खुलती खिड़कियां

चुनावी वर्ष के फैसलों के शब्द, सहमति, समय और स्थान तय है, इसलिए अपने अंतिम पायदान पर कोई भी सरकार अति निर्णायक, नरम और सौहार्दपूर्ण दिखाई देती है। यह इसलिए भी जरूरी हो जाता है

Update: 2022-06-27 19:10 GMT

चुनावी वर्ष के फैसलों के शब्द, सहमति, समय और स्थान तय है, इसलिए अपने अंतिम पायदान पर कोई भी सरकार अति निर्णायक, नरम और सौहार्दपूर्ण दिखाई देती है। यह इसलिए भी जरूरी हो जाता है कि चुनावी वर्ष में चाय की टपरी तक सरकार की 'गोपनीय रिपोर्ट' सार्वजनिक हो रही होती है। सरकारों के फैसले क्या राज्य के संबोधन, संवर्द्धन या संदेश का प्रतिनिधित्व कर पाते हैं या अंतिम चरण तक जनापेक्षाओं की भूख तृप्त नहीं होती। जो भी हो, लेकिन सरकार के लिए यह नाजुक परीक्षा है जहां न तो कोई वर्ग मुस्कराता है और न ही फैसलों की सूची पूरी होती है। कमोबेश हर सरकार अपनी सत्ता की पायदान पर पांच सालों में डेढ़ से दो सौ बार मंत्रिमंडलीय बैठकें करके जनता को खुश करने का समाधान ढूंढती है। फैसले अहम और पिछली सरकारों के मुकाबले खरा उतरने की काशिश में कितनी भी कोशिश कर लें, हर बार नौकरी के लिए युवा मन और नौकरी के भीतर कर्मचारी मन पूरी तरह संतुष्ट नहीं होता। मसलन कालीन बिछा कर कर्मचारी हितों का योगासन करती सरकार जिस सुशासन की परख में पकड़ी जाती है, उससे कहीं भिन्न सरकारी कार्यसंस्कृति को बिना हील हुज्जत पुचकारा जाता है।

मुख्यमंत्री कार्यालय की फाइलों में कर्मचारियों के इतने मुद्दे तो होंगे ही कि सरकार के वर्षफल में कई राहु केतु शांत नहीं होते, लेकिन जनापेक्षाओं के सफर में कार्यसंस्कृति अपने अडि़यलपन में मशगूल रहती है। ऐसे में हर मंत्रिमंडलीय बैठक की खिड़कियों पर बैठी चिडि़यां केवल खुशखबरी, उदारता और सरकारी खजाने की चाटुकारिता की सूचना लपकना चाहती हंै। अब सवाल यह रहा ही नहीं कि प्रदेश की अपनी हैसियत है क्या या आर्र्थिक स्थिति के अनुरूप राहें चुनी जाएं, लेकिन इतना जरूर तय है कि फैसले खुशामद करते रहंे, बिना यह जांचे कि खजाने में कितनी आंच लगी है। बहरहाल इन्हीं पैमानों पर ही अगर सरकारों का आचरण तय होना है, तो शनिवार की मंत्रिमडल बैठक ने अपने नेक कार्य और इनसाफ चुने हैं। अप्रत्यक्ष व प्रत्यक्ष रोजगार की किलेबंदी करते फैसलों का प्रकाश दूर तक देखा जा रहा है।
जाहिर है जब सरकारी नौकरियांे की गर्दन ऊपर उठती है, तो सरकार के पक्ष में कबूल है-कबूल है, तो होगा ही। आखिर पांच हजार युवाओं के भरोसे की तस्वीर छोटी नहीं होती। नौकरी अपने आप में राजनीतिक क्षतिपूर्ति है या नहीं, लेकिन हिमाचल में सरकार को यह खाका बनाना पड़ता है। खासतौर पर अप्रत्यक्ष भर्तियांे की मुराद में सदा एक नई संस्कृति जन्म लेती है। इस बार पैरा वर्करों की तादाद में नौकरी की देवी प्रसन्न होगी, तो कुछ स्थायी पद भी मुस्करा रहे हैं। जिस अग्निपथ योजना को लेकर केंद्र बनाम युवा पक्ष आपसी समझौता नहीं कर पा रहे हैं, वहां भी हिमाचल सरकार ने फौज से चार साल बाद लौट रहे 'अग्निवीरों' को नौकरी की गारंटी देने की वचनबद्धता के आलेख तैयार किए हैं। हिमाचल में वैचारिक तौर पर राजनीति भले ही नगण्य हो, लेकिन एक ऐसा सियासी बंधुत्व जरूर देखा जा सकता है जो ऐन चुनाव के वक्त अपने प्रकटीकरण की कीमत वसूलता है। यह राजनीति का ऐसा अजीब घनत्व है जो सत्ता के लिए सरकार को अपनी क्षमता से अधिक कर गुजरने को उकसाता है। ऐसे में हर बार कुछ ऐसे फैसले सामने आते हैं, जो हतप्रभ करते हैं। कुछ फ्री यूनिट की बिजली आपूर्ति और महिला यात्रियों को आधे किराए पर स़फर की गारंटी देने के बाद सरकार इस बार लोक सेवा आयोग के सदस्यों व अध्यक्ष को पूरा काल निभाने के बाद तीस से छत्तीस हजार प्रति माह देने का प्रबंधन कर रही है। यह एक और हैरान कर देने का पक्ष है, देखंे कल हम ऐसे कितने फैसलों पर चौंकते हैं।

सोर्स- divyahimachal

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