सबके अपने अपने पेट भरने के पेशे हैं। कोई फंसाने की खाता है तो कोई लुभाने की। कोई बनाने की खाता है तो कोई चलाने की। कोई किसी को बहलाने की खाता है तो कोई किसी को फुसलाने की। पटाने की खाने वाले भी यहां कम नहीं। बड़े कम जीव होते हैं जो अपने खून पसीने की खाते हैं। वैसे पेशा कोई भी हो, खून पसीना तो हर एक में बहाना ही पड़ता है। चाहे वह पेशा चोरी का हो या फिर सीनाजोरी का। सफेद झूठ का हो या फिर दिनदहाड़े टार्च जलाए लूट का। उनका जनता लुभाने का पेशा है। वे जनता को लुभाने के पेशे के माहिर पेशेकार हैं। वे जनता को लुभाने का काम जवानी के दिनों से ही करते आए हैं। जनता को हर बार नए कोण से लुभाने का उनके पास अच्छा खासा पारिवारिक अनुभव है। पहले उनके दादा जनता को लुभाने की खाते थे। फिर उनके पिताजी ने अपने पिताजी के जाने के बाद फैमिली पेशे को जारी रखते जनता को लुभाने का पारिवारिक पेशा संभाला।
उनकी रगों में जनता को लुभाने की खाने का खानदानी रक्त तो था ही। उन्होंने भी जनता को लुभाने का पेट भर खाया, इधर जमा करवाया तो उधर जमा करवाया। जब जनाब जनता को लुभाने लायक हुए तो अपने पिताश्री के पेशे में हाथ बटाना चाहा, अपने पिताश्री के पारिवारिक पेशे को आगे बढ़ाना चाहा। पारिवारिक पेशा अपनाने का सबसे बड़ा लाभ यह होता है कि उसे नए सिरे से शुरू नहीं करना पड़ता। बहुत कुछ बना बनाया, चला चलाया परिवार में ही मिल जाता है। अब जनाब फुलमफुल जनता को लुभाने का पेशा दनादन चला रहे हैं। इस बाबत लोकतंत्र ने उनसे भी कई बार सवाल किया, 'जनता के शासन में नेता का बेटा नेता क्यों?' तो उन्होंने ताल ठोंक जवाब दिया, 'क्योंकि उसके पास लोकतंत्र की रक्षा करने का लम्बा पारिवारिक अनुभव होता है', सुन लोकतंत्र चुप। चुनावी साल था। चुनावी साल में जनता को मालामाल करने का पेशा करते करते जनाब हमारे गांव भी आए। लोकतंत्र में चुनावी साल जनता लुभाई का ऐसा साल होता है कि जो इस एक साल जितना जनता को लुभा गया, वह चुनाव के बाद चार साल तक उतना खा गया। इसीलिए चुनावी साल में स्वर्ग सिधारा नेता भी अपने चुनावी हलके के दौरे करने लग जाता है। फिर जनाब तो सक्रिय नेता थे। सड़क से संसद तक उनकी झूठी बोलती थी। जनाब गांव में आए तो सारे गांव वाले वोट जोड़े उनके सामने। सबने सब नेताओं की तरह उनका भी जयघोष किया तो वे मद मद, 'कहो गांव वालों क्या चाहते हो?' 'हुजूर! गांव को मल दो।' 'मिल जाएगा।
पीए साहब! नोट करो! और मांगो।' 'हुजूर! हमें लगे नलों में जल दो।' 'हो जाएगा। पीए साहब! नोट करो! और मांगो।' 'हुजूर! हमारे गांव को स्कूल को स्कूल मास्टर दो।' 'हो जाएगा। पीए साहब! नोट करो! और मांगो।' 'हुजूर! हमारे गांव में गीदड़ों का अस्पताल दो।' 'हो जाएगा। पीए साहब! नोट करो! और मांगो।' 'हुजूर! हमारे गांव में सड़क दो।' 'मिल जाएगी। पीए साहब! नोट करो! और मांगो।' 'हुजूर! हमारे गांव को गंदगी मुक्त करो।' 'हो जाएगा। पीए साहब! नोट करो ! और मांगो।' 'हुजूर! मेरे बेटे को नौकरी दो।' 'ये लो!। पीए साहब! नोट करो! और मांगो।' 'हुजूर! मेरे बेटे को नौकरी दो।' 'मिल जाएगी। वचन दिया। पीए साहब! नोट करो। और मांगो।' 'हुजूर! मेरे बेरोजगार बेटे को छोकरी दो!' 'मिल जाएगी। वचन दिया। पीए साहब! नोट करो! और मांगो।' 'हुजूर! मेरी भैंस के थनों में दूध दो।' 'आ जाएगा। वचन दिया। पीए साहब! नोट करो! और मांगो।' 'हुजूर! मेरी भैंस को कट्टी दो।' 'अभी देते हैं। पीए साहब ! नोट करो ! और मांगो।' 'हुजूर…जन हकलाया। 'अभी देते हैं। अब खुश! पीए साहब! नोट करो ! और मांगो।' 'हुजूर…हुजूर…हुजूर…हुजूर…'और मांगो! पीए साहब! नोट करो ! पीए साहब! नोट करो ! पीए साहब…।'
अशोक गौतम
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