही एक मसला नहीं, बल्कि हमारे लिए उसके कई घरेलू निहितार्थ भी हैं।
जहां पश्चिमी जगत की अफगानिस्तान के साथ रणनीतिक सक्रियता हालिया दौर की ही बात है वहीं अफगान के साथ हमारे संबंध सदियों पुराने हैं। यह चिरकाल से हमारे विस्तारित पड़ोस का अहम हिस्सा रहा है। अफगानिस्तान में हिंदू और सिख अल्पसंख्यकों की ठीक-ठाक आबादी थी। भारतीय कंपनियां वहां बुनियादी ढांचे से जुड़ी तमाम परियोजनाओं पर काम कर रही थीं। उनमें कार्यरत तमाम कामगार वहां फंस गए। भारत सरकार ने उनकी सुरक्षित वापसी सुनिश्चित कराई। इसी के साथ-साथ अफगानिस्तान से अपने ऐतिहासिक रिश्तों को देखते हुए हमने अफगान शरणार्थियों से भी मुंह नहीं मोड़ा। देश में महामारी के प्रकोप और अपने संसाधनों पर पहले से ही कायम दबाव के कारण अफगान लोगों को शरण देना आसान नहीं था। वास्तव में अतिथि देवो भव: और वसुधैव कुटुंबकम जैसे अपने मूल भावों के कारण हम मुसीबत में फंसे लोगों से मुंह मोड़ ही नहीं सकते।
भारत जैसे विविधितापूर्ण और विशाल देश में अफगान संकट पर सरकार के रुख-रवैये को लेकर तमाम राय-मशविरे आए। एक बहस यह छिड़ी कि क्या भारत अफगान अल्पसंख्यकों जिनमें मुख्य रूप से हिंदू और सिख शामिल हैं, को ही वापस लाए या फिर बिना किसी धार्मिक आधार के शरण चाहने वाले सभी लोगों को आसरा दे। इस संदर्भ में कुछ लोगों ने नागरिकता संशोधन विधेयक यानी सीएए जैसे संवेदनशील मुद्दे का शिगूफा भी छेड़ा। अच्छी बात यह रही कि इसे लेकर विवाद छेड़ने की कोशिशें परवान नहीं चढ़ सकीं, क्योंकि लोगों को जल्द समझ आ गया कि सरकार का रुख सुसंगत और पारदर्शी है।
हालांकि, सुरक्षा के मोर्चे पर कुछ गंभीर सवाल उठ रहे हैं। शरण देने की आड़ में कुछ आतंकी तत्वों के देश में पैठ बनाने को लेकर चिंता वाजिब है। फिलहाल सबसे ज्यादा विचलित करने वाली बातें फारूक अब्दुल्ला और महबूबा मुफ्ती जैसे कश्मीरी नेता कर रहे हैं। तालिबान की ताजपोशी का स्वागत कर और भारत सरकार को उससे संवाद की सलाह देकर उन्होंने एक तरह से अपनी मर्यादा रेखा लांघी। महबूबा मुफ्ती ने तो एक कदम आगे बढ़कर अफगानिस्तान और कश्मीर को एक ही तराजू में तौल दिया। यह न केवल आपत्तिजनक, अपितु भारत की आंतरिक राजनीति के लिए भी विध्वंसक है।
इसमें कोई संदेह नहीं कि पश्चिमी जगत से लेकर पूरब में रूस और चीन जैसी शक्तियों के उलट अफगानिस्तान में भारतीय हितों की प्रकृति कुछ अलग है। इसमें पाकिस्तान की मौजूदगी और तालिबान के साथ उसक संदिग्ध रिश्तों से सामरिक कोण बनता है। वहीं भारतीयों के दिलों में अफगान लोगों के लिए एक खास कोना है। इससे इनकार नहीं कि ऐतिहासिक रिश्तों के अलावा भारत की एक बड़ी आबादी विशेषकर उत्तर भारत में इस्लाम दोनों देशों के बीच एक साझा कड़ी रही है।
एक ऐसे दौर में जब अफगानिस्तान के बदलते घटनाक्रम को लेकर निश्चित तौर पर कुछ नहीं कहा जा सकता और इस्लामिक देश भी असमंजस में हैं तब हमारा रुख अभी तक सधा हुआ रहा है। ऐसे में नेताओं या सकार के किसी बेमौका बयान के अनपेक्षित परिणाम सामने आ सकते हैं। इस संदर्भ में एक महत्वपूर्ण संदर्भ आगामी विधानसभा चुनाव विशेषकर उत्तर प्रदेश का है। यह ईमानदार स्वीकारोक्ति करनी होगी कि चुनावों के दौरान सांप्रदायिक विभाजक रेखाएं बहुत गहरी हो जाती हैं। ऐसे में अगर नेता अफगानिस्तान संकट से मतदाताओं के ध्रुवीकरण और सियासी लाभ उठाने की जुगत भिड़ाएंगे तो यह बहुत दुर्भाग्यपूर्ण होगा। वैसे भी तालिबान की भारतीय मुस्लिमों या हिंदू के किसी वर्ग से कोई भी तुलना, जिसमें कुछ लोग लगे भी हुए हैं, हमारे राष्ट्रीय चरित्र के प्रतिकूल होगी। हमारी पहचान अत्यंत विशिष्ट है, जिसे किसी आयातित विचारधारा द्वारा आसानी से प्रभावित नहीं किया जा सकता। हमें इस धारणा के साथ दृढ़ रहना होगा कि किसी धार्मिक आधार पर सबको एक ही श्रेणी में नहीं रखा जा सकता।
हालांकि, इसका यह अर्थ भी नहीं कि हम वास्तविक आतंकी खतरों को लेकर आंखें मूंदकर अपने रक्षा कवच को कमजोर कर लें। यह एक तथ्य है और अतीत का हमारा अनुभव भी यही पुष्ट करता है कि पिछले कुछ वर्षों के दौरान देश के कुछ हिस्सों में विदेशी तत्वों ने अपनी गहरी पैठ बनाई है। चुनाव और त्योहारी सीजन उनके हमलों के लिए माकूल मौका हो सकता है। कश्मीर में हालात धीरे-धीरे ही सही, लेकिन सामान्य होने की सूरत में लौट रहे हैं। वहां चुनाव भी होने हैं। ऐसे में अलगाववादी तो इस प्रक्रिया में गतिरोध पैदा करने की फिराक में ही होंगे। हम उन्हें कोई मौका देना गवारा नहीं कर सकते।
अफगानिस्तान में बदले हालात के हिसाब से अपने लिए सही दांव चलना भारत सरकार के लिए टेढ़ी खीर है। चीन और पाकिस्तान भी अफगानिस्तान के इस भंवर में अपनी नैया पार लगाने में लगे हैं। इसके न केवल दीर्घकालिक सामरिक, बल्कि आंतरिक एवं बाह्य सुरक्षा के लिए भी गहरे निहितार्थ होंगे। साथ ही इससे नई वैश्विक व्यवस्था में भारत की भूमिका भी निर्धारित होगी। ऐसे महत्वपूर्ण पड़ाव पर हमारे घरेलू कारकों द्वारा सरकार को किसी भी प्रकार विचलित नहीं करना चाहिए। हम एकता के जरिये ही इस कड़ी चुनौती से पार पा सकते हैं।