पुलिस अत्याचार की अति

देश के मुख्य न्यायाधीश एन वी रमना ने अफसरशाही, खासकर पुलिस ऑफिसरों की ओर से किए जा रहे अत्याचारों पर गंभीर चिंता जताई।

Update: 2021-10-04 03:58 GMT

देश के मुख्य न्यायाधीश एन वी रमना ने अफसरशाही, खासकर पुलिस ऑफिसरों की ओर से किए जा रहे अत्याचारों पर गंभीर चिंता जताई। उन्होंने कहा कि इसे बर्दाश्त नहीं किया जा सकता। मुख्य न्यायाधीश रमना ने यहां तक कह दिया कि वह राज्यों में हाई कोर्ट के चीफ जस्टिस के नेतृत्व में ऐसी स्थायी समिति बनाने के हक में हैं, जो समय-समय पर आने वाली इन शिकायतों की जांच करे। चीफ जस्टिस रमना ने यह बात ऐसे समय कही है, जब यूपी के गोरखपुर में एक होटल पर छापे के दौरान कथित तौर पर पुलिसकर्मियों की मारपीट से हुई एक प्रॉपर्टी डीलर की मौत सुर्खियों में है। जिस मामले की सुनवाई करते हुए जस्टिस रमना ने हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश की अगुआई में समिति बनाने की यह बात कही, उसमें छत्तीसगढ़ के एक निलंबित अतिरिक्त पुलिस महानिदेशक गिरफ्तारी से राहत देने की गुजारिश लेकर आए थे। इस वरिष्ठ पुलिस अधिकारी पर राजद्रोह और अवैध वसूली समेत कई आपराधिक गतिविधियों में शामिल रहने के आरोप हैं। हालांकि पुलिस अधिकारी के मुताबिक उसे पिछली सरकार से कथित तौर पर करीबी रिश्तों की सजा दी जा रही है।

इस मामले में भी पिछली सुनवाई के दौरान जस्टिस रमना ने पुलिस अधिकारियों में दिख रही इस प्रवृत्ति को रेखांकित किया था कि वे सत्तारूढ़ दल के नेताओं से करीबी ताल्लुकात के लिए उनके अवैध आदेशों का पालन करते हुए सारी हदें पार कर जाते हैं और फिर सत्ता बदलने पर नई सरकार का कोपभाजन बनते हैं। उन्होंने इस प्रवृत्ति पर रोक लगाने की बात कही थी। निश्चित रूप से यह प्रवृत्ति किसी एक मामले या एक राज्य तक सीमित नहीं है। पुलिस अधिकारियों और सत्तारूढ़ नेताओं के निजी स्वार्थों का गठबंधन ही इस पूरे खेल के पीछे है। संभवत: इस गठबंधन को तोड़ने की जरूरत महसूस करते हुए ही जस्टिस रमना ने यह बात कही कि हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीशों की अगुआई में समिति बनाने का विकल्प भी उपलब्ध है। मगर देखा जाए तो यह समस्या मूलत: कार्यपालिका के कार्यक्षेत्र से जुड़ी है। थोड़ी और सटीकता से कहें तो कानून व्यवस्था राज्य सरकार का मामला है और इसलिए इसे हल करने की जिम्मेदारी भी प्राथमिक तौर पर राज्य सरकारों की ही बनती है।
दिक्कत यह है कि इसे हल करने की दिशा में कारगर कदम उठाना तो दूर, ऐसी कोई इच्छा भी राज्य सरकारें नहीं दिखा रहीं। जब कोई मामला मीडिया में आकर चर्चित हो जाता है तो पीड़ित पक्ष को नौकरी और नकद सहायता वगैरह देकर मामले को ठंडा कर लिया जाता है। फिर नई घटना होने तक शांति बनी रहती है। ऐसे में मुख्य न्यायाधीश का समिति बनाने के विकल्प से अपनी सहमति जताना और ऐसा आदेश न देना काफी अर्थपूर्ण है। यह सभी संबंधित पक्षों के लिए गंभीर चेतावनी है। बेहतर होगा कि इस संदेश से सबक लेकर पुलिस महकमा और राज्यों का राजनीतिक नेतृत्व समय रहते अपना रवैया सुधार लें और न्यायपालिका को दखल देने की जरूरत न पड़े।

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