इस द्विपक्षीय, बहुआयामी और रणनीतिक संवाद पर दुनिया की निगाहें होंगी। कोरोना की वैश्विक महामारी का प्रकोप कम होने के बाद यह मुलाकात और संयुक्त राष्ट्र में विश्व नेताओं का जमावड़ा संभव हुआ है। प्रधानमंत्री मोदी और राष्ट्रपति बाइडेन, ऑस्टे्रलिया और जापान के प्रधानमंत्रियों समेत, क्वाड की शिखर बैठक में भी शिरकत करेंगे। छह महीने में क्वाड की यह दूसरी बैठक है, लिहाजा बेहद महत्त्वपूर्ण है। दरअसल हिंद प्रशांत महासागर क्षेत्र में चीन के वर्चस्व को चुनौती देने के संदर्भ में क्वाड का गठन बेहद महत्त्वपूर्ण आंका जा रहा है। क्वाड नेता भी कोरोना-काल में पहली बार रूबरू होंगे। बहरहाल भारत-अमरीका संवाद के कई आयाम हैं। दोनों विश्व नेता संभावित शीत युद्ध के अलावा, सीमापार और वैश्विक आतंकवाद, अफ़गानिस्तान में तालिबानी कब्जे के बाद उपजे कट्टरपंथ और अतिवाद, चीन, रूस और पाकिस्तान के समीकरणों, कोरोना महामारी, जलवायु परिवर्तन, व्यापार, रक्षा, सुरक्षा आदि वैश्विक मुद्दों पर विमर्श करेंगे। आखिरी तौर पर क्या तय होगा, यह साझा घोषणा से ही स्पष्ट होगा, लेकिन यह संवाद और मुलाकात भारत-अमरीका की रणनीतिक साझेदारी को मजबूती और व्यापक आयाम देगी। भारत अमरीका के लिए अपरिहार्य है, क्योंकि चीन और रूस के समानांतर वही एक स्थापित शक्ति है। अमरीका भारत के साथ सामरिक, आर्थिक, शैक्षिक, कूटनीतिक और कारोबारी आयामों की समीक्षा करना चाहेगा। प्रधानमंत्री मोदी की विदेश नीति और द्विपक्षीय मुलाकातों की खासियत यह है कि वह कूटनीतिक संबंधों को 'दोस्ती' के स्तर तक ले जाते हैं, लेकिन पूर्व राष्ट्रपति टं्रप की तुलना में बाइडेन मुद्दों और नीतियों के प्रति विशेष आग्रही रहे हैं। बाइडेन के साथ अंतरंगता का स्तर कुछ और ही होगा।
हालांकि जब राष्ट्रपति बराक ओबामा के साथ बाइडेन उपराष्ट्रपति थे, तो वह भारत आए थे। वह भारत को बहुमूल्य संदर्भों में आंकते रहे हैं और प्रधानमंत्री मोदी से उनके संवाद जारी रहे हैं। अफगानिस्तान में बिल्कुल उलटफेर होने के बाद भी बाइडेन-मोदी के बीच फोन पर बातचीत होती रही है। कमोबेश भारत और अमरीका की रणनीतिक और सामरिक साझेदारी इतनी परिपक्व हो चुकी है कि दोनों देशों के नेता परस्पर समझने लगे हैं कि आखिर यह संबंध क्यों जरूरी है। लेकिन भारत अमरीका का पिछलग्गू भी नहीं है और न ही अंधानुसरण करने वाला देश है। अमरीका के लिए एशिया महाद्वीप में भारत ही एकमात्र विकल्प है। दोनों देशों के साझा खतरे चीन, पाकिस्तान और उत्तरी कोरिया से हैं। पाकिस्तान ने आतंकवाद पर अमरीका को मूर्ख बनाकर खूब पैसा लूटा है और आतंकवाद आज भी जि़ंदा है। अब तो तालिबानी अफगानिस्तान की पनाहगाह भी सुरक्षित है। यदि इस क्षेत्र और हिंद प्रशांत महासागर में अमरीका चीन की दादागीरी को तोड़ना चाहता है, तो क्वाड के अन्य देशों से अधिक भारत की जरूरत होगी। आतंकवाद के खिलाफ लड़ाई भारत के बिना नहीं जीती जा सकती। बहरहाल प्रधानमंत्री मोदी का यह मिशन कितना सफल रहता है, उसका आकलन बाद में होगा।