टीके की उपलब्धता में पेटेंट की बाधा: पेटेंट कानून के कारण वैक्सीन महंगी है, अन्य कंपनियां कोरोना टीके को नहीं बना सकती

देश कोरोना संक्रमण के जिस कहर से जूझ रहा है, उसमें उम्मीद की एक बड़ी किरण यही है कि

Update: 2021-05-04 05:53 GMT

भरत झुनझुनवाला: देश कोरोना संक्रमण के जिस कहर से जूझ रहा है, उसमें उम्मीद की एक बड़ी किरण यही है कि हमारे पास कोरोना रोधी टीके उपलब्ध हैं। वैसे तो सरकार ने अब कई विदेशी टीकों को भी हरी झंडी दिखा दी है, इसके बावजूद भारतीय टीकाकरण अभियान का दारोमदार मुख्य रूप से दो वैक्सीनों-सीरम इंस्टीट्यूट ऑफ इंडिया द्वारा एस्ट्राजेनेका के साथ विकसित कोविशील्ड और भारत बायोटेक की कोवैक्सीन पर है। इन टीकों का अपना एक अर्थशास्त्र भी है। सीरम के अनुसार एक टीके की बिक्री पर आधी रकम उसे रायल्टी के रूप में एस्ट्राजेनेका को देनी पड़ती है। यह उसके लिए घाटे का सौदा है। इसलिए वह राज्यों को अपना टीका 300 रुपये और निजी क्षेत्र को उससे अधिक दाम पर बेचना चाहती है ताकि केंद्र सरकार को 150 रुपये में बेचने पर हुए घाटे की भरपाई कर सके। इसमें से 75 रुपये तो उसे एस्ट्राजेनेका को रायल्टी की मद में देने पड़ेंगे। यह रायल्टी हमें इसलिए देनी पड़ रही है, क्योंकि हमने विश्व व्यापार संगठन यानी डब्ल्यूटीओ के अंतर्गत उत्पाद पेटेंट कानून स्वीकार किया हुआ है। इसके अंतर्गत विदेशी कंपनी द्वारा पेटेंट किए गए किसी भी उत्पाद को हम अपने देश में नहीं बना सकते। पेटेंट कानून के कारण वैक्सीन महंगी है और संपूर्ण विश्व को उपलब्ध भी नहीं हो पा रही। यदि हम पेटेंट कानून के दायरे में न होते तो सीरम के अलावा अन्य कंपनियां भी इस टीके को बना सकती थीं।

कोवैक्सीन केंद्र सरकार को 150 रुपये में और राज्य सरकारों को 400 रुपये में

भारत बायोटेक द्वारा विकसित कोवैक्सीन भी केंद्र सरकार को 150 रुपये में और राज्य सरकारों को 400 रुपये में उपलब्ध कराई जाएगी। भारत बायोटेक भी एस्ट्राजेनेका की तरह दूसरी देसी एवं विदेशी कंपनियों से रायल्टी वसूल कर सकती है। स्पष्ट है कि पेटेंट कानून के कारण देश में वैक्सीन का उत्पादन केवल दो कंपनियों द्वारा किए जाने से यह आसानी से जनता को उपलब्ध नहीं हो पा रही है। पेटेंट कानून में व्यवस्था है कि आपदा काल में सरकार किसी पेटेंट को कुछ समय के लिए निरस्त कर सकती है और संबंधित वस्तु को बनाने का लाइसेंस किसी को भी दे सकती है। इस प्रकार भारत सरकार चाहे तो एस्ट्राजेनेका, रूसी स्पुतनिक, अमेरिकी फाइजर और भारत बायोटेक अथवा किसी अन्य देश की वैक्सीन बनाने के लाइसेंस अपने उत्पादकों को दे सकती है, लेकिन सरकार ऐसा करने से हिचक रही है। यदि सरकार ने ऐसा किया तो विश्व की तमाम कंपनियां विरोध में आ जाएंगी। भविष्य में हमें इससे कठिनाई हो सकती है। इसलिए इस मामले में हमें सरकार के विवेक पर विश्वास करना पड़ेगा।
डब्ल्यूटीओ भारत के लिए घाटे का सौदा

मूल समस्या फिर भी पेटेंट कानून की है। 1995 में जब डब्ल्यूटीओ संधि हुई थी तो हमें विश्वास दिलाया गया था कि पेटेंट कानून से हुए नुकसान की भरपाई खुले व्यापार से हो जाएगी। विशेषकर हमारे किसानों के लिए विकसित देशों का बाजार खुलने से। इस बीच 25 वर्ष भी बीत गए, लेकिन विकसित देशों ने येन-केन-प्रकारेण अपने बाजार हमारे कृषि उत्पादों के लिए बाधित कर रखे हैं। इसलिए डब्ल्यूटीओ हमारे लिए घाटे का सौदा रह गया है। पेटेंट कानून के कारण हम आधुनिक तकनीक की नकल नहीं कर पा रहे और वैक्सीन नहीं बना पा रहे हैं। इस कारण संकट है। दूसरी ओर खुले व्यापार में हमें अपेक्षित लाभ नहीं हो रहा। इसलिए इस आपदा को आधार बनाकर केंद्र सरकार द्वारा डब्ल्यूटीओ पेटेंट कानून को निरस्त कर देना चाहिए।
उत्पाद पेटेंट: कोविशील्ड को भारत के उद्यमी बना सकते हैं, बशर्ते दूसरी प्रक्रिया से बनाएं

