Opinion: बहस और तारीखों के बीच न्याय मिलने में क्यों हो रही देरी?
स्वतंत्रता और समानता की गारंटी को संभव बनाता है।
करीब 800 वर्ष पूर्व 1215 में मैग्ना कार्टा के जरिये ब्रिटिश नागरिकों से यह जो वादा किया गया था कि 'अधिकार और न्याय हम किसी को नहीं बेचेंगे, न ही हम इसे खारिज करेंगे और न इसमें विलंब करेंगे', वह दुनिया भर के लिखित और अलिखित संविधानों वाले लोकतंत्र में न्याय देने का मानक बन चुका है। यही नहीं, 'देर से न्याय करना न्याय देने से मना करना है', जैसा नीति वचन भी वहीं से निकला है। लगता है कि सरकार और न्यायपालिका के बीच एक और मुकाबले के लिए मंच तैयार हो चुका है। पिछले सप्ताह केंद्रीय कानून मंत्री किरण रिजिजू ने ध्यान दिलाया कि 'अदालतों में लंबित मुकदमे पांच करोड़ का आंकड़ा छू रहे हैं, जो गंभीर चिंता का विषय है।'
उत्तरोत्तर सरकारों ने यह तर्क दिया है कि न्याय देने का काम न्यायपालिका की प्रशासनिक गड़बड़ियों के कारण बाधित हुआ है। राजनीतिक पार्टियों का कहना है कि जजों द्वारा खुद को चुनने की व्यवस्था उचित नहीं है। इसका समाधान करने के लिए सरकार एनजेएसी नाम की एक संस्था ले आई, जिसे सर्वोच्च न्यायालय ने खारिज कर दिया था। विगत सात दिसंबर को संसद में उप-राष्ट्रपति के रूप में अपने पहले संबोधन में जगदीप धनखड़ ने वर्ष 2015 में सुप्रीम कोर्ट द्वारा एनजेएसी बिल को खारिज कर देने के फैसले की तीखी आलोचना करते हुए उसे 'संसदीय संप्रभुता को कमतर करने और जनादेश की उपेक्षा करने का स्पष्ट उदाहरण' बताया।
यह सच है कि मुकदमों को निपटाने के मामले में न्यायिक निर्णयों की क्षमता में आई दरार परेशान करती है। न्यायिक नियुक्तियों का तंत्र बनाने के संदर्भ में सरकार और न्यायपालिका के बीच के टकराव ने इस समस्या को और घनीभूत किया है। इसी साल अक्तूबर में सर्वोच्च न्यायालय के प्रधान न्यायाधीश न्यायमूर्ति रमना ने कहा था कि सुप्रीम कोर्ट के कॉलेजियम ने उच्च न्यायपालिका के लिए 106 न्यायाधीशों की जो संस्तुति की थी, सरकार ने उनमें से सिर्फ आठ के नाम को हरी झंडी दी। जजों के रिक्त पदों के आंकड़े पर जरा नजर दौड़ाएं। एक दिसंबर, 2022 तक कुल 34 न्यायाधीशों की क्षमता वाले सर्वोच्च न्यायालय में जजों के सात पद खाली थे, तो उच्च न्यायालयों में जजों के कुल स्वीकृत 1,108 पदों में से 330 या एक तिहाई पद खाली थे। इनमें से इलाहाबाद उच्च न्यायालय में जजों के कुल स्वीकृत 160 पदों में से 60, राजस्थान उच्च न्यायालय में कुल स्वीकृत 50 पदों में से 24, मध्य प्रदेश हाईकोर्ट में 53 स्वीकृत पदों में से 22 और पटना उच्च न्यायालय में कुल स्वीकृत 53 पदों में से 19 खाली थे।
