PM Garib Kalyan Yojana: गरीबों को निवाले का त्योहारी उपहार लोक कल्याणकारी फैसला
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त्योहारी सीजन में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की कैबिनेट ने पीएम गरीब कल्याण योजना के तहत 80 करोड़ गरीबो को मुफ्त मिलने वाले सूखा राशन की मियाद दिसंबर 22 तक बढ़ाने का फैसला लिया है। 30 सितंबर को यह योजना पूरी हो रही थी। इसे तीन महीने और आगे बढ़ा दिया गया है। यह लोक कल्याण हित में बड़ा कदम है, क्योंकि अमूमन एक तिमाही में इस योजना पर करीब 44 हजार करोड़ का खर्च बैठता है। इस तिमाही 122 लाख एमटी खाद्यान्न दिए जाएंगे।
गरीब-गुरबा बनाम खादीधारी
दूसरी तरफ, मोदी कैबिनेट के इसी फैसले से ठीक एक दिन पहले बिहार सरकार की कैबिनेट ने विधायकों-विधान परिषद सदस्यों को सालाना मुफ्त मिलने वाली 20 हजार यूनिट बिजली को बढ़ाकर 30 हजार यूनिट मुफ्त देने का फैसला लिया। अंतर साफ है। लोक कल्याण बनाम राजनीतिक रेवड़ी। एक तरफ गरीब-गुरबा लाभार्थी हैं, दूसरी तरफ खादीधारी। यह अंतर महसूस करना इसलिए जरूरी है क्योंकि अभी देश में मुफ्त की रेवड़ी पर बहस छिड़ी हुई है।
सुप्रीम कोर्ट तक मामला पहुंचा। लोक कल्याणकारी बनाम मुफ्त राजनीतिक रेवड़ी का फर्क महसूस करने के लिए मोदी सरकार के कैबिनेट और नीतीश सरकार के कैबिनेट के फैसले पर गौर करना जरूरी है। गौरतलब, है कि नीतीश कुमार इस समय 2024 लोकसभा चुनाव की तैयारी कर रहे हैं और विपक्ष को एकजुट कर रहे हैं।
फिर मुफ्त वादों की लगेगी झड़ी
फिर से गुजरात-हिमाचल समेत आधा दर्जन राज्यों में साल भर के भीतर विधानसभा के चुनाव प्रस्तावित हैं। 2024 में लोकसभा का चुनाव भी होना है। ऐसे में मुफ्त बिजली से लेकर बड़ी-बड़ी मुफ्त रेवड़ियां बांटने के वादों की झड़ी लगने वाली है। चुनावी समर में अधिकांश राजनीतिक दल मुफ्त के वादों में कहीं किसी से पीछे नहीं होंगे।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी खुद भी ऐसे मुफ्त के वादों को लेकर हाल में सवाल उठाते रहे हैं। उनका साफ इशारा दिल्ली की अरविंद केजरीवाल सरकार को लेकर था। इस बार आम आदमी पार्टी भी गुजरात समेत राज्यों के प्रस्तावित विधानसभा चुनावों के लिए कमर कस चुकी है।
हालांकि, इससे पहले चुनावी राज्यों में मुफ्त के कई बड़े-बड़े वादे जनता खारिज कर चुकी हैं और पब्लिक है, वह राजनीतिक रेवड़ी और लोककल्याण का फर्क समझती है लेकिन क्या केंद्र की पीएम गरीब कल्याण अन्न योजना पर सवाल उठाया जाना बाजिव है। आखिर क्यों ? और शायद जवाब ना में ही हो, क्योंकि लोककल्याण और राजनीतिक रेवडी का फर्क साफ दिखता है।
लोक कल्याण बनाम राजनीतिक रेवड़ी
25 मार्च 2020 को जब देश में लॉकडाउन लगा, तो मजदूर रोजी-रोटी के लिए तबाह हो गए। पलायन हुआ। कामगार काम-धंधा छोड़कर पैदल घरों को लौटने पर विवश हुए। तब से अभी तक जमीनी स्तर पर हालात बहुत हद तक बदले नहीं हैं। हां, आर्थिक गतिविधियां चालू हो गई हैं। अर्थव्यवस्था पटरी पर लौटने लगी है।
ब्रिटेन को पछाड़ कर देश पांचवीं अर्थव्यवस्था के साथ-साथ तेजी से बढ़ती अर्थव्यवस्था है। अग्रिम कर (एडवांस टैक्स) में वृद्धि हुई है, लेकिन महंगाई अब भी बेलगाम है। गांवों, कस्बों, छोटे शहरों में रोजगार का संकट पहले की तरह बरकरार है।
केंद्र सरकार ने रसोई गैस की सब्सिडी पूरी तरह से बंद कर दी है। ऐसे में यदि सरकार की आमदनी में इजाफा हुआ है और अर्थव्यवस्था संतोषजनक पटरी पर है, तो गरीबों को मिलनेवाली सहूलियतों पर सवाल उठाया जाना कहां से बाजिब है।
कल्याणकारी राष्ट्र का मतलब है कि देश को अपने नागरिकों के आर्थिक-सामाजिक हितों की रक्षा करना। कोरोना काल में मुफ्त वैक्सीन देकर मोदी सरकार ने लोककल्याण की दिशा में बड़ा कदम उठाया था। अब जब मोदी कैबिनेट ने लॉकडाउन के बाद सातवीं बार मुफ्त राशन की पीएम गरीब कल्याण योजना को अगले 3 महीने के लिए विस्तार दिया है, तो यह निश्चित तौर पर स्वागत योग्य कदम है।
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सोर्स: अमर उजाला