संदिग्ध आतंकियों के मुकदमे वापस लेने की अखिलेश की पहल को अदालतों ने पानी फेरा
यह अच्छा हुआ कि किसी ने अखिलेश यादव और मायावती से यह नहीं पूछा कि दरभंगा पार्सल ब्लास्ट केस में राष्ट्रीय जांच एजेंसी द्वारा शामली से गिरफ्तार किए गए संदिग्ध आतंकियों के बारे में उनके क्या विचार हैं, अन्यथा इस मामले में भी शायद उनकी ओर से वैसा ही कुछ कहा जाता, जैसा लखनऊ से गिरफ्तार आतंकियों को लेकर कहा गया। आतंकियों की तरफदारी करने वाले अखिलेश यादव और मायावती के बयान ऐसे समय आए हैं, जब आज से दस वर्ष पहले इन्हीं दिनों (13 जुलाई) को मुंबई में झावेरी बाजार, दादर और ओपेरा हाउस में एक के बाद एक बम विस्फोट हुए थे। इनमें 26 लोग मारे गए थे और तमाम घायल हुए थे। यह वह दौर था जब देश में आए दिन कहीं न कहीं बम विस्फोट होते ही रहते थे। उत्तर प्रदेश भी ऐसी आतंकी घटनाओं से अछूता नहीं था। नवंबर, 2007 में फैजाबाद, वाराणसी और लखनऊ की कचहरी में बम विस्फोट हुए थे। इन धमाकों में 15 लोगों की जान गई थी और इससे दूने लोग घायल हुए थे। इसी वर्ष मई में गोरखपुर में भी बम धमाके हुए थे और दिसंबर में रामपुर के सीआरपीएफ कैंप पर भी हमला हुआ था, जिसमें सात जवानों की जान गई थी। ये सब भीषण आतंकी घटनाएं थीं। इन आतंकी घटनाओं के लिए कुछ लोग गिरफ्तार भी किए गए थे, लेकिन जब 2012 में अखिलेश सत्ता में आए तो उन्होंने इन संदिग्ध आतंकियों के मुकदमे वापस लेने की पहल की। पहले स्थानीय अदालतों ने उनकी इस पहल पर पानी फेरा, फिर उच्च न्यायालय ने। इस खतरनाक पहल के बारे में पहले से अंदेशा था, क्योंकि सपा ने अपने घोषणापत्र में कहा था कि आतंकवाद के आरोप में जेल में बंद 'निर्दोष' लोगों पर चल रहे मुकदमे वापस लिए जाएंगे। पता नहीं सपा को कैसे पता चला कि जिन तत्वों को आतंकी घटनाओं के सिलसिले में गिरफ्तार किया गया वे निर्दोष हैं? जैसे भी पता चला हो, यह गनीमत रही कि अदालतों ने सजगता दिखाई, अन्यथा कथित निर्दोष आतंकी छूट जाते। ऐसा होता तो अनर्थ होता।
संदिग्ध आतंकियों की गिरफ्तारी पर बेचैन हुए अखिलेश और मायावती
यह खास तौर पर गौर से पढ़ें कि अखिलेश यादव बतौर मुख्यमंत्री जिन आतंकियों के मुकदमे वापस लेना चाहते थे, उनमें से अनेक को बाद में उम्रकैद से लेकर फांसी तक की सजा हुई। एक क्षण के लिए कल्पना करें कि अगर अखिलेश सरकार की पहल पर ये आतंकी छूट जाते तो पुलिस-प्रशासन के मनोबल पर कितना बुरा असर पड़ता और आतंकियों का दुस्साहस कितना अधिक बढ़ जाता? कल्पना यह भी करें कि यदि अखिलेश यादव इस समय सत्ता में होते तो क्या उत्तर प्रदेश पुलिस का आतंकवाद निरोधक दस्ता यानी एटीएस लखनऊ से अंसार गजवातुल हिंद के संदिग्ध आतंकियों को गिरफ्तार कर पाता? वह अगर गिरफ्तार कर भी लेता तो शायद उसे सरकार के दवाब में यह कहकर उन्हें छोड़ना पड़ता कि उससे गलती हो गई और जिसे वह प्रेशर कुकर बम समझ रहा था, उसमें तो अधपकी दाल मिली। नि:संदेह जब तक कोई दोषी सिद्ध न हो जाए तब तक उसे अपराधी नहीं माना जा सकता और यह सिद्धांत आतंकियों पर भी लागू होता है, लेकिन क्या इसका यह मतलब है कि संदिग्ध आतंकियों की वैसी खुली पैरवी की जाए, जैसी अखिलेश यादव ने की। यदि उन्हें उत्तर प्रदेश पुलिस पर भरोसा नहीं तो क्या वह अपनी सुरक्षा से पुलिस के जवान हटाने वाले हैं? मायावती से भी यह पूछा जाना चाहिए कि क्या अगर किसी राज्य में चुनाव करीब आ गए हों तो वहां की पुलिस को संदिग्ध आतंकियों को गिरफ्तार करने के बजाय चुनाव खत्म होने का इंतजार करना चाहिए? मायावती को यह भी बताना चाहिए कि आखिर वह कौन सी जनता है जो संदिग्ध आतंकियों की गिरफ्तारी पर बेचैन हुई जा रही है?
संदिग्ध आतंकियों की गिरफ्तारी का सियासी बचाव
यह पहली बार नहीं जब संदिग्ध आतंकियों की गिरफ्तारी पर अखिलेश की तरह खुले और मायावती की तरह से छिपे तौर पर उनका बचाव किया जा रहा हो। सेक्युलरिज्म और पंथनिरपेक्षता के नाम पर ऐसा देशघाती तमाशा खूब होता आ रहा है। 2008 के बाटला हाउस कांड याद कीजिए। सलमान खुर्शीद की मानें तो यहां मारे गए आतंकियों की फोटो देखकर सोनिया गांधी की आंखों से आंसू छलक पड़े थे। बाटला हाउस मुठभेड़ को जिन नेताओं ने फर्जी करार दिया था, उनमें प्रमुख थे दिग्विजय सिंह, अरविंद केजरीवाल और ममता बनर्जी। बाटला हाउस मुठभेड़ के दौरान मौके से भागे आतंकी आरिज खान उर्फ जुनैद को अभी चार महीने पहले मौत की सजा सुनाई गई। जब यह सजा सुनाई गई तो सलमान खुर्शीद, केजरीवाल, दिग्विजय सिंह और ममता बनर्जी से कुछ बोलते नहीं बना। ये इसलिए कुछ नहीं बोल सके, क्योंकि बुरी तरह बेनकाब हो चुके थे।