1995 के पहले पेटेंट कानून में उत्पाद पेटेंट की व्यवस्था थी यानी किसी भी माल को कोई भी उद्यमी बना सकता था, बशर्ते उसे बनाने में वह उस प्रक्रिया का पालन न करे जिस प्रक्रिया से पेटेंट धारक ने उस माल को बनाया है। जैसे कोविशील्ड को एस्ट्राजेनेका ने किसी विशेष प्रक्रिया से बनाया है। उत्पाद पेटेंट के अंतर्गत कोविशील्ड को भारत के उद्यमी बना सकते हैं, बशर्ते वे उसे किसी दूसरी प्रक्रिया से बनाएं। यूं समझिए कि लोहे की सरिया को यदि एस्ट्राजेनेका ने गर्म करके पतला किया तो उत्पाद पेटेंट के अंतर्गत उसी सरिया को हथौड़े से पीटकर पतला करने का हमें अधिकार था। यदि हम डब्ल्यूटीओ के प्रोसेस पेटेंट को निरस्त कर देते हैं तो विश्व की अन्य कंपनियों के टीके बनाने में स्वतंत्र हो जाएंगे, बशर्ते उनके द्वारा अपनाई गई उत्पादन प्रक्रिया का उपयोग न करें।
यदि पेटेंट निरस्त भी कर दिए जाएं तो भारत के पास वैक्सीन बनाने की क्षमता नहीं है

कोविड महामारी के बावजूद पेटेंट कानून बनाए रखने के पक्ष में कई तर्क दिए जा रहे हैं। पहला यही कि यदि पेटेंट निरस्त भी कर दिए जाएं तो भारत के पास वैक्सीन बनाने की क्षमता नहीं है। दूसरा यह कि उसमें लगने वाले कच्चे माल उपलब्ध नहीं हैं। तीसरा कि हमारे पास उत्पादन करने के लिए निवेश करने की क्षमता नहीं है। यह भी तर्क है कि पेटेंट कानून को निरस्त करने के स्थान पर हमें वैक्सीन बनाने वाली कंपनियों के साथ मोलभाव कर उनसे लाइसेंस लेकर उनकी वैक्सीन का उत्पादन करना चाहिए। जैसे सीरम ने एस्ट्राजेनेका से लाइसेंस लिया है। ये तर्क कहीं नहीं टिकते। यदि हमारे पास क्षमता ही नहीं है तो पेटेंट निरस्त करने से बड़ी कंपनियों को नुकसान भी नहीं होगा। इसलिए पेटेंट को निरस्त कर देना चाहिए और दवाओं समेत देश को पेटेंट कानून के कारण जो भारी नुकसान हो रहा है, उससे निजात पानी चाहिए।
कोरोना वायरस म्यूटेट कर रहा है, हर वर्ष नए टीके का आविष्कार

फिलहाल कोरोना वायरस म्यूटेट कर रहा है। जिस प्रकार फ्लू का वायरस हर वर्ष म्यूटेट करता है और हर वर्ष उसका नया टीका बनता है, उसी प्रकार आने वाले समय में हर वर्ष कोविड के नए टीके का आविष्कार एवं उत्पादन करना आवश्यक हो जाएगा। इसलिए भारत को अपने टीके बनाने के लिए भारी निवेश करना चाहिए। भारत बायोटेक के अनुसार उन्होंने कोवैक्सीन का आविष्कार मूलत: अपनी आर्थिक ताकत के आधार पर किया है। सर्वप्रथम सरकार को अपनी फार्मा कंपनियों को नए टीके विकसित करने के लिए धन उपलब्ध कराना चाहिए, जिससे भविष्य में पैदा होने वाले वायरस के नए प्रतिरूपों का सामना करने के लिए हमारे पास टीकों की पर्याप्त शृंखला उपलब्ध हो। दूसरे सरकार को भारत बायोटेक से कोवैक्सीन के पेटेंट को खरीद कर उसके फार्मूले को भारत की कंपनियों को ही नहीं, बल्कि संपूर्ण विश्व को उपलब्ध करा देना चाहिए जिससे कोवैक्सीन का उत्पादन सारे विश्व में हो और हम बड़ी कंपनियों की मुनाफाखोरी को मात दे सकें। तीसरे, हमें डब्ल्यूटीओ को उत्पाद पेटेंट को लागू करने का प्रस्ताव देना चाहिए और डब्ल्यूटीओ न माने तो मुनाफाखोरी की संरक्षक इस संस्था से बाहर आ जाना चाहिए।
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