सियासी असलियत: तालिबान, आतंकवाद और पाकिस्तान
आंतरिक सुरक्षा मजबूत की जाए और खुफिया विभाग तथा कानून प्रवर्तन एजेंसियों के बीच बेहतर तालमेल हो।
शुरुआत में जब इस बारे में खबर आई, तो किसी ने इसे गंभीरता से नहीं लिया। पहले राष्ट्रपति आरिफ अल्वी और फिर विदेश मंत्री शाह महमूद कुरैशी ने इस मुद्दे पर आधिकारिक टिप्पणी की। लेकिन प्रधानमंत्री इमरान खान को तुर्की के एक टीवी चैनल पर अपनी सरकार की नीति से जुड़ा बड़ा एलान करते सुनकर मैं अपनी कुर्सी से गिरते-गिरते बची। यहां तक कि एक पाकिस्तानी न्यूज एंकर को भी यह सुनकर मैंने स्तब्ध होकर कुर्सी से गिरते हुए देखा। इतनी चौंकाने वाली घोषणा करते हुए किसी को भरोसे में नहीं लिया गया। न ही इस मुद्दे पर कैबिनेट में या संसद के भीतर कोई बहस हुई।
यह चौंकाने वाली घोषणा दरअसल आतंकवादी संगठन टीटीपी यानी तहरीक-ए-तालिबान पाकिस्तान के बारे में है। इमरान खान ने कहा है कि वह टीटीपी के कुछ समूहों से बात करने के लिए तैयार हैं। उन्होंने यह भी कहा कि टीटीपी के आतंकवादी अगर सरकार की शर्तें मानते हैं और हथियार छोड़ते हुए आत्मसमर्पण करते हैं, तो उन्हें माफ कर दिया जाएगा और उन्हें सामान्य नागरिकों की तरह जीवन जीने की अनुमति दी जाएगी।
इमरान खान के इस एलान के बाद जैसे आसमान टूट पड़ा। 'छोटे ताबूत उठाने में ज्यादा भारी होते हैं'-यह सोशल मीडिया पर ट्रेंड करने लगा। यह दरअसल टीटीपी द्वारा वर्ष 2014 में पेशावर के आर्मी पब्लिक स्कूल में किए गए आतंकवादी हमले का संदर्भ था, जिसमें 114 छात्र और स्कूल के कुछ अध्यापक और कर्मचारी मारे गए थे। पाक रक्षा प्रतिष्ठान ने उस हमले के जवाब में अफगानिस्तान से लगती अपनी उत्तरी सीमा में कई सैन्य कार्रवाई की, जिसमें 70,000 पाकिस्तानियों ने अपनी जान गंवाई।
पेशावर हमले में मारे गए बच्चों के सौ से अधिक छोटे-छोटे ताबूतों को कब्रगाह के लिए निकलते देखना स्तब्ध करता था, और मुझे याद है कि अगले दिन भारत के स्कूलों के बच्चों और शिक्षकों तक ने आतंकी हमले में मारे गए बच्चों को श्रद्धांजलि दी थी। नोबेल शांति पुरस्कार से सम्मानित और लड़कियों की शिक्षा के क्षेत्र में काम करने के लिए दुनिया भर में प्रसिद्ध मलाल यूसुफजई पर भी टीटीपी ने हमला बोला था, पर वह बच गई थीं। मलाला और पेशावर स्कूल पर हमले के मामले में टीटीपी ने अपनी भूमिका को सार्वजनिक तौर पर स्वीकार किया था।
इमरान खान और पाक सैन्य प्रतिष्ठान इस बारे में क्या सोचते हैं? यह संभव ही नहीं है कि सैन्य प्रतिष्ठान द्वारा दबाव डाले बगैर इमरान खान ने खुद ही यह फैसला लिया हो। इस फैसले पर हो रही प्रतिक्रिया बेहद तीखी है और मुझे पता चला है कि कुछ बेहद वरिष्ठ सैन्य कमांडरों ने भी टीटीपी को आम माफी दिए जाने के फैसले का समर्थन नहीं किया है और रावलपिंडी स्थित सैन्य मुख्यालय में इस पर सवाल उठे हैं। लेकिन चूंकि दुनिया भर में सेना अनुशासन मानने के लिए जानी जाती है, लिहाजा अगर पाक सेनाध्यक्ष जनरल बाजवा ने यह एलान कर दिया कि टीटीपी को माफी दिया जाना हमारी सैन्य नीति है, तब स्वाभाविक ही सभी को वह फैसला मानना पड़ेगा। सेना में ऐसा ही होता है और अपने मुखिया के फैसले पर सवाल नहीं किया जाता।
