सकारात्मक पहल
किसी भी समाज में अगर स्त्रियों के प्रति दृष्टिकोण में समानता नहीं है, तो उसमें विकास की कसौटी और नतीजे भी असमान होंगे।
किसी भी समाज में अगर स्त्रियों के प्रति दृष्टिकोण में समानता नहीं है, तो उसमें विकास की कसौटी और नतीजे भी असमान होंगे। मगर यह समझना मुश्किल है कि एक ओर दुनिया तेजी से विकास की राह पर चल रही है, तो दूसरी ओर ऐसी तमाम चीजें हमारे सामने मुंह बाए खड़ी हैं, जिनमें सामाजिक स्तर पर अलग-अलग तरह की विषमताएं व्यवस्था के तौर पर कायम हैं। ऐसी व्यवस्थाएं आमतौर पर परंपरा और उसके महिमामंडन से जुड़े यथास्थितिवाद का पोषक होती हैं और इसमें वंचना की मार समाज के कुछ खास तबकों को झेलनी पड़ती है।
मसलन, जन्म से लेकर मृत्यु तक एक स्त्री के प्रति जिस तरह की धारणाएं समाज में काम करती हैं, उसमें बिना किसी अतिरिक्त प्रयास के लड़कियां या महिलाएं कई बार अपने न्यूनतम मानवीय अधिकारों से भी वंचित हो जाती हैं। उन्हें जो मिलता भी है, उसमें या तो दया भाव छिपा होता है या फिर वह विशेष प्रयासों से हासिल होता है। जबकि बराबरी का दावा करने वाले किसी समाज में यह एक सामान्य व्यवस्था होनी चाहिए।
इस लिहाज से देखें तो लड़कियों की शादी की उम्र को लेकर केंद्र सरकार की ताजा पहल बड़े महत्त्व का कदम साबित हो सकती है। केंद्रीय मंत्रिमंडल ने लड़कियों के विवाह की आयु को अठारह से बढ़ा कर इक्कीस साल करने के प्रस्ताव को मंजूरी दे दी। उम्मीद की जा रही है कि इससे जुड़ा विधेयक संसद में मौजूदा सत्र में पेश किया जाएगा।
इस पहल के पीछे मुख्य विचार यह है कि विवाह जीवन का एक ऐसा पड़ाव होता है, जहां भविष्य की दिशा में एक महत्त्वपूर्ण बदलाव होता है। विडंबना यह है कि यह स्थिति आमतौर पर लड़कियों के लिए चुनौतीपूर्ण साबित होती है। शादी की वजह से बहुत सारी लड़कियों की पढ़ाई रुक सकती है और अक्सर भविष्य में अपने भरोसे जीवन संवारने का उनका सपना अधूरा रह सकता है। इसके अलावा, बच्चे पैदा करने और अन्य वजहों से स्त्रियों की सेहत भी खतरे में रहती है। जबकि शादी की वजह से शायद ही किसी पुरुष की पढ़ाई या स्वावलंबन की राह बाधित होती है।
यह भी विचित्र है कि शादी की निर्धारित उम्र में लड़के और लड़की के लिए चुनौतियों के स्तर अलग-अलग हों और उसका खमियाजा लड़कियों को उठाना पड़ता हो। हालांकि ऐसा होना नहीं चाहिए, लेकिन सच यह है कि हमारे समाज में विभेदीकरण सबसे प्रत्यक्ष रूप में स्त्री और पुरुष के बीच ही दिखता है। खासकर विवाह एक ऐसा मोड़ है, जिसके बाद एक पुरुष जहां ज्यादा जिम्मेदारी की भूमिका में आ जाता है और इसमें उसकी पढ़ाई-लिखाई से लेकर उसके लिए उपलब्ध अवसर उसके पक्ष में होते हैं, वहीं एक स्त्री का दायरा आमतौर पर परिवार और घर हो जाता है। वक्त के साथ इस धारणा में बदलाव आ रहा है, लेकिन उसकी रफ्तार अभी बहुत धीमी है।
यह छिपा नहीं है कि फिलहाल लड़कियों की शादी की उम्र अठारह वर्ष तय होने के बावजूद देश के कई हिस्सों में बाल विवाह एक समस्या के तौर पर कायम है। कम उम्र में गर्भधारण से लेकर पोषण की स्थितियों की वजह से प्रसव के दौरान जान गंवाने वाली महिलाओं की संख्या एक गंभीर चुनौती है। ऐसे में अगर व्यक्ति के रूप में गरिमा और अवसर के साथ सभी स्तरों पर बराबरी के साथ स्त्रियों के पक्ष में कोई पहल की जाती है, तो वह स्वागतयोग्य है।