वीपी सिंह और मुलायम सिंह का व्यक्तिगत और राजनीतिक टकराव यहीं से शुरू हुआ। प्रदेश में जातीय गोलबंदी से लैस कई दस्यु गिरोह सक्रिय थे। फूलन देवी के गिरोह ने बेहमई कांड को अंजाम दिया, जिसमें दर्जनों ठाकुर परिवारों की हत्या कर दी गई। यादव जाति से संबंधित कई अपराधी भी अपने गिरोह का संचालन कर रहे थे, इत्तफाक से जिनका संबंध इटावा से सटे जिलों से था। इटावा जिले से मोहर सिंह और माधो सिंह सरीखे दस्युओं का आत्मसमर्पण जयप्रकाश नारायण द्वारा कराया जा चुका था, पर प्रदेश सरकार ने वह नीति त्याग आक्रामक रवैया अपनाना शुरू कर दिया। दस्यु उन्मूलन के नाम पर जातिगत समुदायों के निर्दोष-निहत्थे लोगों को भी निशाना बनाया गया।
अनुमानतः करीब दो हजार लोग फर्जी मुठभेड़ में मारे गए। इन्हीं निर्दोष लोगों के परिजनों से मुलाकात कर मुलायम सिंह ने वीपी सिंह सरकार के विरुद्ध मोर्चा खोल दिया। इसी बीच, वीपी सिंह के बड़े भाई की हत्या कर दी गई और संदेह की सुई जगतपाल पासी गिरोह की ओर थी। इन घटनाक्रमों से क्षुब्ध हो प्रदेश सरकार ने एक अध्यादेश जारी किया, जिसके तहत दस्यु गिरोह से सहानुभूति रखने के जुर्म में गिरफ्तार किया जा सकता था। मुलायम सिंह ने चौधरी चरण सिंह के सामने अपने और अपने वर्ग पर हो रही ज्यादतियों का जिक्र किया, तो लोक दल का एक प्रतिनिधिमंडल तत्कालीन गृहमंत्री ज्ञानी जैल सिंह से मिला। इससे मुलायम सिंह की गिरफ्तारी टल गई। इस बीच वीपी सिंह मुख्यमंत्री पद से त्यागपत्र दे चुके थे।
बाद में वीपी सिंह कांग्रेस से निष्कासित हो जनमोर्चा का गठन कर देशव्यापी कार्यक्रमों में जुट गए, जहां देवी लाल उन्हें नवगठित दल का अध्यक्ष बनाकर प्रधानमंत्री पद के लिए सबसे उपयुक्त नेता के प्रचार में लगे थे। मुलायम सिंह अपने संभावित राजनीतिक भविष्य को लेकर भी चिंतित थे। एक अन्य घटनाक्रम के तहत उत्तर प्रदेश लोक दल के विभाजन के बाद अजित सिंह अपने पाले में अधिक विधायक लाकर उनके सामने चुनौती बन चुके थे, पर मुलायम सिंह ने अपना जन अभियान और तेज कर दिया। इसी बीच चंद्रशेखर और मुलायम सिंह की एक गुप्त मुलाकात हुई। पर देश में बनते कांग्रेस-विरोधी माहौल और वीपी की लोकप्रियता के सामने सबको झुकना पड़ा। जनता दल का गठन हुआ और वीपी सिंह इसके अध्यक्ष बने। चंद्रशेखर व मुलायम सिंह को मजबूरन इसका हिस्सा बनना पड़ा।
वीपी सिंह के प्रधानमंत्री और मुलायम सिंह के मुख्यमंत्री बन जाने के बाद भी तनाव जारी रहा। देवीलाल से आर-पार की लड़ाई लड़ते हुए वीपी सिंह ने ठंडे बस्ते में पड़ी मंडल कमीशन की अनुशंसाएं लागू कर दीं। मंडल की राजनीति का नेता होने के बावजूद मुलायम सिंह का रवैया वीपी सिंह के प्रति जस का तस रहा, बल्कि मंडल के समानांतर आडवाणी की रथयात्रा से पैदा हुए हालात ने और अविश्वास पैदा कर दिया। वीपी सिंह आडवाणी की रथयात्रा के संभावित नतीजों से वाकिफ थे। लिहाजा वह अयोध्या विवाद को पर्दे के पीछे से सुलझाने के प्रयास में लगे रहे, पर मुलायम सिंह को इससे दूर रखा गया। आडवाणी की रथयात्रा जोर पकड़ रही थी और कानून-व्यवस्था की जिम्मदारी उत्तर प्रदेश सरकार की थी। लगभग देश के सभी राज्यों से कारसेवकों का अयोध्या आना आरंभ हो चुका था और केंद्र की तरफ से कोई प्रयास उन्हें रोकने का नजर नहीं आ रहा था।
उत्तर प्रदेश में आडवाणी के आगमन की स्थिति में मुलायम उनकी गिरफ्तारी की योजना बना चुके थे, पर यह अवसर मुलायम को देकर वीपी सिंह उन्हें अल्पसंख्यकों में लोकप्रिय नहीं बनाना चाहते थे। लिहाजा बिहार के मुख्यमंत्री लालू प्रसाद द्वारा समस्तीपुर से आडवाणी को गिरफ्तार किया गया। वीपी सिंह सरकार के पतन की प्रक्रिया शुरू हो गई, क्योंकि भाजपा की समर्थन वापसी के बाद सरकार अल्पमत में थी। चंद्रशेखर ऐसे अवसर की तलाश में थे। लिहाजा जनता दल के विभाजन की भी नींव रखी गई। चंद्रशेखर प्रधानमंत्री बने और पिछड़ों के नेता मुलायम वीपी का साथ न देकर चंद्रशेखर की मदद में लग गए, जिसका खामियाजा उन्हें 1991 के लोकसभा व विधानसभा चुनावों में चुकाना पड़ा। मंडल का असर था कि जनता दल उत्तर प्रदेश में मुख्य विरोधी दल बना और कमंडल के प्रभाव से बेजान भाजपा जादुई आंकड़ा पार कर सरकार बनाने में सफल रही।