लेकिन मामला सिर्फ सेना का नहीं है। टीटीपी को माफी देने के मुद्दे पर नागरिक समाज और राजनीति में उथल-पुथल है। खासकर देश की विपक्षी पार्टियां इस फैसले का विरोध कर रही हैं और वे बेहद नाराज भी हैं। टीटीपी को आम माफी देने के फैसले की पृष्ठभूमि में निश्चित तौर पर पड़ोसी अफगानिस्तान में बदला हुआ माहौल है, जहां तालिबान सत्ता में आ गए हैं। दरअसल जब काबुल और दोहा में तालिबान के कुछ नेताओं से पूछा गया कि क्या वे अब भी टीटीपी को पाकिस्तान पर आतंकी हमला करने के लिए अपनी जमीन का इस्तेमाल करने देंगे, तो उन नेताओं ने कहा कि टीटीपी से उनका कोई लेना-देना नहीं है।
यह पाकिस्तान का आंतरिक मामला है, लिहाजा इस पर फैसला पाकिस्तान की सरकार को करना है कि वह टीटीपी के साथ इस बारे में बात करती है या नहीं। जाहिर है, तालिबान के नेता झूठ बोल रहे थे, क्योंकि टीटीपी के साथ उनके बेहतर रिश्ते हैं। और बेशक तालिबान ने कहा हो कि वे अपनी जमीन का इस्तेमाल दूसरे देशों के खिलाफ नहीं करने देंगे, पर उनका यह दावा गलत साबित हुआ है। काबुल में तालिबान की अंतरिम सरकार बनने के बाद पाकिस्तान पर टीटीपी के आतंकी हमले और बढ़ गए हैं। ऐसे में, इमरान सरकार के फैसले पर अंग्रेजी अखबार डॉन की टिप्पणी गौरतलब है, 'हजारों पाकिस्तानियों का कत्ल करने वाले प्रतिबंधित टीटीपी के साथ सरकार द्वारा बात करने के फैसले पर देश में नाराजगी जायज है। यह एक ऐसा फैसला है, जिस पर संसद में कोई बहस नहीं हुई। यहां तक कि गृह मंत्री ने भी इस पर पहले से कोई जानकारी होने से इन्कार किया है।'
अफगानिस्तान स्थित टीटीपी के मुख्य संगठन ने जहां इमरान सरकार का बातचीत का प्रस्ताव ठुकरा दिया है, वहीं वजीरिस्तान स्थित टीटीपी के अलग हुए गुट ने इस प्रस्ताव के बाद बीस दिनों का संघर्ष विराम घोषित किया है। पर बलूचिस्तान में आतंकी हमले बढ़ाकर उस गुट ने अपना ही वादा तोड़ दिया है। कोई सरकार आतंकवादियों पर भला कैसे भरोसा कर सकती है? आतंकवादियों का खात्मा किए जाने के मामले में पाकिस्तान में लगभग एक राय है। अफगानिस्तान के मुद्दे पर हाल ही में प्रकाशित किताब नो विन वार के लेखक जाहिद हुसैन कहते हैं, 'पड़ोस में तालिबान द्वारा सत्ता में आने के बाद टीटीपी का फिर से उभार आश्चर्यजनक नहीं है।
इन दोनों संगठनों की प्राथमिकताएं बेशक अलग-अलग हों, पर उनका लक्ष्य एक है। टीटीपी के ज्यादातर कमांडरों ने तालिबान के साथ मिलकर विदेशी ताकतों से लड़ाई लड़ी है। वर्ष 2007 में अपने गठन के समय टीटीपी ने तालिबान के संस्थापक (स्वर्गीय) मुल्ला उमर के प्रति अपनी निष्ठा जताई थी। तालिबान और टीटीपी एक ही सिक्के के दो पहलू हैं।' दरअसल टीटीपी से निपटने के मामले में पाक सत्ता प्रतिष्ठान का रुख साफ नहीं है। ऐसे में, यह सलाह बड़े काम की है कि नेशनल ऐक्शन प्लान की समीक्षा हो, आंतरिक सुरक्षा मजबूत की जाए और खुफिया विभाग तथा कानून प्रवर्तन एजेंसियों के बीच बेहतर तालमेल हो।