धार्मिक अतिवाद को खाद-पानी देने वाले पाक और तुर्की मजहब की आड़ में नफरत और उन्माद फैला रहे हैं
भारत ने मजहबी कट्टरता और जिहादी आतंकवाद से जूझ रहे फ्रांस के साथ एकजुटता प्रदर्शित कर इसलिए सही किया
जनता से रिश्ता वेबडेस्क। भारत ने मजहबी कट्टरता और जिहादी आतंकवाद से जूझ रहे फ्रांस के साथ एकजुटता प्रदर्शित कर इसलिए सही किया, क्योंकि पाकिस्तान और तुर्की जैसे देश फ्रांस सरकार के रवैये से असहमति जताने के नाम पर धार्मिक अतिवाद को खाद-पानी देने का काम कर रहे हैं। मलेशिया के पूर्व प्रधानमंत्री महातिर मुहम्मद ने ट्विटर पर जिस तरह जहर उगला, उससे यही पता चलता है कि मजहब की आड़ में किस तरह नफरत और उन्माद फैलाने का काम किया जा रहा है। ट्विटर ने उनके जहरीले ट्वीट को तो हटा दिया, लेकिन अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर उनके एकाउंट को बनाए रखा। यह रवैया मजहबी कट्टरता के खिलाफ लड़ी जा रही लड़ाई को कमजोर करने वाला है।
इसकी अनदेखी नहीं की जा सकती कि चाहे पाकिस्तानी प्रधानमंत्री इमरान खान हों या तुर्की के राष्ट्रपति एर्दोगन या फिर महातिर मुहम्मद, इनमें से किसी ने पेरिस में शिक्षक का गला काटने की खौफनाक घटना के खिलाफ तो कुछ नहीं कहा, लेकिन फ्रांसीसी उत्पादों के बहिष्कार की मांग को हवा देने के लिए आगे आ गए। ओसामा बिन लादेन को शहीद बताने वाले इमरान और चर्च को मस्जिद में बदलने वाले एर्दोगन जैसे नेता कभी भी इस्लाम के अमनपसंद रूप को उभारने में सहायक नहीं बन सकते।
नि:संदेह फ्रांस को अपने पंथनिरपेक्ष मूल्यों की रक्षा करने और उन पर प्रतिबद्ध रहने का अधिकार है, लेकिन उसे मुहम्मद साहब के व्यंग्यचित्र सार्वजनिक रूप से दिखाने जैसी गतिविधियों से बचना चाहिए। यह अतिवाद से लड़ने का सही तरीका नहीं कहा जा सकता, लेकिन इसका यह मतलब भी नहीं कि इस तरीके से असहमत होने के नाम पर कुछ और लोगों के सिर कलम कर दिए जाएं। फ्रांस में यही हुआ। यह आतंकवाद के अलावा और कुछ नहीं। यह गंभीर चिंता की बात है कि फ्रांस सरकार के रुख-रवैये के खिलाफ सड़कों पर उतर कर विरोध करने वाले निर्दोष-निहत्थे लोगों का सिर कलम करने की बर्बर घटनाओं की निंदा करना जरूरी नहीं समझ रहे हैं। यह और कुछ नहीं मजहबी कट्टरता के पक्ष में खड़ा होना ही है। ऐसे तत्वों से पूरी दुनिया को सावधान रहना होगा।
एक अर्से से यूरोप ही नहीं, पूरे पश्चिम में मुस्लिम समुदाय के बीच अतिवादी तत्व जिस तरह सिर उठा रहे हैं, उससे यह साफ है कि वे पश्चिमी जीवन मूल्यों से तालमेल बैठाने के बजाय अपनी सड़ी-गली मान्यताएं उन पर थोपना चाहते हैं। ऐसे तत्वों से समझौता नहीं किया जा सकता, लेकिन इसी के साथ मजहबी कट्टरता से निपटने के लिए उन तौर-तरीकों को भी अपनाने की जरूरत है, जो दुनिया को अमन की ओर ले जाएं। इस मामले में यूरोप न्यूजीलैंड से काफी कुछ सीख सकता है।