निचली अदालतों में यह आंकड़ा और भी बदतर है, जहां जजों की नियुक्ति का दायित्व राज्य सरकारों और उच्च न्यायालयों पर है। सरकार ने संसद को सूचित किया है कि अधीनस्थ अदालतों में जजों के कुल स्वीकृत 24,521 पदों में से 5,180 पद रिक्त हैं। इसमें भी ज्यादा जनसंख्या वाले राज्यों में यह अंतर चिंतनीय है। उत्तर प्रदेश में जजों के कुल स्वीकृत 3,634 पदों में से 1,106 यानी करीब एक तिहाई पद खाली हैं। इसी तरह बिहार में कुल 1,954 पदों में से 569, मध्य प्रदेश में 2,021 पदों में से 476 और हरियाणा में 772 पदों में से 295 पद खाली हैं। जब वर्चस्व की बहस जारी है, तब धरातल पर हो रहा यह विलंब भीषण है। अदालतों में 4.88 करोड़ से अधिक मुकदमे लंबित हैं। इनमें से 69,598 मुकदमे तो सर्वोच्च न्यायालय में लंबित हैं-इनमें भी 11,000 से अधिक मुकदमे पिछले 10 साल से लंबित हैं। ऐसे ही उच्च न्यायालयों में 59.54 लाख मुकदमे लंबित हैं-जिनमें से 11.14 लाख मुकदमे प्रारंभिक चरण में हैं, तो 12.81 लाख मुकदमे पिछले 10 साल से भी अधिक समय से निपटाए जाने की प्रतीक्षा कर रहे हैं।
हर चार लंबित मुकदमों में से एक इलाहाबाद, मध्य प्रदेश और पटना उच्च न्यायालयों में लंबित हैं। जिला और तालुका न्यायालयों में तो स्थिति और भी बदतर है, जहां 4.28 करोड़ से अधिक मुकदमे लंबित हैं-इनमें से 20 लाख मुकदमे पिछले पांच साल से भी अधिक समय से अटके पड़े हैं। यहां भी अधिक आबादी वाले राज्यों में स्थिति ज्यादा खराब है। उत्तर प्रदेश में लंबित मुकदमों की संख्या 1.09 करोड़ है, जिनमें से 90.93 लाख आपराधिक मुकदमे हैं। बिहार में लंबित मुकदमों की संख्या 34.39 लाख, पश्चिम बंगाल में 27.49 लाख, राजस्थान में 21.16 लाख, मध्य प्रदेश में 19.63 लाख, हरियाणा में 14.34 लाख और दिल्ली में 12.93 लाख लंबित मुकदमे हैं। स्थिति की भीषणता का कारण जजों की उपलब्धता नहीं, बल्कि प्रशासनिक व्यवस्था में आई खराबी है।
अदालतों में फौजदारी के 3.19 करोड़ मामले लंबित हैं। न्यायमूर्ति गोगोई ने 2018 में टिप्पणी करते हुए कहा था कि इनमें से अनेक मुकदमों में अभी तक सम्मन जारी करने की प्रक्रिया पूरी नहीं हुई है। जाहिर है, मुकदमों का निपटान जांच की प्रक्रिया और पुलिस तंत्र की क्षमता पर भी निर्भर करता है। मुकदमों के अंबार की एक वजह सरकारी मुकदमे भी हैं। विगत अगस्त में सरकार ने लोकसभा में बताया कि सर्वोच्च न्यायालय, उच्च न्यायालयों, जिला अदालतों और ट्रिब्यूनल्स में ऐसे 5.95 लाख मुकदमे लंबित हैं, जिनमें केंद्र सरकार के मंत्रालय और विभाग वादी और प्रतिवादी हैं। इस महीने यह आंकड़ा बढ़कर 6.17 लाख हो गया। मुकदमों की बढ़ती संख्या विधायिका और विनियामक व्यवस्था में बदलाव की जरूरत बताती है। व्यापार करने के लिए 1,536 कानूनों का पालन करना पड़ता है। पानी पर छह केंद्रीय मंत्रालयों का नियंत्रण है, तो स्वास्थ्य सेवा केंद्र तथा राज्यों में कई मंत्रालयों के अधीन है।
अर्थव्यवस्था को इन लंबित मुकदमों की कीमत चुकानी पड़ती है। वर्ष 2017-18 के आर्थिक सर्वेक्षण में सुझाया गया था कि निचली अदालतों और उच्च न्यायालयों में जजों के खाली पद भरने से लंबित मुकदमों का बोझ घट सकता है। लंबित मुकदमों में वृ्द्धि सहिष्णुता, स्थिरता और टिकाऊपन पर असर डालती है। संविधान की प्रस्तावना में नागरिकों को न्याय, स्वतंत्रता और समानता की गारंटी दी गई है। इन तीनों का क्रम ही अपने आप में महत्वपूर्ण है। दरअसल न्याय का वादा ही स्वतंत्रता और समानता की गारंटी को संभव बनाता है।
सोर्स: अमर उजाला